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व्यक्ति की क्षमता की सीमाएं हैं, और जैसे ही वह यह समझने लगता है कि वह सब कुछ करने में समर्थ है, ईश्वर उसके गर्व को चूर कर देता है। जहां तक मेरा प्रश्न है, मुझे स्वभाव में इतनी विनम्रता मिली है कि मैं बच्चों और अनुभवहीनों से भी मदद लेने के लिए तैयार रहता हूं।
हृदय की सच्ची और शुद्ध कामना अवश्य पूरी होती है। अपने अनुभव में, मैंने इस कथन को सदा सही पाया हैं। गरीबों की सेवा मेरी हार्दिक कामना रही है और इसने मुझे सदा गरीबों के बीच ला खड़ा किया है और मुझे उनके साथ तादात्म्य स्थापित करने का अवसर दिया है।
मुझे जीवन भर गलत समझा जाता रहा। हर एक जनसेवक की यही नियति है। उसकी खाल बड़ी मजबूत होनी चाहिए। अगर अपने बारे में कही गई हर गलत बात की सफाई देनी पड़े और उन्हें दूर करना पड़े तो जीवन भार हो जाए। मैंने अपने जीवन का यह नियम बना लिया है कि अपने बारे में किए गए गलत निरूपणों या मिथ्या प्रचारों पर स्पष्टीकरण न देता फिरूं सिवाय तब के जबकि उनको सुधारे जाने की जरूरत लगे। इस नियम के पालन से मेरी कई चिंताएं मिटीं और बहुत-सा समय बचा।
मैं अपने देशवासियों से कहता हूं कि उन्हें आत्मत्याग के अलावा और किसी सिद्धांत का अनुसरण करने की जरूरत नहीं है- प्रत्येक युद्ध से पहले आत्मत्याग आवश्यक है। आप चाहे हिंसा के पक्षधर हों या अहिंसा के, आपको त्याग और अनुशासन की अग्निपरीक्षा से गुजरना ही होगा।
छल-कपट और असत्य आज दुनिया के सामने सीना ताने खड़े हैं। मैं ऐसी स्थिति का विवश साक्षी नहीं बन सकता.. यदि आज मैं चुपचाप और निष्ठ बन कर बैठ जाउंगा तो ईश्वर मुझे इस बात के लिए दंडित करेगा कि मैंने समूची दुनिया को अपनी चपेट में ले रही इस आग को बुझाने के लिए उसके द्वारा प्रदत्त सामर्थ्य का इस्तेमाल क्यों नहीं किया।
सच्चा उपवास शरीर, मन और आत्मा-तीनों की शुद्धि करता है। यह देह को यंत्रणा देता है और उसी सीमा तक आत्मा को स्वतंत्र करता है। इसमें सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना आश्चर्यजनक परिणाम उत्पन्न कर सकती है। यह आत्मा की और अधिक शुद्धि के लिए की जाने वाली आर्त पुकार ही तो है। इस प्रकार प्राप्त की गई शुद्धि जब किसी शुभ उद्देश्य के लिए प्रयुक्त होती है तब वह प्रार्थना बन जाती है।
मैं सोचता हूं कि वर्तमान जीवन से ‘संत’ शब्द निकाल दिया जाना चाहिए। यह इतना पवित्र शब्द है कि इसे यूं ही किसी के साथ जोड़ देना उचित नहीं है। मेरे जैसे आदमी के साथ तो और भी नहीं, जो बस एक साधारण-सा सत्यशोधक होने का दावा करता है। जिसे अपनी सीमाओं और अपनी त्रुटियों का अहसास है और जब-जब उससे त्रुटियां हो जाती हैं, तब-तब बिना हिचक उन्हें स्वीकार कर लेता है और जो निस्संकोच इस बात को मानता है कि वह किसी वैज्ञानिक की भांति, जीवन की कुछ ‘शाश्वत सच्चाइयों’ के बारे में प्रयोग कर रहा है, किंतु वैज्ञानिक होने का दावा भी वह नहीं कर सकता, क्योंकि अपनी पद्धतियों की वैज्ञानिक यथार्थता का उसके पास कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है और न ही वह अपने प्रयोगों के ऐसे प्रत्यक्ष परिणाम दिखा सकता है जैसे कि आधुनिक विज्ञान को चाहिए।- [महात्मा गांधी]
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साभार : दैनिक जागरण 02 अक्टूबर 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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