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मर रहा है आंखों का पानी

मुद्दा
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जल बिन जीवन !

 

बारहमासी बन चुकी पानी की समस्या गर्मियों में चरम पर होती है। विडंबना यह है कि इस विकराल समस्या को उतने ही हल्के से देखा जाता है। सरकारों को छोड़ दें तो लोगों में भी इसके संरक्षण के प्रति संजीदगी नहीं दिखती है। शायद उनको लगता है कि केवल उनके जल संरक्षण से समस्या थोड़े ही सुलझने वाली है! प्रकृति के अत्यधिक दोहन से धरती का गर्भ सूखता जा रहा है। पहले चंद फीट नीचे का पानी अब पाताल में पहुंच चुका है। धरती के ऊपर के जल स्नोत ताल तलैये, झील, नदी सब या तो सूख रहे हैं या हम उन्हें सूखने पर मजबूर कर रहे हैं। कंक्रीट के जंगल ने धरती के अंदर पानी के रिसाव पर पहरा लगा दिया है। नतीजा पानी की किल्लत के रूप में हमारे सामने है। बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है। इसलिए छोटे स्तर की शुरुआत भी हमारे भविष्य को उज्ज्वल बना सकती है। अनमोल पानी के बिना जीवन जीने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसलिए आइए, आज से ही मनसा, वाचा और कर्मणा जल संरक्षण की दिशा में प्रभावी प्रयास करें

अरुण तिवारी (संयोजक: गंगा जल बिरादरी)

पानी मुद्दा है। यह सच है। लेकिन इससे भी बड़ा मुद्दा है, हमारी आंखों का पानी! क्योंकि पानी चाहे धरती के ऊपर का हो या नीचे का…यह सूखता तभी है, जब संत, समाज और सरकार तीनों की आंखों का पानी मर जाता है। आज ऐसा ही है। वरना पानी के मामले में हम कभी गरीब नहीं रहे।

आज भी हमारे ताल-तलैये, झीलों और नदियों को समृद्ध रखने वाली वर्षा के सालाना औसत में बहुत कमी नहीं आई है। जल संरक्षण के नाम पर धनराशि भी कोई कम खर्च नहीं हुई। जल संरक्षण को लेकर अच्छे कानून और शानदार अदालती आदेशों की भी एक नहीं, अनेक मिसाल हैं। वर्षा जल के संचयन की तकनीक और उपयोग में अनुशासन की जीवन शैली तो हमारेगांव का कोई गंवार भी आपको सिखा सकता है। लेकिन ये हमारी आंखों का पानी नहीं ला सकते।

भारतीय संस्कृति में समाज को प्रकृति अनुकूल अनुशासित जीवनशैली हेतु निर्देशित व प्रेरित करने का दायित्व धर्मगुरुओं का था। तद्नुसार समाज पानी के काम को धर्मार्थ का आवश्यक व साझा काम मानकर किया करता था। इसके लिए महाजन धन, शासक भूमि व संरक्षण प्रदान करता था। आज सभी अपने-अपने दायित्व से हट गये हैं। स्वयं धर्मगुरुओं के आश्रमों का कचरा नदियों में जाता है। समाज सोच रहा है, ‘हम सरकार को वोट और नोट देते है। अत: सब कुछ सरकार करेगी।’ सरकारें हैं कि इनमें पानी के प्रति प्रतिबद्धता कहीं दिखाई ही नहीं दे रही।

सरकारी योजनाओं के पैसे से बेईमान अपनी तिजोरियां भर रहे हैं। वरना एक अकेले मनरेगा के कार्य ही देश के तालाबों का उद्धार कर देते। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा सिविल अपील संख्या: 4787/2001, हिंचलाल तिवारी बनाम कमला देवी आदि में पारित आदेश की अनुपालना के संबंध में राजस्व परिषद, उत्तर प्रदेश के एक शानदार आदेश की पालना हुई होती, तो उत्तर प्रदेश के सभी तालाब झील, रास्ते, खलिहान आदि कभी के कब्जा मुक्त हो गए होते। जमीनी हकीकत यह है कि कब्जा मुक्ति तथा जमीनी सीमांकन तो दूर, संबंधित विभागों में ही जल संरचनाओं के रिकार्ड दुरुस्त नहीं है। हमारे सभी प्रदेशों की स्थिति यही है, तो संरक्षण कैसे हो? जल संरचनाओं को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कायदे कम नहीं बनाए हैं, लेकिन सच है कि राज्य बोर्ड ‘प्रदूषण नियंत्रण में है’ का प्रमाणपत्र बांटने वाली और रिश्वत बटोरने वाली संस्था मात्र बनकर रह गए हैं। सरकार और समाज को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि समाज की अपनी पहल, सक्रियता व साझे के बगैर कोई कानून, तकनीक या बजट देश को पानीदार नहीं बना सकता। देश को पानीदार बनाने के लिए धन से ज्यादा लोकधुन की जरूरत है। समाज को खुद चेतना होगा। योजनाओं को अपना मानकर खुद सहभागिता व निगरानी करनी होगी। तब सरकारें खुद चेत जाएंगी।… तब भारतीय जल संरचनाएं बगैर किसी विदेशी कर्ज व तकनीक के पानीदार हो जाएंगी। यही रास्ता है।

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साभार : दैनिक जागरण 24 अप्रैल 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

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