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पहचान
आदिकाल से वसुधैव कुटुंबकम की संस्कृति और सभ्यता को जीने वाले हम भारतीयों की अनेकता में एकता की पहचान रही है। प्रशासनिक सुविधा के हिसाब से भले ही हमारे देश को विभिन्न प्रांतों में बांट दिया गया हो लेकिन हम सबकी अंतरात्मा के मूल में भारतीयता बसती है। ये प्रांत किसी माला में गुंथे हुए विभिन्न रूप, रंग और आकार-प्रकार की मोतियों की तरह हैं।
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प्रवासन
भौगोलिक, कारोबारी और राजनीतिक असमानता के चलते हमारे कुछ राज्यों ने तेज आर्थिक विकास किया तो कुछ पिछड़े रह गए। लिहाजा कमजोर प्रदेशों के लोग रोजगार और आजीविका के लिए समृद्ध प्रदेशों के प्रवासी बनते गए। वहां इन लोगों ने अपने हुनर और कौशल से राज्य का चहुंमुखी विकास किया। यद्यपि किसी को भी देश के भीतर कहीं भी रोजी-रोटी कमाने की स्वतंत्रता है फिर भी कुछ लोग राजनीतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर प्रवासियों को ‘बाहरी’ या ‘घुसपैठिया’ कहने से परहेज नहीं करते हैं। महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर, और दक्षिण भारत में कुछ लोग इसके अलंबरदार रहे हैं। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे द्वारा प्रवासियों को घुसपैठिया करार देने और शिवसेना के उद्धव ठाकरे द्वारा इनके लिए परमिट व्यवस्था संबंधी दिए गए ताजा बयान इसकी बानगी हैं।
परिणाम
जन्मभूमि को छोड़कर जाने वाले प्रवासी अपने गंतव्य स्थल को कर्मभूमि मानकर मनसा वाचा कर्मणां उसके प्रति समर्पित रहते हैं। इनके पसीने की महक राज्य के बढ़ते खजाने में सूंघी जा सकती है। इनकी सहज मुस्कान की झलक राज्य के चहुंमुखी विकास में देखी जा सकती है। ऐसे में किसी व्यक्ति, संस्था या समूह द्वारा इनमें असुरक्षाबोध पैदा किया जाना न सिर्फ निंदनीय है बल्कि कानूनन अपराध है। भारत एक है। हम सब भारतवासी हैं। राष्ट्र की एकता और अखंडता से खिलवाड़ करने वाले ऐसे लोगों द्वारा की जाने वाली क्षेत्रवाद और नफरत की राजनीति को खत्म करना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
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वोट बैंक की खातिर मचा है कोहराम
महाराष्ट्र
शिवसेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना एवं राष्ट्रवादी कांग्र्रेस जैसे क्षेत्रीय दल मुंबई-ठाणे में रह रहे प्रवासियों से इसलिए खफा रहते हैं क्योंकि प्रवासियों की बढ़ती आबादी ने क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक आधार कमजोर कर दिया है।
1960 में महाराष्ट्र की स्थापना के समय मुंबई (तब बंबई) में मराठी भाषियों की आबादी 41.64 प्रतिशत थी। 1980 पार करते-करते महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल को यह कहना पड़ा था कि महाराष्ट्र में मुंबई है, लेकिन मुंबई में महाराष्ट्र नहीं
दिखता। ऐसा कथन इस बात की ओर इशारा करता है कि मुंबई में उत्तर भारतीयों और अन्य क्षेत्रों के लोगों की बढ़ती आमद कहीं न कहीं वहां के स्थानीय नेताओं को चिंतित करती रही है। उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र के
निर्माण के समय यहां उत्तर प्रदेश से आनेवालों की आबादी जहां 12.01 प्रतिशत थी, बीते 50 वर्षों में यह बढ़कर लगभग 25 प्रतिशत हो गई है।
मुंबई में रह रहे कुल हिंदीभाषियों में बिहार के लोगों की आबादी लगभग 3.50 प्रतिशत, मध्यप्रदेश वालों की 1.14 प्रतिशत, राजस्थान वालों की 3.87 प्रतिशत और दिल्ली वालों की लगभग आधा प्रतिशत हो गई है। यदि दक्षिण सहित शेष भारत के मुंबई में रह रहे लोगों की आबादी भी जोड़ ली जाए तो उन सबके सामने मराठीभाषियों की कुल आबादी अब सिर्फ 37.40 प्रतिशत ही रह गई है।
मुंबई में हिंदीभाषियों की बढ़ी ताकत का ही नतीजा है कि 2009 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मुंबई महानगर की लगभग 25 प्रतिशत, अर्थात नौ सीटों पर हिंदी भाषी प्रत्याशियों को जीत हासिल हुई है। मुंबई में हिंदीभाषियों के दबदबे का ही परिणाम है कि कुछ समय पहले तक कांग्र्रेस, राकांपा और भाजपा ने अपना मुंबई अध्यक्ष हिंदीभाषियों को ही बना रखा था। मुंबई की छह लोकसभा सीटों में से भी तीन पर हिंदीभाषी नेता जीतकर आए हैैं। हिंदीभाषियों की यही ताकत और राजनीतिक चेतना यहां के क्षेत्रीय दलों को परेशान करती रहती है। शिवसेना और मनसे तो मराठीभाषी मतदाताओं पर निर्भर हैैं ही, शरद पवार की राकांपा भी इसी वोटबैंक को अपना मानती है। इसलिए मुंबई के मराठीभाषियों का दिल जीतने के लिए ये तीनों ही दल मौका मिलने पर हिंदीभाषियों के विरोध में जहर उगलने से पीछे नहीं रहते ।
(मुंबई से ओमप्रकाश तिवारी की रिपोर्ट)
बाहरी हुए आत्मसात
गुजरात
प्रदेश में प्रवासियों की संख्या 50 लाख से अधिक है। राजस्थान से आए लोगों की संख्या इनमें सर्वाधिक है। इसके अलावा बिहार, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत, उत्तर प्रदेश और पंजाब से भी लोग यहां प्रवासी हैं। अकेले हिंदीभाषियों की संख्या 20 लाख से ऊपर है जबकि महाराष्ट्र से आए लोगों की संख्या 7 लाख और बिहार से पांच से छह लाख के बीच है। यहां अच्छी तादाद में दक्षिण भारतीय लोग भी मौजूद हैं। मारवाड़ी समुदाय ने गुजरात के प्रमुख कपड़ा, हीरा व रसायन उद्योग के साथ स्टील उद्योग में अपनी जबर्दस्त पकड़ बना रखी है। बिहार, उड़ीसा, बंगाल व राजस्थान के लोग बड़ी संख्या में यहां के श्रम के काम से भी जुड़े हैं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन प्रदेशों के पारंपरिक त्योहार के समय गुजरात में निर्माण कार्य ठप हो जाता है।
(अहमदाबाद से शत्रुघ्न शर्मा की रिपोर्ट)
अनुकरणीय उदाहरण
केरल
आज राज्य के 22.8 लाख लोग प्रवासी विदेश में रह रहे हैं जबकि 9.31 लाख लोग देश के दूसरे राज्यों में प्रवासी हैं। यहां की नर्सें देश के विभिन्न राज्यों में रोगियों की सेवा में जुटी हुई हैं। दिनोंदिन बढ़ती इस प्रवृत्ति से यहां स्थानीय स्तर पर कुशल और अकुशल श्रमिकों की समस्या पैदा हो गई। अन्य राज्यों से पारिश्रमिक जैसी अन्य कई सहूलियतों के चलते यह देश के भीतर प्रवासी श्रमिकों का पसंदीदा राज्य बनता जा रहा है। शुरुआत में तो केवल तमिलनाडु और कर्नाटक से प्रवासी यहां पहुंचे लेकिन अब पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, असम, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड से श्रमिक यहां पहुंच रहे हैं। इन लोगों को स्थानीय लोगों से बहुत मित्रवत सहयोग भी प्राप्त है। सरकार भी प्रवासियों के कल्याण को लेकर काफी संजीदा है। इनके लिए अलग से बजटीय प्रावधान के साथ प्रवासी श्रम कल्याण कोष की भी स्थापना की गई है।
पूरक ही नहीं जरूरत हैं प्रवासी
पश्चिम बंगाल
बंगाल और खास कर कोलकाता के बारे में कहा जाता है कि यह अपनत्व से भरी नगरी है। यहां बड़ी सहजता से बाहरियों को ठौर मिल जाता है। इसीलिए यह मिनी इंडिया भी है।
भारत का शायद ही कोई ऐसा राज्य है, जहां के लोग बंगाल में नहीं रह रहे हैैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, झारखंड, ओडिशा, असम, मिजोरम, नागालैंड, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक की तो अच्छी खासी आबादी बंगाल में है। बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात की तो बात ही क्या करनी? इन राज्यों का शायद ही कोई जिला बचा हो जहां के लोग यहां नौकरी, व्यवसाय, मजदूरी या फिर अन्य रोजगार न कर रहे हों।
पूरे बंगाल में प्रवासियों की संख्या करीब दो करोड़ है। सिर्फ वृहत्तर कोलकाता में 60 लाख से ज्यादा प्रवासी हैं। दरअसल, प्रवासी बंगाल में पूरक ही नहीं जरूरत बन चुके हैं। दफ्तर से लेकर घर तक और वैन रिक्शा से लेकर टैक्सी, बस, ट्रक व रेल तक के चक्केप्रवासियों के सहारे घूमते हैं। सड़क, बिल्डिंग या फिर ब्रिज तैयार करने में प्रवासियों का पसीना बहता है। हाल में अब तक ऐसी कोई घटना देखने
या फिर सुनने को नहीं मिली है, जिसमें प्रवासियों के साथ किसी नेता या फिर बंगाल के आम लोगों ने दुव्र्यवहार किया हो या फिर धमकी दी हो।
हालांकि, बंगाल में रहने वाले हिंदी भाषियों को एक दुख हमेशा रहा है कि इतनी बड़ी तादाद होने के बावजूद राज्य की सत्ता संचालन में अपेक्षित हिस्सेदारी नहीं मिल सकी है। हालांकि, प्रशासनिक रूप से देखें तो बंगाल में आइएएस, आइपीएस, आइआरएस समेत विभिन्न सरकारी दफ्तरों में प्रवासियों की संख्या काफी है। चिकित्सा, आइटी
और उद्योग के मामले में प्रवासियों का कोई सानी नहीं है। राज्य में 90 फीसद
उद्योग व व्यवसाय प्रवासियों के हाथों में है। इन कारोबार के संचालन में काम करने वाले कर्मचारियों में भी 60 फीसद दूसरे राज्यों के रहने वाले हैं।
(कोलकाता से जयकृष्ण वाजपेयी की रिपोर्ट)
कृषि व इंडस्ट्री की ‘बैकबोन’
पंजाब
प्रवासी श्रमिक यहां न सिर्फ कृषि और उद्योग बल्कि भवन निर्माण से लेकर राज्य के विकास में भी अपना योगदान दे रहे हैं। धान-गेहूं की बिजाई से लेकर कटाई के दौरान जमींदार आपस में श्रमिकों को लेकर न सिर्फ सरेआम लड़ पड़ते हैं बल्कि श्रमिकों को लुभाने के लिए मोबाइल, घर जैसी सुविधाएं तक मुहैया करवाते हैं। आतंकवाद के दिनों में भी कृषि क्षेत्र में रोजगार ढूंढने के लिए बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से श्रमिक आते थे। आतंकवाद का दौर समाप्त होने के बाद राज्य में उद्योग का विस्तार होना शुरू हुआ। तब हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड के श्रमिक भी पंजाब में आने लगे। वर्तमान में पंजाब में करीब 42 लाख प्रवासी हैं। जिसमें से 22 लाख श्रमिक बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं। जबकि बाकी के हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड व अन्य राज्यों से हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के श्रमिक सबसे ज्यादा कृषि, इंडस्ट्री के क्षेत्र में हैं। उत्तराखंड के श्रमिक होटल इंडस्ट्री, टूरिज्म जबकि हिमाचल और राजस्थान के लोग अन्य क्षेत्रों से जुड़े हैं।
(चंडीगढ़ से कैलाश नाथ की रिपोर्ट)
विकास में बनें भागीदार
दिल्ली
दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र रोजगार देने में देश में अव्वल है। देश के कोने-कोने से लोग यहां पहुंचते हैं और यहीं के होकर रह जाते हैं। यहां कुल प्रवासियों की संख्या के करीब आधे लोग उत्तर प्रदेश से हैं। इसके अलावा हरियाणा, बिहार, राजस्थान, पंजाब के लोगों की भी यहां अच्छी खासी आबादी है। इन्हीं बाहरी लोगों से यहां की संस्कृति में अनेकता में एकता की झलक देखी जा सकती है। शहर में संपन्नता की धौंस दिखाती गगनचुंबी इमारत की नींव में इन्हीं बाहरी मजदूरों के पसीने की खुशबू फैली हुई है। अपने अथक परिश्रम से ये चार पैसे अगर यहां कमा रहे हैैं तो राज्य के खजाने में कहीं ज्यादा बढ़ोतरी कर रहे हैैं। स्थानीयों को दूध से लेकर आलू तक की आपूर्ति यही करते हैैं। पैदल न चलना पड़े, इसके लिए रिक्शा लेकर हाजिर रहते हैैं। दिल्ली सरकार के सभी विभागों में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर उच्च पदों पर तैनात ये लोग कानून व्यवस्था से लेकर बुनियादी सुविधाओं को चाक-चौबंद रख रहे हैैं। इनकी तमाम सेवाओं का आर्थिक मूल्य लगाने के लिए कोई भी स्वतंत्र हैै।
विविधता में एकता
कई देशों ने नस्ल, भाषा, समूह की दूरी को मिटाते हुए लोगों के बीच भाई-चारे, सद्भावना, आर्थिक और राजनीतिक संबंधों को विकसित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए हैं :
यूरोपीय संघ
यूरोप की आर्थिक और राजनीतिक एकता के मकसद से इस संघ का गठन किया गया है। वर्तमान में यूरोप के 27 देश इसके सदस्य हैं। स्वतंत्र संस्थाओं और अंतर-सरकारी (इंटरगर्वनमेंटल) निर्णयों से इस संघ का संचालन किया जा रहा है। नियमों की समुचित व्यवस्था से संघ ने एकल बाजार प्रणाली विकसित की है। सदस्य देशों के बीच मुक्त आवागमन के लिए पासपोर्ट प्रणाली समाप्त की गई है। इन सब नीतियों का प्रमुख मकसद लोगों, वस्तुओं, सेवाओं और पूंजी का मुक्त आवागमन है। लोगों के स्वतंत्र गमन का आशय है कि इस संघ के नागरिक सदस्य देशों में रहने, काम करने, पढ़ने और सेवानिवृत्ति के बाद आसानी से बस सकते हैं। ऐसी व्यवस्था की गई है कि उन लोगों को कम से कम प्रशासनिक औपचारिकताओं का सामना करना पड़े। व्यावसायिक योग्याताओं को सदस्य देशों के बीच स्वीकृति प्रदान की गई है। पूंजी के मुक्त प्रवाह का मतलब संबंधित देशों के बीच निवेश का माहौल बनाने के लिए संपत्तियों और शेयरों की खरीद-फरोख्त में आसानी प्रदान करना है। सेवाओं के मुक्त प्रवाह का मतलब है कि स्वरोजगारी व्यक्ति सदस्य देशों के बीच अस्थायी या स्थायी रूप से रहकर अपनी सेवाएं दे सकता है।
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