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नोट के बदले वोट!

मुद्दा
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वोट: चुनाव लोकतंत्र की प्राथमिक जरूरत। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष। उम्मीदवारों के चयन प्रक्रिया की आत्मा। इसका मतलब है कि लोकतंत्र में किसी भी मतदाता को अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देने का अधिकार है। उसके इस अधिकार को कोई भी किसी तरह के प्रलोभन से अगर प्रभावित करने की कोशिश करता है तो यह गैरकानूनी है। इसके लिए चाहे वह सफेद धन का उपयोग करे या काले धन का।


Black Moneyनोट: पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की तैयारियां जोरों पर हैं। पार्टियां और उम्मीदवार संबंधित विधानसभा में पहुंचने के लिए साम, दाम, दंड और भेद समेत सभी उपाय अपना रहे हैं। पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। चूंकि चुनाव में खर्च की सीमाएं तय हैं जिसका प्रत्याशियों को पाई-पाई का हिसाब देना होता है और यह भी कटु सत्य है कि खर्च की इस सीमारेखा में आज के दौर में चुनाव जीतना नामुमकिन है, लिहाजा सभी उम्मीदवार इसतरह के खर्च में बेहिसाबी धन [काला धन] का उपयोग करते हैं।


खोट: चुनाव आयोग ने भी माना है कि देश में निष्पक्ष चुनाव कराने में धनबल सबसे बड़ी समस्या बन चुका है। इसके लिए तमाम एहतियात भी बरतीं जा रही हैं। आयोग की गठित टीमों द्वारा जगह-जगह करोड़ों रुपये पकड़े जाने के मामले प्रकाश में आ रहे हैं। निश्चित तौर पर इनका उपयोग चुनाव में वोटों को अपने पक्ष करने के लिए किया जाता। इसलिए लोकतंत्र के लिए घातक साबित होने वाली चुनाव में काले धन के प्रयोग की बढ़ती प्रवृत्ति बड़ा मुद्दा है।


jagdeep chhokarमौजूदा विधानसभा चुनावों में काले धन के उपयोग की प्रवृत्तिमें दिख रही वृद्धि चिंताजनक है। चुनाव में काले धन के उपयोग के पीछे राजनीतिक दलों की यह भ्रामक सोच है कि उनके अस्तित्व का एकमात्र मकसद चुनाव जीतना और सत्ता में आना है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीतिक दलों की दृष्टि इतनी संकुचित हो गई है कि वह केवल चुनाव जीतने तक सीमित रह गई है। इस दृष्टि का नतीजा इस रूप में देखा जा सकता है कि प्रत्याशी के चयन का आधार केवल उसके जिताऊ होने की संभावनाओं पर आकर टिक गया है। किसी भी प्रस्तावित प्रत्याशी के लिए उसके जिताऊ होने की गारंटी ही एकमात्र शर्त होकर रह गई है। इसी के आधार पर राजनीतिक दल प्रत्याशियों को टिकट दे रहे हैं।


यह जिताऊ होने की प्रवृत्तिकई रूपों में आती है। ईवीएम के आने के दौर के पहले पोलिंग बूथ और मतदान पेटियों पर कब्जा करने की क्षमता जिताऊ प्रत्याशी के प्रमुख अवयव माने जाते थे। बाहुबल का इस्तेमाल करते हुए वोटरों और विपक्षी दलों को भयभीत करना खूबी मानी जाती थी। यह वह दौर था जब चुनाव में बाहुबल का राज हुआ करता था। ईवीएम मशीनों के उपयोग और चुनाव आयोग द्वारा चुनाव सुधारों के लिए किए गए प्रयासों के कारण इस प्रवृत्तिपर पूरी तौर पर तो नहीं लेकिन प्रभावी रूप से अंकुश लगाया जा सका।


बाहुबल की ताकत पर विराम लगने के बाद राजनीतिक दलों के लिए धन की ताकत सबसे जिताऊ फैक्टर बनती गई। इस तरह के मामले भी सामने आए हैं कि कुछ राजनीतिक दल प्रत्याशी बनने की चाह रखने वाले उम्मीदवारों से टिकट के बदले चंदे के रूप में पैसे लेते हैं। ऐसे में प्रत्याशी को सबसे पहले पार्टी की ओर से नामांकन लेने के लिए बड़ी मात्रा में धन खर्च करना पड़ता है। जब इस तरह के प्रत्याशी को टिकट मिल जाता है तो स्थानीय स्तर पर जूझने वाला कार्यकर्ता अपने को ठगा महसूस करता है। इसका नतीजा यह होता है कि हर चुनाव में टिकट वितरण के बाद घमासान मचता है और कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर विद्रोह की रणनीति अपनाते हुए चुनाव में खम ठोंकने लगते हैं।


एक बार चंदा देकर पार्टी की ओर से नामांकन पाने वाले जिताऊ उम्मीदवार चुनाव में जीतने का तरीका खोजने लगते हैं जबकि स्थानीय स्तर पर अधिकांश कार्यकर्ता उसके साथ काम करने के इच्छुक नहीं होते। बस इसी मौके पर अचूक अस्त्र के रूप में पैसे का खेल खेला जाता है। इस धन का उपयोग करके जिताऊ उम्मीदवार सबसे पहले पार्टी के सदस्यों को अपनी ओर जोड़ता है। इसी धन बल के दम पर बाद में वोटरों को रिझाने की कोशिश की जाती है। यह इसी धनतंत्र का नतीजा है जिसके कारण हर तरफ करोड़ों रुपये पकड़े जा रहे हैं। यहां तक कि शातिराना तौर पर एंबुलेस में रखकर भी काला धन ले जाते हुए पकड़ा जा रहा है। सबसे पहले तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में इस तरह की घटनाएं देखने को मिली थीं। अब उत्तार प्रदेश में उनकी पुनरावृत्तिदिखाई दे रही है।


चुनाव आयोग द्वारा खर्च की अधिकतम सीमा तय करने और व्यय खर्च का हलफनामा भरने की आवश्यक शर्त के कारण ये जिताऊ प्रत्याशी अपने ऊपरी खर्च को इस रिपोर्ट में दिखा नहीं सकते। लिहाजा इस तरह का सारा खर्च अवैध धन की शक्ल में अतिरिक्त खर्च के रूप में शामिल होता है। इसका एक रोचक पहलू यह भी है कि अधिकांश प्रत्याशी अपने व्यय खर्च के हलफनामे में घोषणा करते हैं कि चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित अधिकतम खर्च सीमा का उन्होंने आधा ही खर्च किया है। इसी का नतीजा है कि काले धन का चुनाव में उपयोग बढ़ता जा रहा है।


चुनाव लड़ने के लिए सरकारी खर्च उपलब्ध कराने का विचार चुनाव में काले धन के इस्तेमाल को रोकने में कारगर हो सकता है। यह भी तभी संभव है जब प्रत्याशी और राजनीतिक दल अपने को पारदर्शी बनाएं और उनकी जांच की भी व्यवस्था हो। जब तक राजनीतिक दलों के खर्च की व्यवस्था पारदर्शी नहीं होती तब तक सरकारी खर्च पर चुनाव लड़ने का विचार व्यावहारिक नहीं है। वरना जिस तरह बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है वही हाल सरकारी खर्च पर चुनाव का भी होगा।


चुनाव आयोग ने काले धन को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाए हैं लेकिन ये सारे कदम काले धन के इस्तेमाल को पूर्णतया रोक नहीं सकते यद्यपि उसके उपयोग को कम कर सकते हैं। यह तभी संभव है जब राजनीतिक दलों के वित्ताीय मामलों को पारदर्शी बनाया जाए और उनकी जांच की व्यवस्था हो।


सरकारी खर्च के मसले पर इंद्रजीत गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अंश: इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इस कमेटी द्वारा दिए गए सुझाव सीमित प्रकृति के ही हैं। यह चुनाव सुधार के केवल एक पहलू से ही संबंधित हैं। संपूर्ण चुनावी परिदृश्य में यह कॉस्मेटिक परिवर्तन ही ला सकते हैं। इस बात की तात्कालिक आवश्यकता है कि चुनाव को सभी प्रकार की बुराइयों विशेष रूप से राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने की आवश्यकता है। यह कहने की जरूरत नहीं कि धनबल और बाहुबल चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं। इनका सामूहिक प्रभाव चुनाव की पवित्रता पर असर डाल रहा है और स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव नहीं हो पा रहे हैं।


चुनाव नियमों में सुधार पर लॉ कमीशन की 170वीं रिपोर्ट के अंश: आंशिक या पूरे सरकारी खर्च [स्टेट फंडिंग] पर चुनाव के लिए यह सबसे जरूरी है कि राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र, सुव्यवस्थित ढांचा, अकाउंट ऑडिटिंग और इसकी रिपोर्ट चुनाव आयोग को सौंपने की पहली शर्त हो। इन पूर्व दशाओं के बगैर राज्य द्वारा दिए जाने वाला फंड पार्टियों के लिए धन प्राप्त करने का एक और जरिया बन जाएगा। इसलिए हमारा विचार है कि स्टेट फंडिंग के मसले पर इंद्रजीत गुप्ता कमेटी के सुझावों को तभी अमल में लाया जाना चाहिए जब इस रिपोर्ट में राजनीतिक दलों के लिए बताई गई पूर्व दशाएं लागू की जाएं।


खर्चे के चर्चे

भारत: सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के एक अध्ययन के अनुसार 2009 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा चुनाव में खर्च किए गए धन का अनुमान 10 हजार करोड़ रुपये है। यह रकम 2008 में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव से भी ज्यादा है।


10,000 करोड़ रुपये: लोकसभा चुनाव 2009 में किया गया कुल खर्च

2500 करोड़ रुपये: राशि का आधिकारिक उल्लेख नहीं

1300 करोड़ रुपये: चुनाव आयोग द्वारा किया गया कुल खर्च

700 करोड़ रुपये: विभिन्न केंद्रीय और राज्य संस्थाओं द्वारा ईवीएम और पोलिंग बूथ इत्यादि पर किया गया खर्च

1650 करोड़ रुपये: राजनीतिक दलों द्वारा पार्टी फंड से खर्च रकम

1000 करोड़ रुपये: कांग्रेस और भाजपा द्वारा चुनाव में किए गए खर्च का अनुमान

4350 करोड़ रुपये: राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों द्वारा किए गए खर्च का अनुमान

1000 करोड़ रुपये: क्षेत्रीय पार्टियों के प्रत्याशियों द्वारा खर्च किए गए धन का अनुमान


अमेरिका: यूएस फेडरल इलेक्शन कमीशन के अनुसार 2007-08 अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में बराक ओमाबा और अन्य उम्मीदवारों द्वारा किया गया कुल खर्च करीब आठ हजार करोड़ रुपये था। साल भर चले इस चुनाव से कहीं ज्यादा रकम कुछ महीने चलने वाले भारतीय आम चुनावों में स्वाहा की गई। भारतीय लोकसभा चुनाव 2009 की ही तर्ज पर अमेरिका का यह राष्ट्रपति चुनाव अब तक का सबसे महंगा साबित हुआ था। 2004 में हुए पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तुलना में इस बार दोगुना खर्चा हुआ.


8000 करोड़ रुपये: अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव 2007-08 में खर्च धन

3377 करोड़ रुपये: डेमोक्रेट पार्टी के बराक ओमाबा द्वारा किया चुनाव खर्च

1590 करोड़ रुपये: रिपब्लिकन पार्टी के जॉन मैक्केन द्वारा किया गया खर्च

1084 करोड़ रुपये: राष्ट्रपति पद के दावेदार के रूप में हिलेरी क्लिंटन का चुनाव खर्च


काबू में काला धन

उत्तर प्रदेश से 26.80 करोड़

पंजाब से 08.67 करोड़

उत्तराखंड से 42.00 लाख


पकड़ी गई कुल रकम के आंकड़े चुनाव की अधिसूचना जारी होने से लेकर 12 जनवरी के बीच के हैं। [प्रो. जगदीप छोकर, संस्थापक सदस्य- एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफा‌र्म्स और नेशनल इलेक्शन वॉच]


15 जनवरी को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “कायदा-कानून : चुनाव” पढ़ने के लिए क्लिक करें.

15 जनवरी को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “सरकारी खर्च पर चुनाव!” पढ़ने के लिए क्लिक करें.

15 जनवरी को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “आम जनता की चुप्पी टूटेगी तभी बनेगी बात” पढ़ने के लिए क्लिक करें.


साभार : दैनिक जागरण 15 जनवरी 2012 (रविवार)

नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

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