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जनता ही जनार्दन

मुद्दा
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आइआइएम के पूर्व डीन और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स के संस्थापक
आइआइएम के पूर्व डीन और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स के संस्थापक

चुनाव: लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व। जनता का सबसे सशक्त हथियार वोट। जनतंत्र यानी जनता से, जनता द्वारा और जनता के लिए। मतदान से लेकर प्रतिनिधि चुने जाने और कार्यकाल समाप्त होने के बाद फिर मतदाताओं की देहरी पर वोट मांगने की चक्रीय प्रक्रिया ही जनतंत्र के नाम को सार्थक करती है। वोट देने की महत्ता कोई उन देशों के नागरिकों से पूछे जहां तानाशाही है। सरकारी नीति को जनता पर थोप दिया जाता है। बेबस ! लाचार ! ! मजबूर ! ! ! जनता सब कुछ अनचाहे ही सहती रहती है। यह सब इसलिए क्योंकि वहां सरकार को सत्ता से जाने का भय नहीं होता। वहीं लोकतंत्र में चुने प्रतिनिधि जनकल्याण के लिए नीतियां बनाते हैं। यह वोट की ही ताकत है कि जनहित केखिलाफ कोई भी कदम उठाने वाले प्रतिनिधि नेता को अगली बार बाहर का रास्ता दिखाने में सक्षम हैं।


चुनौती: वर्तमान में विधानसभा चुनावों का दौर चालू है। इधर-बीच चुनाव के दौरान कम मतदान होने की प्रवृत्ति बढ़ी है। यह लोकतंत्र के लिए घातक है। चुनाव आयोग और तमाम संस्थाओं द्वारा मतदान के प्रति जागरूकता फैलाने के बावजूद लोग अभी पर्याप्त मात्रा में बूथ तक नहीं पहुंच रहे हैं। इसका फायदा गलत उम्मीदवारों को मिलता है। लिहाजा मतदान के दिन अपने सबसे प्रभावी हथियार यानी वोट का इस्तेमाल करने से न चूकें। अगर चूके तो समझो चुक गए। चुनावी दौर में मतदान और उसकी अहमियत बड़ा मुद्दा है।


जनता ही जनार्दन

चुनाव के दौरान हम आमतौर पर यह चर्चा करते हैं कि कौन सी पार्टी या गठबंधन के जीतने की संभावना है? किस जाति या धर्म के लोग किस पार्टी को वोट देंगे? किसी क्षेत्र की सीटों का वोटिंग रुझान क्या है? महत्वपूर्ण राजनेता क्या कह रहे हैं? वगैरह वगैरह। इन सबके बीच हम सबको एक महत्वपूर्ण सवाल अपने आप से पूछना चाहिए कि एक वोटर होने के नाते हम ऐसे कौन से प्रयास कर रहे हैं जिससे अच्छा शासन देने वाली सरकार बने? इसके लिए हमको बुरे शासन की जड़ों को समझना होगा। मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने अकेले उत्तर प्रदेश में 10 हजार करोड़ रुपये खर्च होने की बात कही है। इनमें से अधिकांश काले धन की शक्ल में खर्च हो रहा है। जनप्रतिनिधित्व कानून के अनुसार वोटर को घूस देना या धमकाना आपराधिक कृत्य है लेकिन सभी पार्टी इस अपराध में शामिल हैं। इसका मतलब यह है कि जीतने के लिए नियमों को तोड़ा जा रहा है। यह तो अपेक्षाकृत छोटा मामला है इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि जीतने के बाद ये प्रत्याशी चुनाव में हुए अपने खर्च की भरपाई करना चाहेंगे। इस धन के पीछे केवल प्रत्याशी ही नहीं हैं बल्कि अन्य लोगों के भी अपने स्वार्थ हैं। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि हमारे पास बिजली, पानी, सड़क, ग्रामीण आधारभूत ढांचा, स्कूल और अस्पतालों की हालत खराब है।


हमने कई चुनावों में धनबल और बाहुबल के प्रभाव को देखा है। जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनके करीब 100 मंत्रियों में से 33 पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। जिनमें से 17 पर गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं। उत्तर प्रदेश के 248 प्रत्याशियों के हलफनामे के अनुसार उनमे से 77 पर आपराधिक मामले हैं। इनमें से 38 पर गंभीर आपराधिक मामले हैं। पंजाब के 61 प्रत्याशी पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इसी तरह उत्तराखंड के 53 प्रत्याशियों का आपराधिक रिकॉर्ड है। सभी प्रमुख दलों ने इस तरह के आपराधिक छवि वाले लोगों को टिकट देने से गुरेज नहीं किया है। ऐसे लोगों से हम कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे भ्रष्टाचार से लड़ेंगे या सशक्त लोकपाल बिल पास करवाने में रुचि लेंगे?


चुनावी समर में फिर से खम ठोंक रहे कई विधायकों की संपत्ति में पिछले पांच वर्षों में 100 प्रतिशत से भी ज्यादा का इजाफा हुआ है। यद्यपि इन पांच राज्यों के बजट गंभीर घाटे में हैं। वित्त आयोग की नियमों की अवहेलना करते हुए इन राज्यों के बजट का 50 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सा वेतन, पेंशन और ब्याज अदायगी में खर्च हो रहा है। यह एक अप्रतिम उदाहरण है कि राज्य दिवालिएपन की कगार पर जा रहा है और सत्ताधीश रईस होते जा रहे हैं। इससे भी त्रासद स्थिति यह कि विधानसभाओं की बैठकें कम होती जा रही हैं। विगत पांच वर्षों में, उत्तराखंड विधानसभा कुल 68 दिन चली। इसी तरह पंजाब की विधानसभा 76 दिन, उत्तर प्रदेश की 89 दिन, गोवा की 95 दिन और मणिपुर की केवल 110 दिन चली। इतनी कम अवधि में ये कौन सा शासन देने में समर्थ हो सकती हैं?


सामाजिक परिवर्तन बंदूक की गोली से नहीं होते। वह खामोशी से बैलट के माध्यम से होते हैं। आम मतदाता अपने वोट के जरिए बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं। एक बार वह घूस देने वाले प्रत्याशी को वोट देना बंद कर दें तो धारा की दिशा को बदला जा सकता है। यह असंभव काम नहीं है। 19वीं सदी में न्यूयॉर्क में चुनाव के दौरान वोटरों को घूस देने की तरकीब अपनाई जाती थी लेकिन आज वहां इस तरह के कृत्य की कोई हिम्मत नहीं कर सकता। नागरिक चुनाव आयोग और अच्छे राजनेताओं के हाथ मजबूत कर सकते हैं, यदि वह वोट के लिए गलत तरीके


अपनाने वालों के खिलाफ रिटर्निंग ऑफिसर, जिला मजिस्ट्रेट और चुनावी पर्यवेक्षकों को सूचित करें। ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई कर चुनाव आयोग अपनी प्रतिष्ठा को और भी बढ़ा सकता है। जनप्रतिनिधित्व एक्ट के सेक्शन 10ए का भाग दो चुनाव आयोग को उन लोगों की सदस्यता को खारिज करने की शक्ति देता है जो अपने सही चुनावी खर्चे का ब्योरा नहीं देते हैं। ऐसी दशा में कोई भी प्रत्याशी करोड़ों रुपये खर्च करने की हिम्मत नहीं जुटा सकता यदि वह यह जान जाए कि उसका निर्वाचन रद घोषित हो सकता है। यदि वोटर धनबल और बाहुबल के खिलाफ लामबंद हो जाए तो चुनाव प्रक्रिया में क्रांतिकारी बदलाव आ सकते हैं।


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