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एक बड़ी और अंतहीन बहस

मुद्दा
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आर्थिक विकास बनाम पर्यावरण संरक्षण मसले को विकसित देश बनाम विकासशील देश के रूप में भी देखा जाता है। अमेरिका समेत सभी औद्योगिक और विकसित देश को अब यह चिंता सताए जा रही है कि तीसरी दुनिया के देशों द्वारा तेजी से अनियंत्रित आर्थिक विकास करने से पर्यावरण का विनाश हो जाएगा। इनका मानना है कि खेती या अन्य भूमि जरूरतों के लिए हो रहे उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों के क्षरण से जैव विविधता को खतरा पहुंच रहा है। इससे जलवायु परिवर्तन पर भी असर हो सकता है। यह बात और है कि पिछले सौ साल से अभी तक ये देश सबसे ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे ह। भारत और चीन जैसे विकासशील देशों का तर्क है कि अपनी बड़ी और तेजी से बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए औद्योगिकीकरण और आर्थिक विकास हासिल करना उनकी प्रमुख वरीयता है। भविष्य की चिंता की जगह अभी की समस्याएं उनके लिए ज्यादा अहम है। इन देशों का मानना है कि मौजूदा पर्यावरण के क्षय के लिए विकसित और औद्योगिक देश ही मुख्यत: जिम्मेदार है। इन समस्याओं के समाधान के लिए विकासशील देशों की विकास दर को कम करने की विकसित देशों की मांग अनुचित है।


पर्यावरण का पतन


हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में वन कई अहम भूमिकाएं निभाते है। वे हमें आजीविका के स्नोत मुहैया कराते है। धरती की कई प्रजातियों की शरणस्थली बनते है। सबको जीने के लिए शुद्ध वायु का इंतजाम करते है। इसीलिए इनको ‘धरती के फेफड़े’ की संज्ञा दी गई है। इतने उपयोगी और मूल्यवान होने के बाद भी हम लोग इन जंगलों के दुश्मन बने है। साल दर साल विकास की अंधी दौड़ में जंगल कटते जा रहे है जिसका सीधा दुष्प्रभाव हमारे पर्यावरण पर पड़ रहा है। इस बार विश्व पर्यावरण दिवस की थीम भी ‘वन: आपकी सेवा में प्रकृति’ है। पेश है, जंगलों के विनाश की कहानी, आंकड़ों की जुबानी।


31 फीसदी: वनों से ढकी धरती का हिस्सा
1.6 अरब: वनों पर आश्रित आजीविका वाले लोग
30 करोड़: वनों को आशियाना बनाने वाले लोगों की संख्या
379 अरब डॉलर: वन्य उत्पादों का वैश्विक कारोबार
80 फीसदी: पृथ्वी की जैव विविधता में वनों की हिस्सेदारी
20 फीसदी: वनों के खात्मे और इनकी गिरती गुणवत्ता के चलते ग्र्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में हिस्सेदारी
3.6 करोड़ एकड़: हर साल नष्ट होने वाले वनों का रकबा। यानी पुर्तगाल जैसे देश के बराबर क्षेत्रफल
324 लीटर: एक किलो पेपर के निर्माण में लगने वाला पानी
48 किग्रा: दुनियाभर में औसतन सालाना पेपर खपत
54 किग्रा: एक पेड़ बचाने के बराबर रिसाइकिल किए जाने वाले अखबारी कागज की मात्रा


जनमत

क्या हम विकास और पर्यावरण में संतुलन स्थापित करने की ओर अग्रसर हैं?

हां – 55 %

नहीं – 15 %

क्या हमारी अगली पीढ़ियों के लिए विकास के मुकाबले पर्यावरण का ज्यादा महत्व है?

हां – 96 %

नहीं – 15 %


आपकी आवाज


विकास की दौड़ के कारण आज ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ गया है. आज इंसान ने विकास के नाम पर सब कुछ बर्बाद कर दिया है. – राजेश कुमार (जालंधर)

विकास और पर्यावरन में संतुलन बनाने के लिए मजबूत नीति होनी चाहिए जो कि अभी मौजुद नहीं है. – खान सोहेल @ याहू.को.इन

हमारी आगामी पीढ़ियों के लिए विकास के साथ-साथ पर्यावरण भी जरुरी है. अनमोल प्राकृतिक संसाधनों की अनुपस्थिति में हम विकास भी कर लेंगे तो वह किस काम का होगा ? – आनंद मिश्र (सुल्तानपुर)


05 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “बेकार है विकास का पुराना मॉडल” पढ़ने के लिए क्लिक करें.


05 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “अभी तो विकास पर्यावरण से कम जरूरी नहीं” पढ़ने के लिए क्लिक करें.


05 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “प्राकृतिक संसाधनों के संवर्द्धन के साथ विकास हो” पढ़ने के लिए क्लिक करें.


05 जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “बहुत पुरानी है हमारी सह अस्तित्व की संस्कृति” पढ़ने के लिए क्लिक करें.



साभार : दैनिक जागरण 05 जून 2011 (रविवार)

नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

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