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‘गांधी’ वर्तमान ही नहीं भविष्य भी बन चुका है!

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गांधी’ वर्तमान ही नहीं भविष्य भी बन चुका है!


कांग्र्रेस एक ऐसी पार्टी है जो खुद को परिवार के साए में ही सुरक्षित महसूस करती है। अब चाहे इसे आप पिंजरा मानें या सुरक्षा चक्र, लेकिन नेहरू-गांधी परिवार के बगैर कांग्र्रेस की हालत जल बिन मछली जैसी होती है। राजीव गांधी के निधन के बाद चाहे नरसिंह राव वाली कांग्रेस रही हो या फिर सीताराम केसरी की अध्यक्षता वाला संगठन। बिना गांधी परिवार के कांग्रेस न सिर्फ बिखरने लगी, बल्कि विद्रोह इस हद तक गया कि अध्यक्ष पद से केसरी को तो बेआबरू होकर 24 अकबर रोड यानी कांग्रेस मुख्यालय छोड़ना पड़ा।


कांग्रेस के केंद्रीय चुनाव प्राधिकरण के अध्यक्ष ऑस्कर फर्नांडिस के शब्दों में गांधी परिवार कांग्रेस की आत्मा है और उसके बगैर यह संगठन निष्प्राण महसूस करता है। अतीत के अनुभव इसे साबित भी करते हैं। नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ जाकर अपना कद बड़ा करने वाले कांग्रेसियों को उनकी पार्टी ने ही नकार दिया। नरसिंह राव से बड़ा इसका उदाहरण और क्या हो सकता है। चूंकि, उन्होंने सोनिया गांधी को हाशिए पर रखा तो ताकत में रहते हुए भी उन्हें अर्जुन सिंह और एनडी तिवारी सरीखे दिग्गजों की बगावत झेलनी पड़ी और पार्टी टूटी। अब उनके निधन के बाद भी कार्यक्रम के समारोहों से उनके फोटो तक गायब कर दिए गए हैं। विवादित ढांचे के ध्वंस के लिए किसी और ने नहीं, बल्कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने उन्हें जिम्मेदार ठहरा दिया था यह कहते हुए कि ‘अगर गांधी परिवार से कोई प्रधानमंत्री होता तो यह घटना नहीं होती।’ विपक्ष चाहे कुछ भी कहे, लेकिन कांग्रेस के दिग्गज इसे पत्थर की लकीर मानते है।


काबिलेगौर है कि राजीव के निधन के बाद खुद अनाथ महसूस करती रही कांग्रेस को संभालने की कोशिश सोनिया गांधी ने कभी नहीं की। राव और केसरी ने उन्हें हाशिए पर रखा तो वह नहीं, बल्कि पुराने कांग्रेसी ही बिलबिलाए। सोनिया को कांग्रेस में लाने वाली न तो इंदिरा गांधी थी और न ही राजीव गांधी। यह कांग्रेसी ही थे जो सात साल तक सोनिया को कांग्रेस की कमान संभालने के लिए मनाते रहे और उनकी गाजे-बाजे के साथ ताजपोशी की। अपवादस्वरूप उत्तर प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेता जितेंद्र प्रसाद को छोड़ दें तो चौथी बार अभी कांग्रेस अध्यक्ष बनकर इतिहास रचने वाली सोनिया गांधी को किसी और ने चुनौती भी नहीं दी। लगातार चौथी बार अध्यक्ष बनने पर जब भाजपा ने वंशवाद पर टिप्पणी की तो कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी का दो टूक जवाब था कि ‘हमारी पार्टी, हमारा संविधान, हम चार नहीं चालीस बार अध्यक्ष बनाएंगे।’


राजकिशोर हैं

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BJP Logoनई पीढ़ी आई, परिवारवाद लाई


भाजपा भले ही अपने राजनीतिक लाभ के लिए कांग्रेस पर वंशवाद के आरोप लगाती रहे, लेकिन अब वह भी इस राजनीतिक बुराई की चपेट में आ गई है। उसकी नई प्रभावी पीढ़ी अब उन नेताओं के परिवारों से उभर रही है, जो पहले से ही पार्टी के भीतर या बाहर बड़े पदों पर आसीन रहे हैं।


अपने काडर पर गर्व करने वाली भाजपा में अब परिवारवाद हावी हो रहा है। कुछ बड़े नेताओं को छोड़ दिया जाए को उसके कई प्रभावी नेताओं ने अपने बेटे-बेटियों को राजनीतिक विरासत सौंपनी शुरू कर दी है। हालांकि पार्टी का तर्क है कि जिन नेताओं के बेटे-बेटियां या अन्य रिश्तेदार राजनीति में आगे बढ़े है, वे परिवार के कारण नहीं, बल्कि अपनी योग्यता व पार्टी में सक्रियता के कारण हैैं। पार्टी में खास स्थान रखने वाले सिंधिया परिवार की तीसरी पीढ़ी आ चुकी है। राजमाता विजयाराजे सिंधिया की दोनों बेटियों वसुंधरा राजे व यशोधरा राजे के बाद अब वसुंधरा राजे का बेटा दुष्यंत सांसद है। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर सांसद के साथ भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी है। मेनका गांधी व उनके बेटे वरुण गांधी दोनों ही सांसद है। लोकसभा में उपनेता गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा, स्वर्गीय प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बी एस येद्दयुरप्पा के बेटे राघवेंद्र, जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह, वेद प्रकाश गोयल के बेटे पियूष गोयल, देवेंद्र प्रधान के बेटे धर्मेंद्र प्रधान, विक्रम वर्मा की पत्नी नीना वर्मा, कैलाश जोशी के बेटे दीपक जोशी, साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा आदि उन लोगों मे शामिल हो, जिन्हें राजनीति विरासत में मिली है। उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी के युवा चेहरों में भी कई नेताओं के बेटे बेटियां चुनाव मैदान में उतर सकते है।


इस आलेख के लेखक रामनारायण श्रीवास्तव हैं

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CPI (M)अभी भी बचे हैं वामपंथी दल

वंशवाद का वट वृक्ष जहां चौतरफा फल फूल रहा है, वहीं वामपंथी दलों में इसका बीज अब तक पनप नहीं पाया है। अपनी इसी नायाब खासियत के चलते ये राजनीति के इस हमाम में सबसे अलग दिखते हैं। खांटी विचारधारा पर आगे बढ़ने वाली इन पार्टियों में परिवारवाद फिलहाल आगे नहीं बढ़ पा रहा है। सिर्फ चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए नाते रिश्तेदारों को टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारने से परहेज करने वाली पार्टियां कई बार राजनीतिक नुकसान भी उठाती हैं। लेकिन इसका कोई मलाल इन दलों को नहीं है।


माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) में महासचिव प्रकाश करात और पोलित ब्यूरो की वरिष्ठ सदस्य वृंदा करात पति-पत्नी हैं। दोनों नेता रिश्ते में बंधने के पहले पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं और दोनों की वामपंथी राजनीति में अलग-अलग पहचान है। बिहार में ऐसी ही एक जोड़ी रामदेव वर्मा और मंजू प्रकाश की भी है, जो पति-पत्नी हैं। शादी से पहले ये दोनों भी पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता  रहे हैं। माकपा के  टिकट पर रामदेव वर्मा कई बार विधायक रहे। मंजू प्रकाश भी विधानसभा की सदस्य चुनी गईंं। इसे परिवारवाद अथवा वंशवाद की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।


समाजशास्त्री प्रोफेसर अश्विनी कुमार वंशवाद को राजनीति में नकारात्मक प्रवृत्ति मानते हैं। राजनेताओं की अगली पीढ़ी राजनीति में सक्रिय होने लगी है। अब यह प्रवृत्ति भविष्य में भी फलती फूलती रहेगी। राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में विचारधारा वाले दल भाजपा और वामदल इस बीमारी से दूर थे, लेकिन भाजपा ने चुनावी राजनीति में वंशवाद के द्वार खोल दिए हैं, जबकि वामदल अभी इससे दूर हैं। राजनीति में परिपक्वता के साथ प्रतिभा भी जरूरी है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि अधिकांश वर्तमान नेताओं की दूसरी पीढ़ी के बच्चों में यह नहीं है।


इस आलेख के लेखक सुरेंद्र प्रसाद सिंह हैं


11 दिसंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “वंशवाद की बेल”  पढ़ने के लिए क्लिक करें.

11 दिसंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “कुनबापरस्ती: कारण व निवारण” पढ़ने के लिए क्लिक करें.

11 दिसंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “विरासत की सियासत” पढ़ने के लिए क्लिक करें.


साभार : दैनिक जागरण 11 दिसंबर 2011 (रविवार)

नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.


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