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गांधी-नेहरू परिवार भले ही राजनीति में वंशवाद का बड़ा उदाहरण हो, पर यह बीमारी दूसरे राजनीतिक परिवारों में भी मौजूद है। कमलापति त्रिपाठी का सारा परिवार लंबे समय तक उत्तर प्रदेश की राजनीति पर हावी रहा। करुणानिधि, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और पटनायक जैसे परिवार अपने प्रदेशों की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। माधव राव सिंधिया और राजेश पायलट के निधन के बाद उनके बेटे सांसद बने हैं।
वंशवाद को देश की राजनीति की विशेषता कहना सही नहीं होगा। दूसरे देशों में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। जार्ज बुश के बेटे जार्ज बुश जूनियर अमेरिका के राष्ट्रपति बने। केनेडी परिवार लंबे समय तक अमेरिकी राजनीति में प्रभावशाली रहे। अंतर केवल इतना है कि दूसरे देशों में ऐसे एक दो मामले मिलते हैं, जबकि यहां यह एक पारंपरिक स्वरूप अख्तियार किए है।
हमारे यहां राजनीति में इस हद तक वंशवाद क्यों हावी है? इसका एक मौलिक कारण लंबे अर्से से चली आ रही परंपराएं हैं। यह शुरू से राजे-रजवाड़ों का देश रहा है। राजा के बाद उसका बेटा वारिस होता था। इस पारंपरिक प्रवृत्ति से हम अपने को अलग नहीं कर पाए। नतीजा यह है कि नेता के जीवनकाल में उसके परिवार के सदस्य खासतौर से बड़ा बेटा, खुद को पिता का वारिस समझ लेता है और राजनीति के दावपेंच सीखना शुरू कर देता है। समय आने पर सत्ता पर काबिज होने में लग जाता है। परिवार का समर्थन उसे प्रेरणा देता है।
दूसरा कारण आर्थिक एवं राजनीतिक संसाधन भी है। धीरे-धीरे राजनीति एक महंगा पेशा बन गई है। आम आदमी के नेता बनने की राह में आर्थिक सामथ्र्य और संगठन के सहारे जैसी बाधाएं हैं। अधिकतर राजनीतिक दल व्यक्ति केंद्रित हैं। जो बाहर के किसी व्यक्ति को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में बाधा खड़ी करते हैं। चुनाव के लिए उम्मीदवारों को इतना कम पैसा दिया जाता है कि पारिवारिक संपत्ति के बिना वह राजनीति में दाखिल ही नहीं हो सकता।
तीसरा कारण हमारा पारंपरिक सामाजिक ढ़ांचा है। संविधान भले ही व्यक्ति को नागरिकता का आधार माने, हम अभी भी समूह आधारित समाज हैं। परिवार, जाति या समुदाय व्यक्ति की जीवन संभावनाएं तय करते हैं। इसी कारण व्यापारी का बेटा व्यापारी, डॉक्टर का बेटा डॉक्टर और नेता का बेटा नेता बनना चाहता है। पश्चिमी देशों में व्यक्तिकरण के कारण यह स्वभाविक है कि पिता एक पेशा करे और बेटे का पेशा अलग हो। हमारे यहां यह प्रक्रिया कमजोर है। इसीलिए राजनीति में वंशवाद हावी है। हमारी आधुनिक समझ हमें राजनीति में वंशवाद की आलोचना के लिए क्यों न प्रेरित करे, लेकिन समाज में तभी परिवर्तन होता है जब ढांचा बदलता है। यह धीरे धीरे ही संभव होगा।
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साभार : दैनिक जागरण 11 दिसंबर 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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