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एक नई शुरुआत

मुद्दा
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नौ अप्रैल और शनिवार का दिन देश के इतिहास में एक ऐसी तारीख के रूप में दर्ज हो गया जिसे दोबारा देखने की कल्पना ही की जा सकती है। जन आंदोलन की ताकत से शक्तिशाली सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर होने की कहानियां तो हमने पढ़ीं थीं लेकिन ऐसा होते हुए देखने का सौभाग्य स्वतंत्रता के बाद जन्में करोड़ों लोगों को नहीं मिला था। यह एक ऐसी तारीख है जिसमें जनक्रांति की महक है। उसमें ऐसी ताजगी है जो किसी पौधों के पोर से निकले किसलय में, किसी बच्चे की मुस्कान में और मौसम की पहली बारिश में होती है। इसने एक बंद दरवाजे को खोला है। पहली बार कानून बनाने में नागरिक समाज की भागीदारी मिली है। इस अकल्पनीय उपलब्धि की हकीकत को आत्मसात करने में लोगों को काफी समय लगेगा। यह एक ऐसा बदलाव है जिसका अहसास धीरे-धीरे होगा और हमेशा याद रखा जाएगा। हजारों लोगों ने जंतर मंतर पर और करोड़ों लोगों ने टेलीविजन पर देखा कि कैसे देश सेवा के लिए निस्वार्थ भाव से लड़ा और उस जंग को जीता भी जा सकता है। इस जंग के सिपाहियों ने सेनापति के एक आह्वान पर खुद-ब-खुद अपने को इसमें झोंक दिया। अन्ना ने गांधी जी की याद दिला दी। निश्चित रूप से यह एक नए दौर की शुरुआत है। एक ऐसे दौर कि जिसमें संभावनाओं के अनंत द्वार खुलते नजर आ रहे हैं।

 

संविधान में है प्रावधान

 

अन्ना हजारे के अनशन ने भारतीय लोकतंत्र में एक नए दौर की शुरुआत की है। इसमें जनता प्रतिनिधि आधारित लोकतंत्र की मौजूदा प्रणाली में अपने लिए अधिक भागीदारी के लिए जगह बना रही है। भारतीय संविधान में जनता के लिए नीतिगत फैसले लेते समय आम लोगों की रायशुमारी के लिए भले ही केवल सैद्धांतिक सहमति हो, लेकिन आम आदमी और सरकार के बीच सीधी साझेदारी को समेटने का लचीलापन भी कम नहीं है।

दरअसल, भारतीय संविधान संस्थाओं के सहारे लोकतंत्र सुनिश्चित करता है। लिहाजा संस्थाओं से बाहर जाकर शासन चलाने की किसी व्यवस्था के लिए इसमें जगह नहीं है। हालांकि संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप के मुताबिक भारतीय संविधान जनता की सतत सहभागिता वाले लोकतंत्र की बात करता है। भारतीय संविधान में जनता के अपने दायित्वों और मूलभूत अधिकारों के साथ ही कर्तव्य निर्वहन के प्रति सचेत रहने के अलावा शासन प्रणाली के सजग रहने की बात भी कही गई है।

संविधान सभा में लोकतंत्र के मॉडल पर हुई बहस के दौरान भी कई नेताओं ने जनता की भागीदारी के मुद्दे को उठाया था। 3 जनवरी 1949 को हुई बहस के दौरान स्वतंत्रता सेनानी और पूर्व कैबिनेट मंत्री महावीर त्यागी ने महात्मा गांधी के लोकतांत्रिक मॉडल का हवाला देते हुए कहा था कि इसमें जनता की इच्छा को सर्वोपरि स्थान दिया गया है जिसके आगे किसी व्यक्ति की सत्ता शक्ति गौण है। व्यक्ति और व्यवस्था को एकाकार बताने वाले गांधी मॉडल व्यक्ति के हितों पर होने वाले हमले को व्यवस्था पर हमला मानता है। इसी तरह 19 नवंबर 1949 को संविधान सभा में एचवी कामथ ने भी सत्ता के विकेंद्रित मॉडल की हिमायत की थी।

संविधान विशेषज्ञ राजीव धवन के अनुसार काफी विचार विमर्श के बाद संविधान निर्माताओं ने प्रतिनिधि लोकतंत्र की व्यवस्था को चुना। जनता शासन व्यवस्था के लिए अपने अधिकार राजनीतिक वर्ग को दे और वह संस्थाओं के माध्यम से लोकतांत्रिक प्रणाली सुनिश्चित करे। इसके लिए संविधान में व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनुच्छेद 19 और 300 आदि में सरकार और अफसरशाही पर अंकुश और संतुलन व एहतियात के उपाय भी किये गए। हालांकि धवन मानते हैं कि अन्ना हजारे के आंदोलन से उपजी स्थिति प्रतिनिधि लोकतंत्र से आगे जनता के सीधे प्रतिनिधित्व का एक नया अध्याय शुरू करती है। वैसे संविधान में पंचायती राज व्यवस्था के प्रावधान सीधे जनता की भागीदारी की हिमायत करते हैं और यह काफी हद तक गांधी के लोकतांत्रिक मॉडल से भी प्रेरित है जिसमें प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गांव को सशक्त करने की बात की गई है।

(राष्ट्रीय ब्यूरो)

भारतीय संविधान जनता की सतत सहभागिता वाले लोकतंत्र की बात करता है। भारतीय संविधान में जनता के अपने दायित्वों और मूलभूत अधिकारों के साथ ही कर्तव्य निर्वहन के प्रति सचेत रहने के अलावा शासन प्रणाली के सजग रहने की बात भी कही गई है। – सुभाष कश्यप (संविधान विशेषज्ञ)

जनता शासन व्यवस्था के लिए अपने अधिकार राजनीतिक वर्ग को दे और वह संस्थाओं के माध्यम से लोकतांत्रिक प्रणाली सुनिश्चित करे। इसके लिए संविधान में व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनुच्छेद 19 और 300 आदि में सरकार और अफसरशाही पर अंकुश और संतुलन व एहतियात के उपाय भी किये गए। – राजीव धवन (संविधान विशेषज्ञ)

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साभार : दैनिक जागरण 10 अप्रैल 2011 (रविवार)
मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

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