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आसान नहीं है गरीबों की पहचान

मुद्दा
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Poverty lineआधुनिक समाज का बदनुमा दाग है गरीबी. बदनसीबी यह कि गरीब को गरीब न मानना. हालत यह है कि महंगाई के इस दौर में आदमी भले ही भूखे पेट सोने को मजबूर हो, लेकिन अगर योजना आयोग द्वारा तैयार गरीबों की परिभाषा के मानक पर खरा नहीं उतरता तो वह गरीब नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में इस आशय के दिए हलफनामे पर अपनी किरकिरी कराने के बाद आयोग ने 32 और 26 रुपये दैनिक खर्च वाले गरीबी के मानक से किनारा कर लिया है. अब इस पर पुनर्विचार की बात कही जा रही है.


Kirit Parikhप्रस्तावित व्यवस्था के तहत गरीबों की पहचान के लिए नए मानक तैयार किए जाएंगे. ये मानक सामाजिक, आर्थिक व जातिगत जनगणना के जनवरी, 2012 में नतीजे आने के बाद तय होंगे. इस जनगणना के आधार पर एक विशेषज्ञ समिति इन मानकों को तैयार करेगी. हालांकि अभी यह पूरी प्रक्रिया दूर की कौड़ी भर दिख रही है.


ऐसे में गरीबों की पहचान का एक और आधा-अधूरा मानदंड तैयार किया जाए, यह बड़ा मुद्दा बन जाता है कि गरीबी के निर्धारण और गरीबों की पहचान करने का सही तरीका क्या होना चाहिए?


योजना आयोग के हलफनामे के मुताबिक प्रतिदिन शहरी क्षेत्र में 32.5 रुपये और गांव में 26.3 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं हैं. इस परिभाषा के मुताबिक वर्ष 2010-11 में देश के 40.74 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन गुजर-बसर करने को मजबूर हैं. गरीबों की यह आबादी 1950-51 की देश की कुल जनसंख्या 35.9 करोड़ से ज्यादा है.


वास्तव में यदि देखा जाए तो गरीबी रेखा को परिभाषित करने की क्या जरूरत है? दरअसल इसको परिभाषित करने और गरीबों की संख्या का आकलन करने के कई मकसद हैं. पहला, इससे यह पता चलता है कि गुजरते वक्त के साथ राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर हम कितना बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं. प्रगति के पथ पर कितना आगे बढ़ रहे हैं. इसके साथ ही यह समझने की भी जरूरत है कि गरीबी रेखा महज व्यक्तिनिष्ठ आकलन है. इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है.


दूसरी बात यह कि गरीबी का आकलन करने से पूरे देश में संसाधनों का वितरण करने में सुविधा होती है. इससे यह भी होगा कि जब सभी उपलब्ध संसाधनों का निर्धारित बंटवारा कर दिया जाएगा तो गरीबी रेखा की वास्तविक स्थिति का आकलन करने की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं रह जाएगी.


गरीबी आंकने की तीसरे फायदे के तहत गरीबों को सब्सिडी के तहत चीजें मुहैया कराई जाएंगी. वास्तव में ऐसा करने के लिए गरीबी रेखा के वास्तविक स्तर की जरूरत होगी. दरअसल इस तर्क से सहमत होना बहुत कठिन होगा कि 4800 रुपये मासिक आय वाला परिवार गरीब है और 5000 रुपये वाला अमीर. वास्तव में यदि पहले वाला परिवार अपने कार्यस्थल के पास रहता है और दूसरा वाला दूर रहता है तो ऐसी स्थिति में पहले वाला अमीर होगा. इसी तरह कैलोरी ग्रहण के मानक का भी मसला है. यह संभव हो सकता है कि एक व्यक्ति तय मानकों की तुलना में कम कैलोरी ग्रहण करता हो फिर भी स्वस्थ हो. इसके विपरीत 3000 कैलोरी ग्रहण करने वाला यदि मजदूरी कर रहा है तो वह कुपोषण का शिकार भी हो सकता है.


इस लिहाज से योजना आयोग गरीबी रेखा के आधार पर गरीबों की पहचान करने में सफल नहीं हो सकता. यहां तक कि योजना आयोग द्वारा सामाजिक-आर्थिक सर्वे और तमाम पहलुओं को शामिल करते हुए बनाई जाने वाली गरीबी की परिभाषा को भी इसी तरह की दिक्कतें पेश आएंगी. इन व्यवस्थाओं और प्रक्रियाओं के बाद भी गरीबों की पहचान अपने आप में एक समस्या होगी. लगभग हर आदमी किसी न किसी पैमाने पर गरीब होगा. कोई बीमार होगा, तो कोई बूढ़ा होगा. इसी तरह तीसरे आदमी के पास अच्छा घर नहीं होगा तो चौथे के पास पीने के स्वच्छ पानी की व्यवस्था नहीं होगी. इससे अपेक्षाकृत अमीर लोगों को अधिक सुविधाएं मिलने के अवसर बढ़ जाएंगे. इसलिए अब यह जरूरी हो गया है कि हम लोगों को प्रभावशाली तरीके से गरीब तक पहुंचना होगा. इसका एक आसान और सहज तरीका यह भी हो सकता है कि अमीरों की पहचान कर उनको अलग कर लिया जाए.- [डॉ किरीट पारिख, चेयनमैन, इंटीग्रेटेड रिसर्च एंड एक्शन फॉर डेवलेपमेंट एवं पूर्व सदस्य, योजना आयोग]

09 अक्टूबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “आंकड़ों से गरीबी हटाएं, गरीब नहीं”  पढ़ने के लिए क्लिक करें.

09 अक्टूबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “गरीबी एक रूप अनेक”  पढ़ने के लिए क्लिक करें.

09 अक्टूबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “जारी है गरीबी के नए मानक गढ़ने की प्रक्रिया”  पढ़ने के लिए क्लिक करें.


साभार : दैनिक जागरण 09 अक्टूबर 2011 (रविवार)

नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.



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