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बड़े दिन की छुट्टियों के साथ ही नये साल के जश्न का माहौल तैयार होने लगता है। रोजमर्रा की जिंदगी के दर्द और दुख कुछ लम्हों के लिए ही भुला पाना आसान हो जाता है। यह बात याद रखना जरूरी है यह समझने के लिए कि क्यों बच्चे ही नहीं अधेड़ तथा बूढे तक ‘न्यू ईयर’ का नाम सुलते ही क्षण भगुर उत्साह से फूलकर कुप्पा बन जाते हैं। सच पूछें तो हम हिंदुस्तानियों का नया साल यह है ही नहीं। कहीं दीपावली तो कहीं पहले बैशाख, युगादि से नववर्ष आरंभ होता है। जिस ग्रेगेरियन कैलेंडर को अंग्रेज अपने साथ लाए उसने देसी पंचागों को हाशिए पर डाल दिया है और आजकल शक सवत सिर्फ सरकारी खतोकिताबत में बतौर रस्म अदायगी किया जाना शेष है। विक्रम सवत तो और भी ज्यादा खस्ताहाल है।
फिर भी यह सवाल बचा रह जाता है कि क्यों नया साल जब पैजनिया बजाते घुटरुन चल रहा होता है तो सारा जोश व खरोश लस्त-पस्त लगभग धराशायी हो जाता है और वातावरण अजीब खीझ से भरा बोझिल महसूस होता है। पहली बात तो यह है कि छुट्टियों के खात्मे के साथ कामकाज की चिंता सवार होने लगती है। दावतों में मनमौजी तरीके से ‘खाये’ की अपच और जश्न की महफिलों में ‘पिये’ का सिरदर्द निरंतर यह अहसास करा देता है कि ‘उम्र जलवों में बसर हो यह जरूरी तो नहीं’।
कुछ बरस पहले तक नववर्ष के अवसर पर रंग बिरंगे शुभकामना कार्ड भेजने का रिवाज था जिनके कारण काफी समय तक इस उत्सव की याद बची रहती थी। बुरा हो इस नये सोशल मीडिया का जिसने बधाई या मातम का एक ही तरीका लोकप्रिय बना दिया है। सोशल मीडिया की मेहरबानी से यह सुख क्षणभगुर बन चुका है।
हमारा सुझाव है कि हमारे पाठक गण नये साल का स्वागत करें उत्साह और सयम के सतुलन के साथ। घर परिवार के साथ साथ देश के हालात के बारे में सोचते हुए। भविष्य में हम सब की साझीदारी बराबर की है। ‘नया’ साल मुबारक! -पुष्पेश पंत
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साभार : दैनिक जागरण 01 जनवरी 2012 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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