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आज: हर सवेरा धरती के अपनी धुरी पर सूर्य के चारों ओर घूमने की परिणति होता है। इसी प्रक्रिया के तहत आज का सूर्योदय भी अपनी लालिमा के साथ हुआ है। फिर जब कोई चीज नई नहीं हो रही है तो हम सब इतने उतावले क्यों रहते हैं नए साल का इस्तकबाल करने के लिए।
अतीत: कोई भी दावा नहीं कर सकता कि भविष्य अतीत और वर्तमान से बेहतर होगा, लेकिन आने वाले काल खंड के साथ तमाम चीजों को अपने पक्ष में करने लायक सहूलियतें बहुत होती हैं। हम भूत और वर्तमान की त्रुटियों से सबक लेते हुए अपने भविष्य को संवार सकते हैं। जिस दिन से ही हम ऐसा करना शुरू कर दें, समझा जाना चाहिए हमारे लिए वही नए साल की शुरुआत है। वैसे कैलेंडरिंग प्रणाली के आधार पर हम परंपरागत रूप से नया साल मनाते रहें।
अवसर: नया साल तो एक अवसर देता है। एक मौका है। खुद में, समाज में और देश में बदलाव लाने का सुधार करने का। महंगाई, भ्रष्टाचार, अपराध जैसी तमाम सामाजिक आर्थिक कुरीतियों से अकुलाया जनमानस इस मौके को चुनौती की तरह ले सकता है। इन चुनौतियों से निजात पाकर और नई उम्मीदें संजोकर, नए मुद्दे गढ़कर नए साल का सही मायने यथार्थ किया जा सकता है।
जनता लाएगी बदलाव
हमेशा की तरह गत वर्ष भी राजनीति से भरपूर रहा। अंतर केवल इतना है कि कुछ मुद्दे या तो लुप्त हो गए या फिलहाल फोकस में नहीं हैं। जैसे पड़ोसी देशों के साथ संबंध, आतंकवादी गतिविधियां, भारत-पाकिस्तान संबंध जो पूर्व के वर्षों में तनावपूर्ण रहे, फिलहाल ठंडे हैं। इसके बावजूद छिटपुट आतंकवादी घटनाएं समय-समय पर चिंता का विषय बन जाती हैं।
पिछले साल के ज्यादातर दिनों में भ्रष्टाचार का मुद्दा राजनीति पर हावी रहा। यद्यपि इसपर अभी तक कोई राष्ट्रीय सहमति नहीं बन पाई है। अन्ना हजारे सख्त से सख्त कानून बनाने के पक्ष में शुरू से आंदोलन चलाते रहे। सरकार द्वारा तैयार किए गए मसौदे को उनका समर्थन नहीं मिला और ना ही संसद पूरी तरह जन लोकपाल के समर्थन में थी। अंतत: सरकार लोकसभा से एक बिल पारित कराने में कामयाब तो हो गई लेकिन उसका भविष्य अभी डांवाडोल है। यह समझना कि लोकपाल बिल पारित हो जाएगा और इसपर जो हो हंगामा और राजनीति होती रही है, वह ठंडी पड़ जाएगी, गलत है। न तो सिविल सोसायटी और न ही सरकार ऐसा चाहेगी, क्योंकि खतरा यह है कि ज्वलंत और मौलिक आर्थिक मुद्दे जिनकी तरफ से फिलहाल हमारा ध्यान हट गया है, पुन: सामने खड़े हो जाएंगे। मेरा ऐसा मानना है कि लोकपाल बिल को लेकर जो विवाद चलता रहा है वह किसी न किसी शक्ल में पुन: जन्म ले लेगा। यदि लोकपाल बिल पारित भी हो जाएगा तो राइट टू रिकाल यानी चुने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने या किसी भी उम्मीदवार को वोट न देने वाले प्रावधानों को लेकर हंगामा बरकरार रहेगा।
देश में अंतरराज्यीय संबंध चाहे नदियों के पानी के वितरण को लेकर, संघीय ढांचे में राज्यों के अधिकारों को लेकर या अंतरराज्यीय सीमाओं के निर्धारण को लेकर समय समय पर तनाव रहा है। फिलहाल तमिलनाडु को केरल द्वारा पानी दिए जाने और सरकार द्वारा गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति को छोड़कर इस मोर्चे पर कोई ज्वलंत मुद्दा नहीं बचा है।
समाज के एक संपन्न वर्ग ने सीमित स्तर पर संभवत: संपन्नता अनुभव की, लेकिन सच तो यह है कि वह संपन्नता क्षणिक साबित हुई। आर्थिक सुधार के सपने ने लोगों को आगाह नहीं किया कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया फेल भी हो सकती थी। सच तो यह है कि शुरुआत में लोगों को धुआंधार नौकरियां मिली, लेकिन बाद में उनकी छंटनी होने लगी। साथ-साथ आर्थिक सुधार के नाते सरकार सामाजिक क्षेत्र से अपना हाथ खींचने लगी जिसके कारण गरीबों और कमजोर वर्गो के लिए सामाजिक तानाबाना कमजोर होने लगा। नागरिकों के स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति सरकार ने अपनी जिम्मेदारी नहीं पूरी की। केवल आश्वासनों से ही काम चलाया।
जमीन के अधिग्रहण और बड़ी संख्या में आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के विस्थापन ने नई परेशानियां पैदा की हैं। सिंगुर और पॉस्को से लेकर जमीन के अधिग्रहण और विस्थापन संबंधी कई जनसंघर्ष शुरु हुए और अभी भी चल रहे हैं। कारपोरेट दबाव में सरकार ने ऐसे सारे आंदोलन की तरफ दमन की नीति अपनाई।
लेकिन इस सबके साथ एक अलग राजनीति जिसका सरोकार जीविका संबंधित सवालों से जुड़ा हुआ है, इस देश की कोख में लंबे अर्से से पनपती रही है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि आगे आने वाले दिनों में इस देश की जनता इस नई राजनीति की तरफ आकर्षित हो और सामाजिक परिवर्तन का स्नोत बने। -प्रो. इम्तियाज अहमद
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01 जनवरी को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “कैसा होगा साल 2012” पढ़ने के लिए क्लिक करें.
साभार : दैनिक जागरण 01 जनवरी 2012 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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