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चूके तो चुक गए

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आजादी के चौसठ साल बाद ऐसे भी लोग हैं जो मौजूद लोकतांत्रिक अधिकारों और संसाधनों में ही खुद के साथ समाज को लेकर नए आयाम गढ़ रहे हैं। इनमें हाथ आए अवसर को लपकने का जज्बा है, क्योंकि इन्हें मालूम है कि अगर चूके तो समझो चुक गए।


वाह! अरुण, तुम अकेले नहीं रहे


arun kumarये हैं बगहा के अरुण कुमार सिंह। समाज में लोगों को आजादी के सही मायने बताना और उनका अधिकार समझाना इनके जीवन का मकसद है। सैकड़ों लोगों को इनकी बदौलत आज छत नसीब हो चुकी है। अपनी मंजिल की तलाश में अकेले चलने वाले 61 वर्षीय अरुण के साथ आज कारवां जुड़ चुका है।

शुरुआती जीवन: मूलत: छपरा जिले के रिविलगंज स्थित मुकरेरा गांव के इनके पूर्वज 1955 में बगहा आ गए थे। मां द्वितीय विश्व युद्ध की आग में झुलसी थीं तो पिता स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत छोड़ो आंदोलन में तपकर निकले थे। लिहाजा बचपन से ही समाज सेवा का भाव इनमें घर कर गया।


सेवा का अंकुर: 1984-85 में अरुण ने ‘वन विकास भारती’ नामक संस्था की नींव डाली और समाज सेवा में लग गए। इस बीच न्यायमूर्ति पीएन भगवती की अध्यक्षता वाली ‘रूरल इनटाइटिलमेंट एंड लीगल सोसाइटी’ (रीयस) के सदस्य बने। इंग्लैंड की संस्था ‘आक्सफेम’ से भी इनका जुड़ाव हुआ। तत्पश्चात मानवाधिकार संरक्षण की संस्था ‘विजिल इंडिया मूवमेंट’ के राज्य सचिव बने।



हक की लड़ाई: अरुण ने 1992 में विजयनगर में 62 एकड़ जमीन पर 102 पर्चाधारियों को कब्जा दिलाया। 1994 में उन्होंने इसी प्रखंड में ‘राजेन्द्र नगर’ नामक दूसरी बस्ती बसाई। इसके लिए उन्हें पटना उच्च न्यायालय भी जाना पड़ा। उन्होंने 1996 में भड़छी पंचायत के मिश्रौली में छह एकड़ जमीन को एक दबंग से मुक्त कराकर 106 गरीब परिवारों की ‘अंबेडकर नगर’ बस्ती बसाई।


शिक्षा की अलख: थरुहट व दियारा में वे शिक्षा की बेहतरी के लिए भी अभियान चलाते रहे। उनकी संस्था की ही देन है कि आज इस क्षेत्र की कई महिलाएं पुलिस सेवा से लेकर आंगनबाड़ी केंद्रों में काम कर रही हैं। अरुण कहते हैं कि लोगों को आजादी के सही मायने बताना उनका मकसद है। इसके लिए उनके प्रयास जारी हैं।


संजय कुमार उपाध्याय, पश्चिम चंपारण



लाज त्यागकर रोल मॉडल बनी लाजवंती


lajvantiये हैं बिहार के सहरसा जिले की लाजवंती झा। महिला व बाल अधिकार की लड़ाई लड़ रहीं लाजवंती आज सबके लिए रोल मॉडल बन गई हैं।

शुरुआती जीवन: सहरसा जिले के बनगांव में पैदा हुईं लाजवंती झा शुरू से ही महिलाओं को उनका हक व सम्मान दिलाने के लिए सतत प्रयत्नशील रही हैं।


सेवा का अंकुर: पटना के निदान नामक गैर सरकारी संस्था से जुड़कर महिला तस्करी , पोलियो उन्मूलन व विटामिन ए खुराक की उपलब्धता जैसे कार्यक्रमों में सक्रिय सहयोग किया। 2001 में मंडन भारती जागृति समाज नामक गैर सरकारी संस्था की सचिव बनीं। कोसी समेत बिहार के कई इलाकों में महिला तस्करी, बाल विवाह और महिलाओं के अधिकार पर लोगों को जागरूक करना शुरू किया। नतीजा, एक दर्जन लड़कियों को इनके माध्यम से मुक्त कराया गया।


महिला स्वरोजगार: महिलाओं को स्वरोजगार से जोड़ने के लिए 1600 महिलाओं का समूह बनाकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया। कुसहा त्रासदी के समय दो स्थानों पर शिविर खोलकर 16 हजार बाढ़ पीड़ितों की सेवा की। यही नहीं उन लोगों को एक वर्ष तक चिकित्सा सुविधा व भोजन-पानी भी मुहैया कराया।


परदेस में परचम: 2003 में स्वीडन में आयोजित महिला अधिकार पर व्याख्यान देने के लिए भारत से जिन सात महिलाओं का चयन किया गया था, उनमें लाजवंती भी शामिल थीं। वहां इन्होंने महिलाओं के हक व अधिकार के लिए कई बदलाव लाने की बात कही। अभी महिला व बाल कल्याण बोर्ड की बतौर सदस्य श्रीमती झा निरंतर संघर्ष की बात कहती हैं। उनका कहना है कि आजादी की लड़ाई की तरह ही महिलाओं के अधिकार की लड़ाई लड़ने की जरूरत है। हालांकि इस दिशा में काफी सुधार हो रहा है लेकिन यह लड़ाई अंतिम समय तक जारी रखने की जरूरत है।

अमरेन्द्र कांत, सहरसा

14 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “हमारी इस आजादी का मतलब!”  पढ़ने के लिए क्लिक करें।

14 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “मायूसी का मर्ज”  पढ़ने के लिए क्लिक करें।

14 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “स्वतंत्रता पर प्रसिद्ध व्यक्तियों के विचार”  पढ़ने के लिए क्लिक करें.


साभार : दैनिक जागरण 14 अगस्त  2011 (रविवार)

नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

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