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गठबंधन की गांठ

मुद्दा
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कितनी खरी कितनी खोटी


साख

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। देश, काल और परिस्थितियों के मुताबिक इस बदलाव से कोई भी चीज अछूती नहीं रहती है। भारतीय राजनीति भी बदलाव के इस दौर से गुजर रही है। आजादी के बाद देश की राजनीति को लेकर स्थापित मान्यता अब मिथक साबित हो रही है। तब माना जाता था कि देश की राजनीति कांग्र्रेस पार्टी के इर्द-गिर्द ही घूमती है। सर्वत्र कांग्रेस की बादशाहत दिखती थी, लेकिन अब हालात जुदा हैं।


संकट

1989 के बाद शुरू हुए गठबंधन के युग में सरकारों का स्थायित्व सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रहा है। क्षेत्रीय पार्टियों के उद्भव, विकास और क्षेत्र, जाति, मजहब जैसे मसलों पर राजनीति को बढ़ावा मिलने से किसी एक दल को बहुमत अब दूर की कौड़ी हो चली है। लिहाजा चुनाव पूर्व गठबंधन (प्री पोल अलायंस) और चुनाव बाद गठबंधन (पोस्ट पोल अलायंस) हमें रास आने लगे हैं। यह बात और है कि इससे राष्ट्रीय स्थिरता को पहुंचने वाले नुकसान के आकलन की किसी को फुरसत नहीं है।


सीख

अनुभव बताते हैं कि इनमें से पहले प्रकार का गठबंधन फिर भी दुरुस्त माना जा सकता है। इसमें सभी दल एक साझा कार्यक्रम के तहत अपनी नीतियों और योजनाओं के साथ जनता से वोट मांगते हैं। चुनाव बाद गठबंधन तो विशुद्ध मौकापरस्ती का मंच जैसा है। जिस दल के खिलाफ दूसरे दल को लोगों ने वोट किया, बाद में वही दोनों सरकार बनाकर मतदाता को चिढ़ाते हैं। बाद में आपसी हितों की टकराहट का नतीजा समर्थन वापसी के रूप में आता है। सरकार डांवाडोल दिखती है। ऐसे में 16वीं लोकसभा के चुनाव में गठबंधन राजनीति से मतदाताओं को रूबरू कराते हुए उसकी पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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