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जब से मनमोहन सरकार के गरीबी को परिभाषित करने वाले आंकड़े सामने आए हैं, तब से कम से कम हमें यह महसूस होने लगा है कि इस सरकार का हाल फिलहाल ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’ वाला हो गया है। बिना अनावश्यक विस्तार के यह बात साफ की जा सकती है कि हाल में कोई भी फैसला हमारे शासकों ने ऐसा नहीं लिया जिसे जनहितकारी कहा जा सकता हो। सत्ता मद में बौराए और जनता से कटे हुए मोटे बिलौटे नेता इस तरह बयान देते हैं जैसे भारत नामक बपौती पर अनंत काल तक राज करने वाले हैं।
आज आटे-दाल का भाव आसमान छू रहा है। छटांक-दो छटांक दाल उबाल पानी जैसी पतली परोस पूरा परिवार जैसे-तैसे दो रोटी हलक के नीचे उतार रहा है। इसी भोजन की कीमत उसे 30 रुपये प्रति व्यक्ति से कहीं अधिक चुकानी पड़ रही है, तो कैसे कोई इस बात को स्वीकार कर सकता है कि 32 रुपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं समझा जा सकता। घोर अचरज की बात तो यह है कि यह सरकार न केवल दरिद्रतम भारतीय को सिर्फ अमानवीय जानवरों जैसा जीवन जीने लायक समझती है बल्कि तथाकथित निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के उन पढ़े-लिखे असंतुष्ट नागरिकों को भी बज्र मूर्ख समझती है जो महंगाई के लिए शासकों के भ्रष्टाचार को जिम्मेदार समझते हैं।
इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि प्रतिदिन प्रति व्यक्ति शहर के लिए 32 रुपये और गांव के लिए 26 रुपये वाला आंकड़ा सिर्फ खाद्यान्न के लिए नहीं है। ईंधन, यात्रा व्यय, मकान किराया तथा तन ढकने को जरूरी न्यूनतम कपड़े आदि का खर्च भी इसमें शामिल है। शहरों में झुग्गी का जो किराया दिहाड़ी मजदूर भी अदा करते हैं, वह हजार रुपये तक पहुंच चुका है। यह रकम प्रति परिवार तीस रूपये प्रतिदिन के ऊपर है। यदि इसे चार व्यक्तियों के परिवार में बांटा जाए तब भी प्रति व्यक्ति हिस्सा साढ़े सात रुपये से ज्यादा बैठता है। अब यह बात दीगर है कि हमारी सरकार शायद यह सोचती है कि गरीब आदमी को सपरिवार जिंदगी फुटपाथ पर ही बितानी चाहिए।
इन आंकड़ों को लेकर किसी भी बहस को शुरू करना अपने उन जख्मों को कुरेदना है जिन पर योजना आयोग ने तबियत से नींबू-नमक छिड़का है। गांधी जी का प्रिय भजन तो सभी ने सुना होगा। ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणी रे!’ जो लोग आज सरकार में मंत्री है या योजना आयोग में बैठे हैं, वह वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं। ये वैष्णव शब्द को देशद्रोही गाली समझने वाले लगते हैं। जिन खाए-पिए लोगों के पैरों में कभी बिवाई पड़ी ही न हो वह दूसरे का दुख-दर्द समझ भी कैसे सकते हैं। गरीबी का नया पैमाना यही झलकाता है कि उदीयमान भारत में नारायण मूर्ति की जगह हो सकती है दरिद्र नारायण की नहीं। उसके प्रति कर्तव्य पालन की जवाबदेही से बचने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि गरीबों को गिनने का ऐसा तरीका ईजाद कर लिया जाए कि कोई गरीब ही न बचे!
हम बड़ी विनम्रता से अपने हुक्मरानों को याद दिलाना चाहेंगे कि एक और देसी दोहा है जिससे अनजान रहना उनके लिए निकट भविष्य में ही बेहद खतरनाक साबित हो सकता है- ‘रहिमन आह गरीब की कभी न खाली जाए’!
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