Menu
blogid : 4582 postid : 436

बहुत कुछ कहता है ये वोटर

मुद्दा
मुद्दा
  • 442 Posts
  • 263 Comments

सवाल: दुनिया का अंतिम लाल दुर्ग ढह गया। सोवियत संघ के पतन, भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण को झेलने के बाद भी बदस्तूर 34 साल तक पश्चिम बंगाल में चमकने वाला सुर्ख लाल रंग अब फीका पड़ चुका है। हालांकि वाममोर्चे की हार केरल में भी हुई है लेकिन वहां हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन नियति मानी जाती है। इस कड़ी में बंगाल में वाममोर्चा सरकार का पतन एक ऐतिहासिक घटना है। इससे वामपंथी विचारधारा के भविष्य पर सवालिया निशान लग गया है।

सबक: तमिलनाडु में द्रमुक को अपने घर की बपौती समझने वाला करुणानिधि परिवार भ्रष्टाचार के छींटों से अपने दामन को पाक-साफ नहीं रख पाया और 2जी स्पेक्ट्रम और परिवार में मची आपसी कलह का शिकार होकर सत्ता से बाहर हो गया। इस बार का मुद्दा इसी सियासी उठा-पठक और राजनीतिक बिसात पर शहीद होने वाले मोहरों के निहितार्थ तलाशने और इसके दूरगामी असर पर केंद्रित है

वोटर बिकाऊ नहीं है

इन चुनावों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अपना लोकतंत्र लगातार मजबूत हो रहा है। इसे ताकत दे रहे हैं यहां के ‘स्मार्ट’ वोटर। वे वोटर जिनके बारे में आम धारणा है कि वह अशिक्षित और गरीब है। आसानी से प्रलोभनों में आ जाता है। जाति और धर्म के आधार पर बंटा हुआ है, लेकिन 13 मई के नतीजे कुछ और बता रहे हैं। वह अशिक्षित है लेकिन नासमझ नहीं। वह गुरबत में जी रहा है लेकिन आत्मसम्मान के साथ समझौता नहीं करता। वह शराब और पैसे के लालच में फिसल जरूर जाता है लेकिन मतदान केंद्र पर काफी संभले हुए अंदाज में पहुंचता है। अगर वह बिकाऊ होता तो तमिलनाडु में द्रमुक की सरकार कायम रहती।

अब तो आंखें खोलो

ये चुनाव नतीजे राजनीति और राजनेताओं को कोसने वालों को आंखें खोलने के लिए कह रहे हैं। कोई एक नेता या मंत्री भ्रष्टाचार का आरोपी है इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरा राजनीतिक तंत्र भ्रष्ट हो गया है। कुछ लोगों का मानना है कि हमें इस तंत्र को चलाने वाले संविधान को भी खिड़की से बाहर फेंक देना चाहिए, लेकिन यह राजनीति ही है जो पूरे देश को जोड़े हुए हैं। तरुण गोगोई भी राजनेता हैं, जो असम के मुख्यमंत्री के तौर पर तीसरा कार्यकाल शुरू करने जा रहे हैं। उन्होंने राज्य की समस्त जनता के हित के लिए काम किया और उसका नतीजा सामने है। उन्होंने साबित कर दिया है कि जाति और धर्म के क्षुद्र एजेंडे से हटकर भी राजनीति का एक रास्ता है, जो विकास और सुशासन की बुनियाद पर आगे बढ़ता है। यह सुशासन का ही सुफल है कि अक्सर हिंसा के लिए खबरों में रहने वाला असम अपनी शांति के लिए जाना जा रहा है।

राज्यों को स्वायत्तता

गोगोई की जीत यह भी बताती है कि राज्यों के नेताओं को स्वायत्तता मिले तो वे चमत्कार कर सकते हैं। दिल्ली से रिमोट से सरकार संचालित करने के नतीजे अच्छे नहीं होते हैं। बिहार के नीतीश कुमार, गुजरात से नरेंद्र मोदी और आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वाईएसआर रेड्डी इसके उदाहरण हैं। नीतीश पर उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड का कोई अंकुश नहीं है। यही हाल मोदी का भी है। रेड्डी ने भी अपने समय में खुलकर काम किया और जनता की वाहवाही बटोरी। असम में गोगोई के कद का कोई नेता नहीं होने कारण मजबूरी में ही सही कांग्र्रेस ने उन्हें काम करने की आजादी दी तो उसके परिणाम सामने हैं। शायद केरल के वी.एस. अच्युतानंदन को माकपा ने स्वायत्तता दी होती तो कहानी कुछ और ही होती।

राहुल की राजनीति

पश्चिम बंगाल के सिंगुर एवं नंदीग्र्राम की उत्तर प्रदेश के टप्पल और भट्टा-पारसौल से तुलना करने पर राहुल गांधी और ममता बनर्जी की राजनीति का अंतर स्पष्ट हो जाता है। जाहिर है अगर राहुल गांधी को देश की राजनीति में प्रासंगिक बने रहना है तो भट्टा-पारसौल में एक रात नहीं बल्कि लगातार कई दिन गुजारने होंगे जैसा ममता ने सिंगुर और नंदीग्र्राम में किया था। दलितों के साथ एक रात बिताने और उनके घर का खाना खाने से देश-विदेश के अखबारों में कवरेज तो मिल सकती है लेकिन वोट नहीं। रैलियों के जरिए वह भीड़ तो जुटा सकते हैं लेकिन समर्थन नहीं। उत्तर प्रदेश और बिहार में लोकसभा चुनाव के बाद पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में राहुल की राजनीति का खोखलापन भी उजागर हो गया है। देश के सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक घराने से ताल्लुक रखने के कारण लोगों में उन्हें देखने की उत्सुकता तो है लेकिन यह भावना वोट में तब्दील नहीं हो रही है।

आखिरी सवाल

इन चुनावों में अपने देश में निरंकुशता की हद तक पितृसत्तात्मक सत्ता का समर्थन करने वालों के लिए भी कड़ा संदेश छुपा हुआ है। प्रेम करने वालों का इज्जत के नाम पर कत्ल करने, पत्नियों को पंच बनाकर उनके अधिकारों का इस्तेमाल करने वाले और विभिन्न राजनीतिक पार्टियों में महिलाओं का रास्ता रोकने वालों के दिन अब लद रहे हैं। स्त्री शक्ति का सूर्य उदय हो चुका है। उसे क्षितिज की ऊंचाई चढ़ने में देर नहीं लगेगी। तो क्या कांग्र्रेस को राहुल गांधी के बजाय प्रियंका पर दाव लगाना चाहिए और भाजपा को किसी राजनाथ सिंह या अरुण जेटली के बजाय सुषमा स्वराज को आगे लाना चाहिए?

15 मई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “ताबूत में अंतिम कील!” पढ़ने के लिए क्लिक करें

15 मई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “दोस्ती की बुनियाद पर जीत का महल” पढ़ने के लिए क्लिक करें

15 मई को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “गढ़ में घुन लगता गया बेसुध रहे वामपंथी” पढ़ने के लिए क्लिक करें

साभार : दैनिक जागरण 15 मई 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh