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राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति

मुद्दा
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राष्ट्रपति। राष्ट्र का मुखिया। देश का प्रथम नागरिक। हमारी संस्कृति, रीति-नीति और संविधान का प्रमुख संरक्षक प्रतीक और उच्च प्रतिमान। विश्व विरादरी में हमारा सर्वोच्च प्रतिनिधि। हमारे जन गण मन का राजमुकुट। विविध आयामी असहमतियों, सहमतियों, पंथों, वर्गों और दलों से ऊपर है राष्ट्रपति का स्थान। संपूर्ण जनमानस के ऐसे प्रिय नायक के पद के चुनाव की तैयारियां जोरों पर हैं। देश के नए राष्ट्रपति के लिए 14वां राष्ट्रपति चुनाव जुलाई में प्रस्तावित है। 25 जुलाई को मौजूदा राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल का कार्यकाल समाप्त हो रहा है।

पद के उम्मीदवारों के नित नए नाम सामने आ रहे हैं। कोई राजनीतिक तो कोई गैर राजनीतिक क्षेत्र के उम्मीदवार की पैरवी कर रहा है। विभिन्न राजनीतिक खेमों के बीच रस्साकशी जारी है। नेताओं के बीच मुलाकातों और बैठकों का सिलसिला तेजी पकड़ रहा है। आम सहमति की लुभावनी बातें भी की जा रही हैं। राष्ट्र के सर्वोच्च आसन के सवाल पर सर्वानुमति के अभाव और स्वार्थी राजनीति से जनमानस का आहत होना स्वाभाविक है। ऐसे में आम आदमी के आशानुरूप सर्वसम्मति से बिना किसी राजनीति के राष्ट्रपति का चयन सबसे बड़ा मुद्दा है।

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P. Kanungoअपेक्षाकृत हल्की गर्मी के दिनों में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर सियासी पारा दिन-प्रतिदिन गर्म होता जा रहा है। शायद चतुराई दिखाते हुए संविधान सभा ने अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली की तुलना में ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अपनाया था। इसलिए हमारा राष्ट्रपति देश का मुखिया होता है। यद्यपि उसकी शक्तियां केवल सांकेतिक होती हैं। वास्तविक शक्तियां सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री में निहित होती हैं। संविधान के अनुच्छेद 74(1) में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि प्रधानमंत्री समेत मंत्रिपरिषद होगी, जिसकी सलाह के आधार पर राष्ट्रपति अपने दायित्वों का निर्वहन करेगा।


अपनी संवैधानिक सीमाओं के भीतर ही कुछ राष्ट्रपति सक्रिय भी रहे हैं। डॉ राजेंद्र प्रसाद और डॉ केआर नारायणन ने स्पष्ट संकेत दिया कि वे ‘रबर स्टांप’ नहीं थे। यहां तक कि खुद को इंदिरा गांधी का वफादार सिपाही मानने वाले ज्ञानी जैल सिंह के राजीव गांधी के साथ संबंध मधुर नहीं रहे। इसी तरह नीलम संजीव रेड्डी ने बाबू जगजीवन राम की प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी को नजरअंदाज किया। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी की तानाशाही के सामने झुकते हुए कैबिनेट के पास करने के पहले ही 1975 में आपातकाल लागू किए जाने की घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिए। इस प्रकार उन्होंने अपने संवैधानिक दायित्वों का ठीक से निर्वहन नहीं किया।


1967 तक राष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस का ही वर्चस्व होता था। उस साल पहली बार पार्टी को धक्का लगा। गोलकनाथ मामले में ऐतिहासिक निर्णय देने वाले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कोका सुब्बा राव को विपक्ष ने समर्थन देकर कांग्रेस प्रत्याशी डॉ जाकिर हुसैन के खिलाफ उतारा। सुब्बा राव ने इस्तीफा देकर चुनाव लड़ा लेकिन हार गए।


इंदिरा गांधी कांग्रेस पार्टी पर वर्चस्व के लिए जब शक्तिशाली ‘सिंडिकेट’ से लड़ रही थीं तो उन्होंने पार्टी के आधिकारिक प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ वीवी गिरि का समर्थन किया था। उन्होंने कांग्रेसी सदस्यों से ‘अंतरात्मा’ की आवाज पर वोट देने की अपील की थी। नतीजतन वीवी गिरि जीत गए और पार्टी में विभाजन हो गया।


क्षेत्रीय दलों के राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरने के साथ राष्ट्रपति चुनाव भी रोचक हो गया है। नई दिल्ली में गठबंधन सरकारों के अस्तित्व ने सरकार निर्माण के समय राष्ट्रपति हस्तक्षेप की संभावनाओं को अनिवार्य कर दिया।


इस परिदृश्य में हम अपने नए राष्ट्रपति को चुनने जा रहे हैं। जो 2014 में सरकार निर्माण के दौरान अहम भूमिका निभाएगा। इसलिए संप्रग और राजग दोनों के लिए ही यह चुनाव बेहद महत्वपूर्ण हैं। यूपी विधानसभा चुनाव में हालत खस्ता होने और अपने सहयोगियों से घिरी कांग्रेस किसी उम्मीदवार को थोपने की स्थिति में नहीं है। कोई जिताऊ उम्मीदवार उतारना उसके लिए चुनौती होगी। इसी तरह आंतरिक कलह का सामना कर रही भाजपा ऐसे राजग का नेतृत्व कर रही है जिसके कई सुर हैं। इसकी वजह से राजग के भीतर ही सहमति बन पाने में भ्रम है। इसीलिए जब कांग्रेस को पछाड़ने के लिए भाजपा ने कलाम के नाम को आगे बढ़ाया तो उसके राजग सहयोगियों ने भी साथ नहीं दिया। लिहाजा भाजपा की चाल उलटी पड़ गई। कांग्रेस हामिद अंसारी को राष्ट्रपति पद के लिए चाहती थी लेकिन जीतने की संभावना के मद्देनजर प्रणब मुखर्जी को मैदान में उतार सकती है। लेकिन हो सकता है कि ‘संकटमोचक’ प्रणब मुखर्जी केवल सांकेतिक भूमिका में ही नहीं रहें। यह तो आने वाला समय ही बताएगा।


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