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अन्ना हजारे के आंदोलन ने आज हताश-निराश लेकिन साथ ही अंदर से भभकते लोगों में एक नई आशा का संचार कर दिया है। तभी आज देश का हरेक सजग- संवेदनशील व्यक्ति कह उठा है, ‘मैं हूं अन्ना, मैं हूं अन्ना,’। अन्ना हजारे आज एक व्यक्ति न होकर जनता की आशा और आकांक्षाओं का पूंजीभूत रूप बन गए हैं। अन्ना का संघर्ष जनता की अपनी लड़ाई बन चुका है, अन्ना का मकसद उनका अपना मकसद बन गया है।
मैंने खुद जाकर इंडिया गेट पर प्रदर्शन कर रहे लोगों से बात की है। हर धर्म-जाति-वर्ग-क्षेत्र के लोग वहां मौजूद थे। ऑटोरिक्शा ड्राइवर और मजदूर तबके से लेकर छात्र, शिक्षक अन्य प्रोफेशनल वर्ग यहां तक कि सामान्य रूप से आंदोलनों से दूर रहने वाला व्यापारी समुदाय सभी ‘इंकलाब’, ‘वंदे मातरम’, और ‘अन्ना तुम संघर्ष करो’ के नारे लगा रहे थे।
सीआरपीएफ, सीआइएसएफ और दिल्ली पुलिस के जवान भी, जो वहां कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी में तैनात थे, पूछने पर कह रहे थे कि अंदर से वे भी अन्ना का समर्थन करते हैं। यह अन्ना का व्यक्तिगत करिश्मा ही है जिसकी तलाश अवाम खास तौर से युवा वर्ग को लंबे अर्से से थी। हालांकि फिल्म कलाकारों और क्रिकेटरों का जनता पर खासा प्रभाव है, लेकिन हम जिन आदर्शों, मूल्यों का स्वप्न मनुष्य के रूप में देखते हैं उस परिभाषा में फिल्म-क्रिकेट वाले नहीं आ पाते, और आज के राजनेता तो दूर-दूर इसकी उम्मीद नहीं कर सकते।
अन्ना को आज उसी रूप में देश-विदेश में लिया जा रहा है जैसा कभी गांधी, अमेरिका में अब्राहम लिंकन या दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला को देखा जाता था। हालाकि अन्ना का आंदोलन शिक्षित-मध्य वर्ग और बड़े शहरों से आरम्भ हुआ है, लेकिन चंद दिनों में ही छोटे शहरों और कस्बों में फैलने लगा है। देश की अधिकांश समस्याओं की जड़ में कहीं न कहीं नेताओं और अफसरों के भ्रष्टाचार का नंगा नाच ही है, जिससे त्रस्त जनता को अन्ना में अपना नायक मिला है। लेकिन जनता यह भी जानती है कि फिल्मी नायक की तरह उनका नायक इनसे अकेले नहीं जीत सकता है, इसीलिए इस महानायक के नेतृत्व में जनता हुंकार उठी है।
चल पड़े जिधर दो डग मग में।
चल पड़े कोटि पग उसी ओर।।
पड़ गयी जिधर एक भी दृष्टि।
गड़ गए कोटि दृग उसी ओर।। -डॉ. निरंजन कुमार
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साभार : दैनिक जागरण 21 अगस्त 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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