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आस: आज भी हम त्वरित, पारदर्शी और सुलभ न्याय पाने की आस लगाए हुए हैं। कई बार न्यायिक सुधारों की कोशिशें की गई। नतीजा बहुत प्रभावकारी नहीं रहा। इसी क्रम में पिछले साल जुलाई में दैनिक जागरण ने न्यायिक सुधारों के लिए एक पखवारे तक देशव्यापी अभियान चलाया था। अंतत: सरकार की तंद्रा भंग हुई और न्यायपालिका को पारदर्शी और सक्षम बनाने के लिए न्यायिक मानदंड और जवाबदेही विधेयक-2010 को तीस अगस्त, 2010 को संसद में रखा गया।
कदम: अब इस विधेयक पर कार्मिक, लोक शिकायत, कानून एवं न्याय मामलों की संसदीय समिति की रिपोर्ट भी आ चुकी है। समिति ने अपनी सिफारिशों में कई प्रावधान शामिल किए जाने की बात भी कही है। भले ही कई प्रावधानों पर व्यापक बहस की गुंजायश हो लेकिन न्यायाधीशों द्वारा फैसलों से पहले टिप्पणियां पर रोक, नियुक्ति में पारदर्शिता और इनके खिलाफ शिकायतों की प्रभावी सुनवाई जैसे मसलों को लेकर सुधार अपेक्षित हैं। त्वरित, पारदर्शी और सुलभ न्याय दिलाने के लिए ये न्यायिक सुधार बड़ा मुद्दा हैं।
न्यायपालिका को लेकर लोकपाल बिल के आलोक में उठी बहस के चलते न्यायिक मानदंड और जवाबदेही बिल-2010 पर चर्चा बहुत अहम हो जाती है। संसद की स्थायी समिति इसपर अपनी रिपोर्ट संसद को सौंप चुकी है। इस बिल की खूबियों और खामियों पर चर्चा करने से पहले जरूरी है कि हम अपने लोकतांत्रिक संस्थानों की बीमारी को समझें।
आज समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों का निर्धारण करने वाले सुयोग्य लोगों का नितांत अभाव है। न्यायपालिका में कॉलीजियम सिस्टम लागू किए जाने के बाद बदकिस्मती से इसकी स्वतंत्रता क्षीण होने लगी। ऐसा अब लोगों का सोचना भी है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के मसले पर चयन का आधार कुछ लोगों की पसंद या नापसंद पर निर्भर है। इसके चलते योग्य उम्मीदवारों को दरकिनार किया जाता है। जिसके कारण आज न्यायपालिका को आम जनमानस की आलोचना झेलनी पड़ रही है और विधायी नियंत्रण की आवश्यकता महसूस की जा रही है। अपनी स्वतंत्रता और अखंडता के मानकों में अशुद्धि लाने और स्व अनुशासन की कमी के चलते अपने स्तर में गिरावट के लिए न्यायपालिका खुद जिम्मेदार है। लेकिन यह तर्क विधायिका में मौजूद योग्य और ईमानदार लोगों पर भी लागू होता है। वहां भी एक सरल व्यक्ति का प्रवेश नामुमकिन सा है यदि वह अपनी निष्ठाओं से समझौता न करे। राज्यसभा में कोई भी व्यक्ति अधिक सदस्य संख्या वाले राजनीतिक दल से अपने निवास स्थान से अन्यत्र जगहों से चुना जा सकता है। इस कारण देश के सभी हिस्सों से लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता। और यही कारण है कि विधायिका में लोगों की लोकतांत्रिक भागीदारी गंभीर रूप से प्रभावित हो रही है।
इस विधेयक की बात करें तो इसमें न्यायिक मानकों का उल्लेख किया गया है। लेकिन ये मानक जजों की संवेदनशीलता और नैतिक मूल्यों वाली प्रणाली पर बदलाव के लिए निर्भर हैं। इसकी परिभाषा में लचीलेपन की जरूरत है जिससे इनके आचार-व्यवहार को शामिल किया जा सके जो अभी कानून में शामिल नहीं है। व्यापक जनहित में जजों की संपत्तियों और देयताओं की जानकारी आवश्यक है। इससे पारदर्शिता सुनिश्चित होगी और लोगों का भरोसा बढ़ेगा। हालांकि विधेयक के एक प्रावधान के मुताबिक अगर किसी कंपनी, सोसाइटी या ट्रस्ट से किसी जज का हित जुड़ा है, तो सहमति की स्थिति में वह उन संस्थाओं से जुड़े मामलों की सुनवाई कर सकेगा। हमारे विचार से इसमें यथोचित बदलाव की जरूरत है। न्याय की प्राचीन अवधारणा है कि न्याय सिर्फ होना नहीं चाहिए बल्कि होता हुआ दिखना भी चाहिए। इसलिए किसी जज को किसी कंपनी से हित के जुड़ाव की स्थिति में उस कंपनी के मामलों की सुनवाई नहीं करनी चाहिए। इन परिस्थितियों में सहमति का कोई मतलब नहीं होता। ज्यादातर मामलों में ऐसी सहमति या तो भय के चलते दिखाई जाती है या फिर जज को खुश करने के लिए।
विधेयक में शिकायतों की जांच के लिए गठित समीक्षा पैनल में न्यायपालिका से बाहर के लोगों को भी शामिल किया जाना चाहिए, जैसाकि स्थायी समिति ने सुझाव भी दिया है। विधेयक के एक प्रावधान सेक्शन 21 के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ शिकायत की स्थिति में मामले को समीक्षा पैनल के पास भेज दिया जाएगा। इस समीक्षा पैनल का निर्धारण ओवरसाइट कमेटी द्वारा किया जाएगा। लेकिन ओवरसाइट कमेटी द्वारा निर्धारण करने के यह प्रावधान इस विधेयक में स्पष्ट नहीं है। विधेयक में जजों के लिए निर्धारित की गई छोटी सजा का प्रावधान गंभीर चूक है। या तो उसकी निष्ठा स्पष्ट होनी चाहिए या फिर उसे पदमुक्त कर देना चाहिए अन्यथा लोगों का पाला ऐसे जज से पड़ सकता है जिसे चेतावनी देकर या प्रतिबंधित करके छोड़ दिया गया हो। इससे लोगों के विश्वास को ठेस पहुंचेगी।
यद्यपि विधेयक का लक्ष्य कदाचार में लिप्त जजों को हटाए जाने का है लेकिन इस बात का भी प्रयास किया जाना चाहिए कि ईमानदार, सरल और उच्च निष्ठा वाले लोगों की नियुक्ति की जाए।-संजय पारिख [अधिवक्ता-सुप्रीम कोर्ट]
अगर न्यायपालिका को बचाना है तो कॉलीजियम सिस्टम को समाप्त करना होगा। जो भी नया सिस्टम आए उसे पारदर्शी होना चाहिए। ऐसा सिस्टम बनना चाहिए जिससे साधारण परिवार के मेधावी बच्चों को आगे आने का मौका मिले। अभी पहुंच वाले लोग ही आगे आ पाते हैं। अगर किसी पहुंच वाले का लड़का नहीं बोलता है तो उसे सोबर कहा जाता है और अगर किसी गरीब का लड़का नहीं बोलता है तो उसे गोबर कहा जाता है जबकि मानसिक स्तर दोनों का एक होता है। न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक में न्यायाधीशों की संपत्ति घोषणा के प्रस्तावित प्रावधान अच्छे हैं वैसे न्यायाधीश तो पहले से ही अपनी संपत्ति की घोषणा करते आ रहे हैं। न्यायाधीश के खिलाफ शिकायत का जो तंत्र विकसित किया जा रहा है उसमें यह ध्यान रखना होगा कि न्यायाधीशों पर झूठे और आधारहीन आरोप न लगें। -नागेन्द्र राय [पटना हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश]
हमने न्यायाधीशों की नियुक्ति का पुराना सिस्टम लागू करके देखा वो फेल हो गया। उसके बाद कॉलीजियम सिस्टम लागू हुआ वो भी फेल हो गया। अगर बदलाव के बाद कोई ऐसा दुरुस्त तंत्र आता है जिसमें कोई खामी न हो तो ठीक रहेगा। सिस्टम ऐसा होना चाहिए जिससे भाई भतीजावाद पर रोक लगे और मेधावी लोगों की नियुक्ति हो। मेधावी लोगों के आने से स्वच्छ न्याय होगा। न्यायाधीशों को जवाबदेह भी होना चाहिए। उनका आचरण पूरी तरह पारदर्शी होना चाहिए क्योंकि जरा भी अंगुली उठने पर न्यायाधीश पद पर रहने लायक नहीं रहता। कोई भी व्यक्ति कोर्ट में अंतिम उम्मीद के साथ पहुंचता है। न्यायाधीश के पास उसके जीवन और मृत्यु का फैसला करने का अधिकार होता है। न्यायाधीश इस धरती पर भगवान के समान है। अगर भगवान ही सही न्याय नहीं करेंगे तो आदमी कहां जाएगा। -आरएस सोढी
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साभार : दैनिक जागरण 04 सितंबर 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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