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चुनाव: हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करते हैं। हैं भी। राजनीति हमारे नस-नस में रची बसी है। चुनाव आते ही देश में किसी पर्व सा माहौल तारी हो जाता है। चौराहे, तिराहे, दुकानों जहां देखो वहां सिर्फ चुनाव की ही चर्चा और शोर। सभी लोग अपनी अपनी क्षमतानुसार चुनाव और राजनीतिक पार्टियों एवं उम्मीदवारों के प्रदर्शन का विश्लेषण करते हुए नजर आ जाते हैं।
चर्चा: उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब सहित पांच राज्यों के चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है। किसिम-किसिम के दावपेंच और शह मात के खेल आजमाए जाने लगे हैं। ऐसे में हर कोई इन राजनीतिक पार्टियों की कार्य प्रणाली से जुड़ी हर छोटी बड़ी चीज जानने को उत्सुक है।
चुप्पी: लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा दिए जाने का दम भरने वाले इन राजनीतिक दलों के अंदर कितना लोकतंत्र है? क्या यहां पदाधिकारियों की नियुक्ति का पारदर्शी तरीका है? क्या इनमें सभी वर्गो की समानुपातिक भागीदारी सुनिश्चित है? क्या इनके आय और व्यय का हिसाब सर्वसुलभ है? क्या इनके राजनीतिक मूल्य और सिद्धांत आदर्श स्थापित करने वाले हैं? क्या आपको पता है कि जिस राजनीतिक दल को आप अपना बहुमूल्य वोट देने जा रहे हैं, उसका संचालन कैसे किया जा रहा है? ये तमाम सवाल जनमानस में कुलबुला रहे हैं। चुनाव पूर्व राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतंत्र का आकलन एक बड़ा मुद्दा है।
किसी भी राजनीतिक दल में नहीं है इसकी झलक
आशुतोष झा। देश में मौजूद राजनीतिक दल भले ही लोकतत्र की दुहाई देते रहे हों, लेकिन सच्चाई यह है कि खुद अपनी पार्टी में लोकतत्र को उतारने की कोशिश अब तक नहीं हुई है। बतौर पर्यवेक्षक समय समय पर केंद्रीय चुनाव आयोग के लिए अहम भूमिका निभा चुके केजे राव का मानना है कि देश में किसी भी दल में लोकतत्र की झलक तक नहीं है। यही कारण है कि लोकतत्र का सही स्वरूप देश में अब तक नहीं निखर पाया है।
काग्रेस, भाजपा, बसपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी हो या राजद, जदयू, सपा, रालोद समेत दूसरे लगभग सौ से ज्यादा राजनीतिक दलों के अंदर के लोकतत्र पर प्रश्न चिथ् लगा हुआ है। राव का कहना है कि इन दलों के अंदर पारदर्शिता निचले स्तर पर है। नीतियों से लेकर पार्टी फंड तक कुछ लोगों के हाथ में सीमित है। बड़े राजनीतिक दलों में सगठन चुनाव तो खैर समय से होते हैं लेकिन नेतृत्व पहले से तय होता है। पदाधिकारियों का चुनाव नेतृत्व अपनी मर्जी से करता है और कार्यकर्ता उसे मानने को मजबूर होते हैं। यह पूछे जाने पर कि वर्तमान स्थिति में दूसरे दलों के मुकाबले सबसे लोकतात्रिक कौन सी पार्टी है? उन्होंने पलटते ही जवाब दिया- तुलना की जरूरत ही नहीं, सभी दल एक जैसे हैं जहा चुनाव से लेकर नीतियों तक फैसला गिने चुने लोगों के हाथों में होता है। क्षेत्रीय दलों की स्थिति थोड़ी और खराब होती है जहा वषरें से नेतृत्व में कोई बदलाव ही नहीं हुआ। अक्सर नेतृत्व एक परिवार के हाथों में होता है और उसे चुनौती देने वालों के लिए पार्टी में जगह नहीं होती है। बागी सबल हुआ तो उसकी एक अलग पार्टी होती है और वहा भी वह सब कुछ दोहराया जाता है जो उसके साथ हुआ था।
राव की निराशा लाजमी है। दरअसल गाधी के देश में भी लोकतत्र की परिभाषा सिर्फ चुनाव तक सीमित कर दी गई है। हृदय बदलने की कवायद अब तक नहीं हुई है जहा सामूहिक निर्णय लिए जाएं और बिना भय के विचारों की स्वच्छंदता हो। फैसले कुछ लोग लेते हैं और कार्यकर्ता उसे समझे बिना उसका क्रियान्वयन करने को मजबूर हैं। राव ने आगाह किया कि पार्टी में सहभागिता पैदा किए बिना नेतृत्व खुद अपने लिए विश्वास पैदा नहीं कर पाएगा। इससे कार्यकर्ताओं में भी जिम्मेदारी का अभाव होगा। लिहाजा हर स्तर पर सुधार जरूरी है।
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