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सूचना का अधिकार
2005 में जब यह कानून लागू हुआ तो इसे आम जनता के हितों को सुरक्षित रखने के लिए सबसे प्रभावी और कारगर हथियार माना गया।
उद्देश्य
नागरिकों को अधिकार संपन्न बनाना, सरकार की कार्य प्रणाली में पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व को बढ़ावा देना, भ्रष्टाचार को कम करना तथा लोकतंत्र को सही अर्थों में लोगों के हित में काम करने मेंं सक्षम बनाना है। इस अधिनियम ने एक ऐसी शासन प्रणाली सृजित की है जिसके माध्यम से नागरिकों को लोक प्राधिकारियों के नियंत्रण में उपलब्ध सूचना तक पहुंचना सहज हुआ।
सूचना
किसी भी स्वरूप में कोई भी सामग्री ‘सूचना’ है। इसमें इलेक्ट्रॉनिक रूप वाले अभिलेख, दस्तावेज, ज्ञापन, ई-मेल, मत, सलाह, प्रेस विज्ञप्ति, परिपत्र, आदेश, लागबुक, संविदा, रिपोर्ट, कागजपत्र, नमूने, मॉडल, आंकड़े संबंधी सामग्री शामिल है।
सूचना मांगने की विधि
नागरिक को सूचना प्राप्त करने के लिए लिखित रूप से आवेदन करना होगा। यह आवेदन डाक, इलेक्ट्रॉनिक अथवा व्यक्तिगत रूप से भेजा जा सकता है। सूचना मांगने के लिए आवेदन सादे कागज पर भी किया जा सकता है।
शुल्क
सूचना मांगने का निर्धारित शुल्क 10 रुपये रखा गया है लेकिन आरटीआइ एक्ट की धारा 27 और 28 के मुताबिक राज्य या सक्षम प्राधिकारी फीस में बढ़ोतरी कर सकते हैं।
अनुरोध का निपटारा
सूचना अधिकारी से यह अपेक्षित है कि वह एक वैध आवेदन प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर आवेदक को सूचना मुहैया करवाए। यदि मांगी गई सूचना व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से संबंधित है तो यह अनुरोध प्राप्त होने के 48 घंटों के भीतर उपलब्ध कराई जाएगी। यदि सूचना अधिकारी निर्धारित अवधि के भीतर सूचना के अनुरोध पर अपना निर्णय देने में असफल रहता है तो यह माना जाएगा कि सूचना देने से इंकार कर दिया गया है।
कसता शिकंजा
हाल-फिलहाल के कई महत्वपूर्ण निर्णयों ने सियासी दलों में घबराहट पैदा कर दी है और वे उससे बचने के उपाय ढूंढ रहे हैं। राजनीतिक दलों को प्रभावित करने वाले उन कुछ निर्णयों पर एक नजर :
आरटीआइ के दायरे में सियासी दल
केंद्रीय सूचना आयोग ने तीन जून, 2013 को फैसला दिया है कि देश के छह मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल कांग्रेस, भाजपा, बसपा, भाकपा, माकपा और राकांपा सूचना अधिकार कानून (आरटीआइ) के दायरे में आते हैं। उन्हें आरटीआइ कानून के तहत सार्वजनिक संस्थाएं माना जाएगा। आयोग ने इन दलों को न सिर्फ छह सप्ताह में सूचना अधिकारी नियुक्त करने का आदेश दिया था बल्कि पार्टी चंदे के बारे में मांगी गई सूचना भी सार्वजनिक करने का आदेश दिया। आयोग ने सरकार से मिलने वाली आर्थिक मदद और राजनीतिक दलों की लोकतंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए उन्हें आरटीआइ कानून की धारा 2(एच) में सार्वजनिक संस्थाएं करार दिया। आयोग ने अपने निर्णय में कहा कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों की भूमिका और उनका कामकाज व चरित्र भी उन्हें आरटीआइ कानून के दायरे में लाते हैं। संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों में भी उनका चरित्र सार्वजनिक संस्थाओं का है।
आयोग के मुताबिक राजनीतिक दल इसलिए हैं सार्वजनिक संस्था :
1. चुनाव आयोग रजिस्ट्रेशन के जरिये राजनीतिक दलों का गठन करता है
2. केंद्र सरकार से (रियायती दर पर जमीन, बंगला आवंटित होना, आयकर में छूट, चुनाव के दौरान आकाशवाणी और दूरदर्शन पर फ्री एयर टाइम) प्रत्यक्ष और परोक्ष वित्तीय मदद मिलती है
3. राजनीतिक दल जनता का काम करते हैं गुनहगारों पर गाज सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को अदालत से सजा पाए सांसद-विधायकों की सदस्यता बनाए रखने वाले कानून को असंवैधानिक ठहरा दिया। कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को असंवैधानिक ठहराते हुए कहा कि संसद को ऐसा कानून बनाने का अधिकार ही नहीं है।
यही नहीं, अदालत का दूसरा फैसला भी इसके साथ ही जुड़ा है, जिसके तहत जेल में बंद व्यक्ति यदि मतदान के लिए अयोग्य है तो वह चुनाव भी नहीं लड़ सकता। जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) के मुताबिक अगर कोई सांसद या विधायक को दो वर्ष से ज्यादा के कारावास की सजा सुनाई जाती है और वह तीन महीने के अंदर ऊपरी अदालत में अपील दाखिल कर देता है तो वह सदस्यता से अयोग्य नहीं माना जाएगा। अदालत ने साफ कहा कि जिस दिन सजा सुनाई गई, सदस्य उसी दिन से अयोग्य माना जाएगा। इस फैसले के बाद जो भी सांसद या विधायक जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 की उपधारा 1, 2, या 3 के तहत अदालत से दोषी ठहराया जाएगा, वह सदस्यता से अयोग्य होगा। ऊपरी अदालत में अपील दाखिल करने से भी अयोग्यता से बचाव नहीं मिलेगा।
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