Menu
blogid : 4582 postid : 583239

RTI: कथनी-करनी में फर्क नेताओं की है फितरत

मुद्दा
मुद्दा
  • 442 Posts
  • 263 Comments

लोकतांत्रिक रूप से अनुचित है यह कदम

सुभाष कश्यप

(संविधान विशेषज्ञ)


जनभावना के खिलाफ जाकर उन्हें मनमाने रूप से अपने संविधान प्रदत्त अधिकार का बेजा इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। देश की जनभावना यही है कि राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के तहत आना चाहिए। जिन राजनीतिक दलों को वे बहुमूल्य वोट देकर अपना जनप्रतिनिधि चुनते हैं, उनकी आमजनी और खर्च का ब्यौरा जानने का उन्हें अधिकार मिलना ही चाहिए। अगर हमारे राजनीतिक वर्ग इस जनभावना के खिलाफ जाकर खुद को आरटीआइ के दायरे से बाहर निकालने के लिए इस प्रभावी कानून को कमजोर कर रहा है तो यह एकदम अनुचित और अलोकतांत्रिक है। उन्हें मनमाने रूप से अपने संविधान प्रदत्त अधिकार का बेजा इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।


किसी कानून को बनने में अंतिम मुहर राष्ट्रपति की लगती है। भले ही महामहिम इस बिल के खिलाफ जनभावना से वाकिफ हों, लेकिन वे संवैधानिक कायदों से बंधे हुए हैं। यह जरूरी नहीं है कि वह इस पर अपनी सहमति दें। वे उसे वापस भी कर सकते हैं लेकिन वापस करने की स्थिति में फिर वही बिल उनके पास भेजा जा सकता है। इस तरह के कई मसले हमारी संसदीय प्रणाली के सामने आ चुके हैं। नौंवी लोकसभा की बात है। सदस्यों के वेतन, भत्ते से संबंधित एक बिल दोनों सदनों में सर्वसम्मति से पारित किया गया। इसमें प्रावधान था कि एक साल की सेवा के बाद भी ताउम्र पेंशन दी जाएगी। राष्ट्रपति आर वेंकटरमण ने इस पर अपनी सहमति नहीं दी। इसी तरह पोस्टल बिल को भी राष्ट्रपति की सहमति नहीं मिली।


भले ही हमारे राजनेता जनता के हित से जुड़े मुद्दों पर आपस में मारामारी करें, एक दूसरे पर छींटाकशी करें, लेकिन जब इनके हित से जुड़ी बात आती है तो सब एक हो जाते हैं। हम अपने जनप्रतिनिधियों से यह अपेक्षा जरूर करते हैं कि वहां पहुंचकर ये अपने आचार, विचार और व्यवहार से आदर्श स्थापित करें जिसका आम लोग अनुकरण करें। लेकिन ऐसी अपेक्षा करते समय हम अक्सर यह भुला देते हैं कि राजनेता भी हमारे समाज से ही आए हैं। जैसा समाज होगा वैसे ही नेता होंगे। इसके लिए पहले समाज को ठीक होना होगा। तब स्वहित और परहित का भेद मिट पाएगा।

(अरविंद चतुर्वेदी की बातचीत पर आधारित)

……………..


दलों’ का दलदल

पूरे संविधान में कहीं भी ‘राजनीतिक दल’ शब्द का जिक्र नहीं है। हमारा संविधान पूरे विश्व में सबसे लंबा लिखित संविधान है और यह राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली के विषय में पूरी तरह मौन है। यह आश्चर्य का विषय हो सकता है कि संविधान निर्मात्री सभा ने इसका जिक्र करना जरूरी क्यों नहीं समझा? इसका बड़ा कारण यह हो सकता है कि संविधान का निर्माण उच्च आदर्शों से प्रेरित समूह ने किया था। वे देश के भविष्य को लेकर भी उच्च आदर्शों से प्रेरित थे। उनको कभी लगा नहीं होगा कि आने वाले दिनों में राजनीतिक शुचिता में भी गिरावट आ सकती है। इसलिए उन्होंने इसकी जरूरत नहीं समझी। जबकि तब से लेकर अब तक सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य काफी बदल गया है।


राजनीतिक पार्टियां लोकतंत्र के आधारभूत स्तंभों में से है लेकिन वे खुद लोकतांत्रिक तरीके से काम नहीं करतीं क्योंकि कोई भी दल पूरी तरह से आंतरिक कार्यप्रणाली में लोकतांत्रिक नहीं है। मई, 1999 में सरकार को पेश लॉ कमीशन की 170वीं रिपोर्ट ‘रिफार्म आफ द इलेक्टोरल लॉज’ में भी इस विसंगति की ओर इशारा किया गया। रिपोर्ट के मुताबिक, ‘यह कहा जा सकता है कि यदि लोकतंत्र और जवाबदेही हमारी संवैधानिक व्यवस्था का आधार बनाते हैं तो उसी संकल्पना के आधार पर यह बात राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है जो संसदीय लोकतंत्र का बेहद अहम हिस्सा है। ये राजनीतिक दल ही सरकार बनाते हैं, संसद को मूर्त रूप देते हैं और देश का शासन चलाते हैं। इसलिए दलों को अपने भीतर आंतरिक लोकतंत्र, वित्तीय पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है। जो राजनीतिक दल अपनी आंतरिक कार्यप्रणाली में लोकतांत्रिक सिद्धांतों का सम्मान नहीं करता है उससे यह आशा नहीं का जा सकती है कि वह देश का शासन चलाने में भी उसका सम्मान करेगा। आंतरिक तानाशाही और बाहरी कार्य व्यवहार में लोकतंत्र नहीं हो सकता।’

……………..


कथनी-करनी में फर्क नेताओं की है फितरत

अरुणा रॉय एवं भंवर मेघवंशी

(लेखक द्वय मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथ कार्यरत हैं।)


आरटीआइ में संशोधन से यह स्पष्ट हो गया है कि राजनीतिक पार्टियां जनता के प्रति बिल्कुल भी पारदर्शी और जवाबदेह नहीं होना चाहती है।


सूचना के अधिकार कानून में संशोधन की भाषा से यह स्पष्ट हो गया है कि राजनीतिक पार्टियां जनता के प्रति बिल्कुल भी पारदर्शी और जवाबदेह नहीं होना चाहती है। यह साफ  हो चुका है कि राजनीतिक दल बोल कुछ और रहे हैं और कर कुछ और रहे हैं। उनका यह कहना किवे अपने सभी वित्तीय लेन-देन संबंधी सारी जानकारियां आयकर विभाग तथा चुनाव आयोग को देते हैं, यह जनता से भागने एवं सच्चाई छिपाने वाला एक कुतर्क जैसा ही है। पार्टियां जो सूचनाएं आयकर विभाग और चुनाव आयोग को देने को तैयार हैं, वे सूचनाएं सीधे जनता को देने को तैयार क्यों नहीं हैं? वे जन प्रतिनिधित्व अधिनियम से अस्तित्व में आते है या आयकर कानून अथवा चुनाव अधिनियम से?


सूचना का अधिकार कानून में संशोधन के प्रति उनकी एकजुटता ने उन्हें जनता के बीच नंगा कर दिया है। जब सरकार अपनी तमाम सूचनाएं सार्वजनिक कर रही हैं तो उस सरकार को चलाने वाली पार्टियां अपने आपको सूचना के अधिकार से बाहर क्यों करना चाह रही हैं? और यह भी कि आज तक राजनीतिक दलों ने अपनी सूचनाएं खुली करने के लिए स्वप्रेरणा से क्या किया है? संभवत: कुछ भी नहीं, इसका मतलब यह है कि वे स्वत: कुछ भी जानकारी जनता को नहीं देंगे। हम राजनीतिक दलों, संस्थाओं एवं राजनीतिक प्रक्रियाओं को कमजोर नहीं करना चाहते हैं। हम लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की अनिवार्यता को समझते हैं, लेकिन हम यह भी चाहते हैं कि राजनीतिक शुचिता, नैतिकता और पारदर्शिता अपनाए बगैर कोई भी राजनीतिक दल मजबूत नहीं बन सकता।


सूचना का अधिकार आम जनता को वास्तविक आजादी का अहसास कराता है तथा सरकार व राजनीतिक दलों की निरंकुशता पर नियंत्रण स्थापित करता है। इसलिए हम लोगों से अपील करते हैं कि वे सूचना के अधिकार को बचाने के लिये आगे आएं और राजनीतिक दलों से सवाल जवाब करें कि क्यों वे जनता के प्रति पारदर्शी होने व जवाबदेही रखने से डरते हैं?


18  अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘RTI: कसता शिकंजा’ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


18  अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘RTI: इन्हें है सूचना न देने का हक’ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh