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RTI: इन्हें है सूचना न देने का हक !

मुद्दा
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प्रहरी पर प्रहार

तीर

आरटीआइ यानी सूचना का अधिकार कानून। देश के इतिहास में अब तक के सबसे कारगर और प्रभावी कानूनों में से एक। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने वाला हथियार। आम लोगों को उनके हित से जुड़े मसलों की जानकारी दिलाने वाला अचूक तीर। जनता के सरोकारों का प्रहरी। इस अस्त्र के इस्तेमाल से कई बार सरकारी कार्य प्रणाली की कलई खुल चुकी है। देश में हुए कई छोटे-बड़े घोटालों को सार्वजनिक करने में इसी कानून की भूमिका रही है।


तर्क

हमारे राजनीतिक दल इस प्रभावी कानून से इतने भयभीत हो गए हैं कि वे इसे कमजोर करने पर अमादा हैं। सियासत अजीब चीज है। कल तक आमजन से जुड़े विभिन्न मसलों पर जो दल एक दूसरे से गुत्थमगुत्था होते दिख रहे थे, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कर रहे थे, संसद के कामकाज को बाधित कर रहे थे, अब अपने हित के मसले पर एक हो गए हैं। हाल ही में राजनीतिक दलों के आरटीआइ के दायरे में आने वाले सीआइसी के फैसले के खिलाफ इनमें गजब की एकता दिख रही है। जिस कानून को अन्य दूसरी संस्थाओं, व्यक्तियों के लिए हमारे राजनेता और राजनीतिक दल ब्रह्मास्त्र ठहराते रहे हैं, अपने संकीर्ण स्वार्थों के चलते खुद उसी के दायरे में आने से बचना चाह रहे हैं। इनके अपने तर्क कम कुतर्क ज्यादा लगते हैं।


तेवर

हमारी नुमाइंदगी करने वाले ये माननीय और राजनीतिक दल अपने कानून बनाने के अधिकार का बेजा इस्तेमाल से भी परहेज नहीं कर रहे हैं। आरटीआइ में संशोधन का विधेयक लोकसभा में पेश किया जा चुका है। निश्चितरूप से हमारे जनप्रतिनिधियों की यह हरकत न केवल संसद के बेजा और मनमाने इस्तेमाल का शर्मनाक नमूना है बल्कि यह घोर अलोकतांत्रिक कदम भी है। ऐसे में लोकतंत्र के रखवालों द्वारा ही भारतीय लोकतंत्र को दागदार करने वाले इस कदम के निहितार्थ की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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वित्तीय लेनदेन का रहस्य है मूल मसला

त्रिलोचन शास्त्री

(प्रोफेसर, आइआइएम बेंगलूर और एडीआर के संस्थापक चेयरमैन)


एडीआर ने राजनीतिक दलों के आयकर रिटर्न का विश्लेषण करने पर पाया है कि 50 प्रतिशत से ऊपर और एक मामले में तो 100 प्रतिशत फंड अज्ञात स्रोतों से प्राप्त हुए हैं। 67वीं स्वतंत्रता वर्षगांठ गुजरने के साथ ही ऐसा प्रतीत होता है कि आम जनता और सरकार एक बार फिर आमने-सामने हैं। केंद्रीय सूचना आयोग (सीआइसी) ने राष्ट्रीय पार्टियों को सार्वजनिक प्रतिष्ठान मानते हुए व्यवस्था दी कि वे सूचना का अधिकार कानून के दायरे में आती हैं। एक तरफ आरटीआइ आवेदक मुख्य रूप से एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स (एडीआर) और सुभाष अग्रवाल एवं दूसरी तरफ राजनीतिक दलों की दलीलों को सुनने के बाद सीआइसी ने अपना फैसला सुनाया। यद्यपि राजनीतिक दलों को यह फैसला नहीं भाया, लिहाजा आरटीआइ संशोधन बिल (2013) इसी मानसून सत्र में सदन में पेश किया गया। यदि यह संशोधन पास हो जाता है तो राजनीतिक दल आरटीआइ के दायरे के बाहर हो जाएंगे। हालांकि इस कदम के खिलाफ तीव्र जन प्रतिक्रिया भी हो रही है।


सीआइसी ने कहा कि राष्ट्रीय पार्टियों को सरकार से पर्याप्त फंड मिलता है इसलिए वे आरटीआइ एक्ट में परिभाषित ‘पब्लिक अथॉरिटी’ की श्रेणी में आती हैं। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘पर्याप्त’ का आशय 50 प्रतिशत से अधिक फंड प्राप्त करने से नहीं है। उसने इसके आकलन के लिए  दिशा-निर्देश भी निर्धारित किए हैं। राष्ट्रीय दलों के मामले में सर्वविदित है कि उनको जमीन, टैक्स छूट जैसी कई अन्य सुविधाएं प्राप्त होती हैं।


राजनीतिक दल अपने पक्ष में दो तर्क पेश कर रहे हैं। पहला, लोकतंत्र को नुकसान होगा क्योंकि पार्टी के अंदरूनी मामलों को सार्वजनिक करने से वे कमजोर हो जाएंगी। बैठकों की बिंदुवार जानकारी, आंतरिक बैठकों में विभिन्न विचारों के विषय में सूचना, मत भिन्नता, प्रत्याशी चयन प्रक्रिया समेत इस तरह की कई जानकारियां जनता के हित में नहीं हैं। दूसरा, जहां तक वित्तीय मामलों की बात है तो पार्टियां आयकर रिटर्न भरकर और चुनाव आयोग को चुनावी खर्च के बारे में बताकर पहले से ही पारदर्शी रुख अख्तियार किए हुए हैं। इसलिए आरटीआइ को उनके ऊपर लागू किए जाने की कोई जरूरत ही नही है। इस संबंध में एक तीसरा फलसफा वाम दलों का है। उनके अनुसार संविधान के मुताबिक संघ बनाने की आजादी मूल अधिकार है। इससे यह आशय निकलता है कि लोगों का समूह एक राजनीतिक दल भी बना सकता है। इसलिए आरटीआइ के अधीन लाकर उस आजादी पर अंकुश लगाने की यह बेवजह कोशिश है।


इस संबंध में ध्यान देने वाली बात है कि आरटीआइ एक्ट के मौजूद कानून में कई ऐहतियाती उपाय किए गए हैं। मसलन राजनीतिक दल ने यदि किसी मीटिंग का ब्यौरा या ऐसी कोई सूचना अपने रिकॉर्ड में नहीं दर्ज की है जो आरटीआइ कार्यकर्ता ने मांगी है तो उसको वह सूचना देने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा यदि कोई सूचना देने से गलत तरीके से प्रतिस्पर्धी दलों को लाभ मिलने की गुंजायश दिखती हो तो उसको भी रोका जा सकता है। इसलिए इसके विरोध में राजनीतिक दलों का पहला तर्क कसौटी पर खरा नहीं उतरता क्योंकि आरटीआइ एक्ट में इस तरह के पहले ही ऐहतियाती उपाय किए गए हैं। असल मुद्दा राजनीतिक दलों के वित्तीय मामलों से जुड़ा है। एडीआर ने राजनीतिक दलों के आयकर रिटर्न का विश्लेषण करने पर पाया है कि 50 प्रतिशत से ऊपर और एक मामले में तो 100 प्रतिशत फंड अज्ञात स्रोतों से प्राप्त हुए हैं। नियमों के मुताबिक 20 हजार रुपये से कम चंदा देने वालों के विषय में राजनीतिक दलों को बताने की जरूरत नहीं होती। इस तरह से लेकिन जब कई सौ करोड़ रुपये प्राप्त हों तो शंका होना लाजिमी है कि आखिर ये पैसा वास्तव में कहां से आ रहा है? इसलिए राजनीतिक दलों द्वारा पूर्ण पारदर्शिता वाली बात सत्य नही है। यहां तक कि एक वरिष्ठ राजनेता ने निजी तौर पर माना कि आरटीआइ एक्ट में संशोधन की मुख्य वजह फंडिंग का रहस्य बरकरार रखने के लिए है।


चुनावों में बड़े पैमाने पर फंडिंग होती है और वे बाद में सरकारी नीतियों को लागू और नियंत्रित करते हैं। राजनीतिक दलों के लिए विदेशी चंदे पर रोक है लेकिन सर्वविदित है कि इस तरह का फंड भी आ रहा है। ऐसे अनेक मामले हैं जब उद्योगपतियों ने सरकारी नीतियों के अपने पक्ष में नहीं होने की दशा में संबंधित मंत्री या आइएएस अधिकारियों को बदलवाया है। इसलिए राजनीतिक दलों को मिलने वाले एक-एक पैसे के बारे में जानने का हक जनता को है।


वामदलों के दार्शनिक तर्क के परीक्षण की भी जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में व्यवस्था दी है कि जन हित में मूल अधिकारों पर भी कुछ हद तक प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। राजनीतिक दल चुनाव लड़ते हैं। जन प्रतिनिधि बनना चाहते हैं। बजट और करदाताओं के धन को नियंत्रित करते हैं। अब इससे ज्यादा क्या सार्वजनिक हो सकता है?


हर बार जब भी खतरा होता है राजनीतिक प्रतिष्ठान ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल करता है। कानून को बनाने और संशोधन करने की शक्ति किसी और के पास नहीं है। 2002 में भी उन्होंने जनप्रतिनिधित्व एक्ट में संशोधन करके सुप्रीम कोर्ट के एक महत्वपूर्ण निर्णय को बदलने की कोशिश की थी। दरअसल कोर्ट ने चुनाव लड़ने वाले सभी प्रत्याशियों को अनिवार्य रूप से अपने वित्तीय और आपराधिक रिकॉर्ड को घोषित करने संबंधी निर्णय दिया था। राजनीतिक दलों को असहज करने वाले उसी निर्णय में संशोधन की कोशिश की गई थी लेकिन कोर्ट ने उस कदम को असंवैधानिक करार दिया था। इस तरह क्या अब हम सरकार और न्यायालयों के बीच एक बार फिर टकराव के मुहाने पर खड़े हैं? ऐसे में 66 साल पहले अंग्रेजों की गुलामी से मिली आजादी क्या वास्तविक थी?

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मुकेश केजरीवाल

(विशेष संवाददाता)


क्या किसी लोकतांत्रिक देश में किसी के लिए मुमकिन है कि कानून तोड़ता पकड़ लिए जाने के बाद उस कानून को ही बदल कर खुद को उसके दायरे से बाहर कर ले? ऐसी छूट किसी और को भले नहीं हो, लेकिन भारत के नेताओं को जरूर है। केंद्रीय सूचना आयोग ने खूब सोच-विचार कर बताया है कि राजनीतिक पार्टियां आरटीआइ के दायरे में हैं। यह कोई मुहल्ले का बीट कांस्टेबल नहीं, एक संवैधानिक संस्था है और आज की तारीख में जो दल मांगी सूचना नहीं दे रहे, वे कानून तोड़ रहे हैं। कुछ दिनों बाद ये पूरी तरह बेगुनाह हो जाएंगे क्योंकि यही लोग कानून संशोधित कर रहे हैं।


कानून में इस संशोधन की पहल करने वाली सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के तमाम नेताओं से हमने पूछा कि आप संसद में जो यह संशोधन क्यों करने जा रहे हैं? मगर पार्टी का कोई नेता इतने भर के लिए भी राजी नहीं हुआ। सब ने सिर्फ इतना कहा कि वे इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहते। नाम नहीं छापने की शर्त पर एक नेता ने सिर्फ इतना कहा कि ‘राजनीतिक व्यवस्था की निगरानी चंद रिटायर हो चुके अफसरों के हाथ में क्यों दें? और यह हम अपने लिए नहीं कर रहे। आज यहां हम हैं, कल कोई और पार्टी होगी। सवाल यह है कि लोकतंत्र को करोड़ों लोगों का भरोसा जीतने वाली पार्टियां चलाएंगी या चंद नौकरशाह?’


विडंबना देखिए कि जिसे ये पारदर्शिता का सबसे बड़ा साधन बताते हैं, वही इनकी नजर में लोकतंत्र का दुश्मन हो गया। प्रधानमंत्री भले ही स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले से कहते हों कि उनकी सरकार ने आरटीआइ कानून बना कर देश में भ्रष्टाचार को दूर करने का इंतजाम कर दिया। मगर उन्हीं की पार्टी के नेता कहते हैं कि हम इस कानून के दायरे में नहीं। क्योंकि हम सरकार के पैसे से नहीं, परंपराओं और मान्यताओं पर चलते हैं।


सरकार के हर अच्छे-बुरे काम में जम कर नुक्स निकालने वाले मुख्य विपक्षी दल इस मामले में कांग्रेस का हाथ मजबूती से थामे खड़ा है। पहले दिन भले ही इसने आयोग के फैसले का सम्मान करने की बात की हो, लेकिन उसके तुरंत बाद इसने पाला बदल लिया। इसके एक शीर्ष नेता कहते हैं, ‘हम पार्टी की हर गतिविधि का पूरा ब्यौरा चुनाव आयोग को देते ही हैं। अगर किसी को इसकी जानकारी चाहिए तो वहां से ले सकता है। फिर अलग से हमें लोक सूचना अधिकारी बनाने और कागज काले करने को क्यों मजबूर किया जाए?’


यही हाल सभी पार्टियों का है। वामपंथी भाकपा अकेली पार्टी है, जिसने इस फैसले का सम्मान करने को सहमति दी है। यहां तक कि राष्ट्रीय पार्टी की श्रेणी में आने वाली दूसरी वामपंथी पार्टी माकपा ने भी पार्टियों को इसके दायरे से पूरी तरह बाहर रखने का ही समर्थन किया है। पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य सीताराम येचुरी कहते हैं, ‘फिर हमारा काम करना ही मुश्किल हो जाएगा। पार्टी के अंदर के हर फैसले पर सवाल पूछेंगे। यह कैसे मुमकिन है।’


लब्बोलुआब यह है कि गरीबों को रोटी की कथित गारंटी देने वाले कानून तक पर भले ही संसद में कोई रजामंदी नहीं बने, लेकिन खुद को बचाने वाले संशोधन पर कोई चिक-चिक नहीं होगी। और कहते होंगे लोकतंत्र में जनता को मालिक, लेकिन जब बात अपनी खाल बचाने की होगी तो ये नेता आपको जवाब देने की भी जरूरत नहीं समझेंगे।


18  अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘RTI: कसता शिकंजा’ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


18  अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘RTI: कथनी-करनी में फर्क नेताओं की है फितरत‘ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

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