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भू जल रिचार्ज

मुद्दा
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नलकूपों द्वारा रिचार्जिंग: छत से एकत्र पानी को स्टोरेज टैंक तक पहुंचाया जाता है। स्टोरेज टैंक का फिल्टर किया हुआ पानी नलकूपों तक पहुंचाकर गहराई में स्थित जलवाही स्तर को रिचार्ज किया जाता है। इस्तेमाल न किए जाने वाले नलकूप से भी रिचार्ज किया जा सकता है।


गड्ढे खोदकर: ईंटों के बने ये किसी भी आकार के गड्ढे होते हैं। इनकी दीवारों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर सुराख बनाए जाते हैं। गड्ढे का मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इसकी तलहटी में फिल्टर करने वाली वस्तुएं डाल दी जाती हैं।


सोक वेज या रिचार्ज साफ्ट्स: इनका इस्तेमाल वहां किया जाता है जहां की मिट्टी जलोढ़ होती है। इसमें 30 सेमी ब्यास वाले 10 से 15 मीटर गहरे छेद बनाए जाते हैं। इसके प्रवेश द्वार पर जल एकत्र होने के लिए एक बड़ा आयताकार गड्ढा बनाया जाता है। इसका मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इस गड्ढे में बजरी, रोड़ी, बालू इत्यादि डाले जाते हैं।


खोदे गए कुओं द्वारा रिचार्जिंग: छत के पानी को फिल्ट्रेशन

बेड से गुजारने के बाद इन कुंओं में पहुंचाया जाता है। इस

तरीके में रिचार्ज गति को बनाए रखने के लिए कुएं की लगातार सफाई करनी होती है।


खाई बनाकर: जिस क्षेत्र में जमीन की ऊपरी पर्त कठोर और छिछली होती है, वहां इसका इस्तेमाल किया जाता है। जमीन पर खाई खोदकर उसमें बजरी, ईंट के टुकड़े आदि भर दिया जाता है। यह तरीका छोटे मकानों, खेल के मैदानों, पार्कों इत्यादि के लिए उपयुक्त होता है।


रिसाव टैंक: ये कृत्रिम रूप से सतह पर निर्मित जल निकाय होते हैं। बारिश के पानी को यहां जमा किया जाता है। इसमें संचित जल रिसकर धरती के भीतर जाता है। इससे भू जल स्तर ऊपर उठता है। संग्र्रहित जल का सीधे बागवानी इत्यादि कार्यों में इस्तेमाल किया जा सकता है। रिसाव टैंकों को बगीचों, खुले स्थानों और सड़क किनारे हरित पट्टी क्षेत्र में बनाया जाना चाहिए.


पानी की खातिर…

रेनवाटर हार्वेस्टिंग भारत की बहुत पुरानी परंपरा है। हमारे पुरखे इसी प्रणाली द्वारा अनमोल जल संसाधन का मांग और पूर्ति में संतुलन कायम रखते थे। आइए, कुछ परंपरागत तरीकों पर एक नजर डालते हैं।


थार रेगिस्तान में कुंड: यहां के ग्र्रामीण लोगों ने रेनवाटर हार्वेस्टिंग की एक अनोखी स्वदेशी प्रणाली विकसित की। इसे कुंडसर कुंडी कहते हैं। इसके तहत जमीन के अंदर एक ढका हुआ कुंड बनाया जाता है। 1607 में ऐसा पहला कुंड राजा सुरसिंह ने बनवाया था। मेहरान गढ़ किले में 1759 में महाराजा उदय सिंह ने भी ऐसे कुंड बनवाए। 1895-96 के भीषण अकाल के दौरान ऐसे कुंडों के निर्माण में तेजी आई। इनका कैचमेंट एरिया तश्तरी के आकार का होता है। टैंक का केंद्र चौतरफा ढलान पर बना होता है। इससे चारों ओर से पानी इस कुंड में एकत्र होता रहता है। पानी आने वाले रास्तों के मुहाने पर तार की जाली से पानी छनकर आता है। कुंड का शीर्ष एक ढक्कन से बंद होता है। जरूरत पड़ने पर ढक्कन उठाकर बाल्टी से पानी निकाला जाता है।


बांस के सहारे सिंचाई: मेघालय के जनजातीय किसान 200 साल पुरानी इस प्रणाली से अपनी काली मिर्च या पान के पौधों की सिंचाई करते हैं। यह इतनी कुशल तकनीक है कि बांस की पाइपों के सहारे प्रति मिनट 18 से 20 लीटर पानी काफी दूरी से लाया जा सकता है और नुकसान अंशमात्र ही होता है। ऊंचे पहाड़ों के इन झरनों का पानी इस तकनीक से निचले स्थानों तक पहुंचाया जाता है। ऊपर झरने से लेकर नीचे घरों और खेतों तक पहुंचाने के लिए बनाई गई पांच स्तरीय पूरी चैनल प्रणाली में इन्हीं बांसों का इस्तेमाल किया जाता है।


कुल सिंचाई प्रणाली: हिमाचल प्रदेश के स्पीति में किसानों द्वारा फसलों की सिंचाई के लिए विकसित की गई स्वदेशी प्रणाली कुल कहलाती है। इसके तहत ग्लेशियर के पानी को गांवों तक लाया जाता है। पहाड़ की ढलान से नीचे तलहटी तक ले आने में इन कुलों की लंबाई काफी अधिक हो जाती है। कुछ कुल तो 10 किमी लंबे और सदियों से अस्तित्व में हैं। किसी कुल का महत्वपूर्ण भाग ग्लेशियर पर स्थित उसका अग्र्र भाग होता है। कुल का पानी नीचे बनाए गए एक गोलाकार टैंक में एकत्र होता रहता है।


अन्य प्रणाली: इसके अलावा देश के विभिन्न क्षेत्रों में कृत्रिम ग्लेशियर (जम्मू कश्मीर), नाड़ी (राजस्थान), चौका सिस्टम (राजस्थान), जलधर मॉडल, टुडुम या मोंगा, नेटवर्किंग ऑफ फार्म पांड्स और स्नो सैंड फिल्टर पद्धति प्रचलन में है।


राष्ट्रपति भवन में जल भंडारण

नवंबर, 1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) को आमंत्रित कर राष्ट्रपति भवन में वाटर हार्वेस्टिंग

को लेकर सुझाव मांगे। सीएसई ने एक

सलाहकार समिति का गठन किया जिसने राष्ट्रपति भवन में वाटर हार्वेस्टिंग को लेकर एक योजना बनाई। इस योजना को सीपीडब्ल्यूडी और सीजीडब्ल्यूबी ने अमलीजामा पहनाया।


जरूरत: राष्ट्रपति भवन का क्षेत्रफल 133 हेक्टेयर (1.33 वर्ग किमी) है। यहां रहने वाले करीब 7000 लोगों के लिए बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत होती है। इस इमारत को देखते रोजाना 3000 लोग पहुंचते हैं। यहां के मुगल गार्डेन को काफी पानी की जरूरत पड़ती है। राष्ट्रपति भवन को रोजाना 20 लाख लीटर (73 करोड़ लीटर सालाना) पानी की जरूरत होती है। चूंकि यहां की कुल पानी मांग की 35 फीसद आपूर्ति भूजल द्वारा की जाती है लिहाजा यहां पिछले एक दशक के दौरान भू जल स्तर 2-7 मीटर नीचे चला गया।


उपाय: सालभर में राष्ट्रपति भवन के पूरे क्षेत्र में 81 करोड़ लीटर पानी बरसता है। रेनवाटर हार्वेस्टिंग तरीके के तहत यहां एक लाख लीटर क्षमता वाला भूमिगत टैंक बनाया गया। इससे ओवर फ्लो होने वाले पानी को दो खुदाई किए गए कुओं में रिचार्जिंग के लिए भेजा गया। स्टॉफ क्वार्टर की छतों के पानी को भी सूखे कुओं में डायवर्ट किया गया। 15 मीटर गहरे रिचार्ज शाफ्ट बनाए गए। मुगल गार्डेन के पास एक जोहड़ (तालाब) भी बनाया गया।


नतीजा: इससे न केवल राष्ट्रपति भवन में पानी की आपूर्ति सुनिश्चित हुई बल्कि अब यहां का भू जल स्तर करीब एक मीटर ऊपर भी उठ चुका है।


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