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सीबीआइ सरकार के निर्देशों से बंधी हुई है। इसको आलोचनाएं झेलनी पड़ती हैं जबकि समस्या सरकार में मौजूद है।
आमतौर पर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) प्रशंसनीय वजहों से चर्चा में नहीं रहती। इसको कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन तक कहा जाता है। गठबंधन के इस दौर में कुछ लोग इसे सरकार का सच्चा मित्र मानते हैं।
कानूनी रूप से इस एजेंसी का गठन 1941 में स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट (एसपीई) से हुआ था। एक अप्रैल, 1963 को एक आदेश द्वारा इसे सीबीआइ नाम दिया गया। एसपीई एक्ट में केंद्र शासित राज्यों के पुलिस अधिकारियों के साथ दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट (सीबीआइ) की शक्तियों, कर्तव्यों, अधिकारों और उत्तरदायित्व के बारे में बताया गया है। केंद्र सरकार, केंद्र शासित राज्यों के अलावा संबंधित राज्य की सहमति से सीबीआइ जांच का दायरा किसी भी क्षेत्र तक बढ़ा सकती है।
नए सीवीसी एक्ट के तहत ज्वांइट सेक्रेट्री (जेएस) और उससे ऊपर के अधिकारियों के खिलाफ मामले की जांच शुरू करने के पहले सरकार की अनुमति लेनी होगी। उसके बाद मुकदमा चलाने के लिए चार्जशीट दायर करने से पहले सरकार की अनुमति लेनी होगी।
सीबीआइ अपनी कार्यप्रणाली के लिए रोडमैप नहीं तैयार कर सकती क्योंकि यह चुनाव आयोग, कोर्ट या कैग की तरह संवैधानिक संस्था नहीं है। वास्तविकता यह है कि भ्रष्टाचारियों को पकड़ना और दंडित करना किसी भी सरकार की प्राथमिकता नहीं है।
हाल में सरकार ने संसद में बताया कि 2008-2012 के बीच चार वर्षों में उसने जेएस और उससे उच्च स्तर के 15 शीर्ष सरकारी अधिकारियों के खिलाफ मामलों में सीबीआइ को जांच की अनुमति नहीं दी। सीबीआइ इनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में जांच करना चाहती थी। सरकार औसतन दो वर्षों में एक आइएएस अधिकारी के खिलाफ मामला चलाने का निर्णय लेती है। संसद में दिए एक ब्यौरे के मुताबिक 2009 से लेकर अब तक सीबीआइ ने 47 आइआरएस, 35 आइएएस और सात आइपीएस अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले दर्ज किए हैं।
इस प्रकार सीबीआइ अधिकारियों के खिलाफ जांच की अनुमति के अलावा स्टाफ के लिए भी सरकार पर निर्भर है। सुप्रीम कोर्ट ने चार दिसंबर, 2012 को सीबीआइ में रिक्त पदों पर चिंता प्रकट की है। उसने निर्धारित समय के भीतर भ्रष्टाचार के मामले निपटाने के लिए सरकार की मंशा और गंभीरता पर सवाल उठाए। उसने सरकार से पूछा कि जब भ्रष्टाचार के केस बढ़ते जा रहे हैं तो वह सीबीआइ में रिक्त पदों को भरने में शिथिलता क्यों बरत रही है? सीबीआइ में वरिष्ठ पदों पर 50 प्रतिशत पद खाली क्यों हैं जबकि इस कमी की वजह से मामलों की जांच प्रभावित हो रही है?
कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि हम सरकार की यह मंशा जानना चाहते हैं कि कितने वर्षों में भ्रष्टाचार के मामलों का निपटारा होगा? कार्यपालिका को इस तरह की प्रतिष्ठान के गठन का अधिकार है और कोर्ट को आमतौर पर कार्यपालिका के निर्णयों में दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए? लेकिन सरकार से हम यह जानना चाहते हैं कि क्या वास्तव में उसकी रुचि तीव्रता से भ्रष्टाचार के मामलों को निपटाने की है? यदि सरकार गंभीर नहीं है तो उसको बताना चाहिए?
इस मामले में कोर्ट ने सरकार की तरफ से गृह सचिव द्वारा दायर किए गए हलफनामे पर भी नाखुशी जाहिर की। उसने हलफनामे को अस्पष्ट करार देते हुए कहा कि गृह सचिव का हलफनामा बेहद अनौपचारिक किस्म का है। ऐसा लगता है कि वह मामले की गंभीरता को समझ नहीं पाए।
सीबीआइ संवैधानिक निकाय नहीं है। यह सरकार की एक शाखा है और उसकी सलाह और निर्देशों से बंधी हुई है। क्या इससे भी ज्यादा निराशाजनक कुछ हो सकता है कि सीबीआइ को सभी आलोचनाओं को सुनना पड़ता है जबकि समस्या कहीं न कहीं सरकार में मौजूद है।
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जब उठी अंगुली
बसपा सुप्रीमो मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति
मामले की जांच के दौरान सीबीआइ को केंद्र के दबाव का सामना करना पड़ा था। बड़े नेताओं के खिलाफ जांच में प्रगति रिपोर्ट को लटकाने या खास तरीके से पेश करने के लिए प्रभावित करने की कोशिश होती है।
–यूएस मिश्रा, पूर्व सीबीआइ निदेशक (14 दिसंबर को दिए गए एक बयान में)
खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) और प्रोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर मुलायम सिंह यादव के विरोध को दबाने के लिए केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार सीबीआइ के जरिए उनको घेरने की साजिश कर रही है।
-राजेंद्र चौधरी, सपा प्रवक्ता (16 दिसंबर)
राजनीतिक हित साधने वालों के लिए सीबीआइ ऐसा खिलौना बन गई है, जिसकी जांच के दौरान तो जमकर आलोचना की जाती है और जैसे ही स्थितियां अनुकूल होती हैं, वे अपना नजरिया बदल लेते
–मनीष तिवारी, सूचना व प्रसारण राज्यमंत्री (14 दिसंबर, 2012)
Tag: सीबीआइ, सरकार, स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट , (एसपीई),संसद,राजनीति,पुलिस,CBI,sarkar,sansad
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