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असुरक्षित: एक के बाद एक लगातार आतंकी हमलों से देश की आर्थिक राजधानी मुंबई का अब तक बहुत खून बह चुका है। हर हमले के बाद आतंकियों को मुंहतोड़ जवाब देने के राजनेताओं के दावे बस वादे ही रह जाते हैं। हमारी मायानगरी मुंबई अति असुरक्षित हैं। आतंकी हमलों में मारे जाने वाले लोगों की संख्या के आधार पर यह शहर कराची और काबुल की जमात में शामिल है।
आसान : यहां सक्रिय अंडरवल्र्ड की पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ से साठगांठ है। मुंबई में किसी आतंकी हमले को अंजाम देने के लिए ये माफिया गुट आतंकियों को ठिकाना, लॉजिस्टिक और रेकी करने जैसी तमाम सहूलियतें मुहैया कराते हैं। यहां की पुलिसिया कार्यशैली भी आतंकियों को उनके मंसूबों को अंजाम देने में मदद करती है।
अंजाम : पुलिस की कार्यशैली में जबरदस्त राजनीतिक हस्तक्षेप है। पुलिस प्रशासन
कोई सख्त कदम उठाना भी चाहता है तो राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते उसे अपने कदम वापस खींचने पड़ते हैं। इसका प्रमुख कारण वहां की राजनीति में मुंबई के किसी कद्दावर नेता का न होना माना जाता है। रसूख वाले अधिकांश नेता मराठवाड़ा क्षेत्र से आते हैं , जो मुंबई की चाक-चौबंद सुरक्षा व्यवस्था से शायद ज्यादा सरोकार नहीं रखना चाहते। अंडरवर्ल्ड, पुलिस और नेता की तिकड़ी के गठजोड़ के चलते मुंबई आतंकियों का हर बार आसान निशाना बन रही है।
पिछले 20 वर्षों से तो लगातार हम आतंकवाद झेलते आ रहे हैं। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई आतंकवादियों का विशेष निशाना रही है, क्योंकि यह एक बहुत बड़ा शहर है। यहां होनेवाली एक छोटी घटना भी विश्व का ध्यान आकर्षित करती है। किसी और शहर में की गई उसी प्रकार की घटना का उतना लाभ आतंकवादियों को नहीं मिल पाता।
मुंबई को निशाना बनाने का एक और प्रमुख कारण ये है कि हमारे देश की राजनैतिक स्थिरता, आर्थिक सुदृढ़ता, आर्थिक प्रगति एवं स्थायी लोकतांत्रिक प्रशासन हमारे कुछ पड़ोसी देशों और विघातक शक्तियों द्वारा देखा नहीं जाता। इसलिए भी आतंकियों द्वारा हमारी आर्थिक राजधानी में विघ्न पैदा करने और हमारी आर्थिक शक्ति को धक्का पहुंचाने के लिए बार-बार मुंबई को निशाना बनाया जाता है। इसके अलावा अपनी भौगोलिक-राजनीतिक स्थिति को भी हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। हमारे सभी पड़ोसी देश पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार और श्रीलंका किसी न किसी प्रकार की अशांति से ही गुजर रहे हैं। उनकी लोकतांत्रिक व्यवस्था ठीक से नहीं चल पा रही है। कहीं सेना का शासन है। कहीं तानाशाही व्यवस्था है। हमारे लिए आतंकवाद सिर्फ एक आंतरिक समस्या नहीं है। इसके तार सीमा पार से भी जुड़े हुए हैं। इसे हम नजरंदाज नहीं कर सकते।
देश में कहीं भी कोई घटना होती है, तो उसकी प्रतिक्रिया हमें मुंबई में देखने को मिलती है। 1992 में हुई अयोध्या की घटना के बदले में यहां 1993 में विस्फोट किए गए। 2002 में गुजरात में दंगे हुए तो उसका भी बदला लेने के लिए अलग-अलग आतंकवादी संगठनों ने यहां के गुजराती समाज को लक्ष्य करके कई घटनाएं कीं। ऐसी घटनाओं से लोग तो परेशान होते ही हैं, हमारी आर्थिक प्रगति पर भी इसका असर पड़ता है।
सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे देश में, और खासतौर से मुंबई जैसे बड़े शहरों की सुरक्षा के आधारभूत ढांचे पर निवेश होने की आवश्यकता है। हम इसे बहुत लंबे समय से नजरंदाज करते आ रहे हैं। जितना ध्यान इस ओर दिया जाना चाहिए था, नहीं दिया गया। अब इस दिशा में ध्यान देना शुरू किया गया है। विशेषकर 26 नवंबर, 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद सुरक्षा के आधारभूत ढांचे पर काफी निवेश हुआ है।
इसके बाद एक बात पर और ध्यान देने की जरूरत है कि पुलिस को शक्तिशाली बनाया जाए, उसे सही प्रशिक्षण मिले। उसे अपना काम करने के लिए पूर्ण अधिकार और स्वायत्तता मिलनी चाहिए। पुलिस सुधारों की वर्षों से चली आ रही बात को शीघ्रातिशीघ्र अमल में लाना आवश्यक है। इसी प्रकार पुलिस बल के अंतर्गत आंतरिक प्रशासन में किसी प्रकार का बाहरी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि पुलिस के आंतरिक प्रशासन में कहीं न कहीं बाहरी हस्तक्षेप होता दिख रहा है। ये हस्तक्षेप राजकीय भी है और दूसरे तरह का भी है। ये पूरी तरह से बंद होना चाहिए। शहर के पुलिस आयुक्त को अपने अधीन सभी अधिकारियों-कर्मचारियों के तबादले करने, उनकी नियुक्तियां करने, उन्हें प्रोत्साहन देने या उन पर कार्रवाई करने का पूरा अधिकार मिलना चाहिए। इसमें बाहर की तरफ से कोई दखलंदाजी न करे, इस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। यदि हम इसे अलग-अलग समानांतर सत्ता से चलाने की कोशिश करेंगे तो पुलिस बल का सारा ढांचा ढह जाएगा।
जब मैं तीन साल तक मुंबई का पुलिस आयुक्त था, तब ऐसी स्थिति नहीं थी। पुलिस आयुक्त की हैसियत से उपायुक्त स्तर तक के सभी अधिकारियों व कर्मचारियों के तबादले एवं उन पर कार्रवाई का अधिकार मुझे प्राप्त था। लेकिन मुझे पता चला है कि मेरे हटने के बाद से अब यह स्थिति बदल गई है। सुनने में आया है कि आज के पुलिस आयुक्त अपने थाना प्रभारी अधिकारियों के तबादले तक नहीं कर सकते। उसके लिए उन्हें अपने राज्य शासन से अनुमति लेनी पड़ती है। इसकी पूरी सच्चाई मुझे नहीं पता। क्योंकि कोई प्रशासनिक आदेश मेरे हाथ में नहीं है। लेकिन अगर ये सच है, तो यह गलत बात है। इसके गंभीर परिणाम होंगे। ऐसा होने पर थाना प्रभारी अपने आयुक्त की तरफ इस निगाह से कतई नहीं देखेगा कि ये हमारे बारे में निर्णय करनेवाले अंतिम अधिकारी हैं। यदि उसके मन में यह भावना आ गई कि वह कहीं और से भी अपना तबादला, पोस्टिंग करवा या रुकवा सकता है, तो सब कुछ गड़बड़ हो जाएगा।
दो बातें और हैं। एक तो भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार का सीधा संबंध आतंकवाद से भले न हो, लेकिन जो अधिकारी भ्रष्टाचारी होगा, भ्रष्टाचार करके किसी तरह अपने पद पर पहुंचेगा, उसका ध्यान ही भ्रष्टाचार करके पैसा जमा करने में रहेगा। इसकी वजह से उसे जो कठोर कार्रवाई गुनहगारों, दोषियों या किसी और के विरुद्ध करनी होगी, वह नहीं करेगा। उसकी इस प्रकार की निष्क्रियता पर यदि उसका आयुक्त उसके विरुद्ध कोई कार्रवाई करना चाहे, और न कर पाए तो पूरा ढांचा ही ढह जाएगा।
अंतिम बात यह है कि पुलिस को आम लोगों से अपना समन्वय ज्यादा से ज्यादा बढ़ाना चाहिए। हर समाज, हर वर्ग, हर धर्म से जब तक पुलिस का संबंध ज्यादा से ज्यादा नहीं होगा, तब तक उसे समाज के अंदर से जानकारियां नहीं मिल पाएंगी । उसका इंटेलीजेंस मजबूत नहीं होगा और वह अपना काम सही तरीके से नहीं कर पाएगी। पुलिस द्वारा लोगों के संपर्क में रहने से उनमें यह विश्वास सुदृढ़ होगा कि उन्हें कोई जानकारी मिलेगी तो वह उसे पुलिस तक पहुंचा सकते हैं। इसके अलावा कम से कम आतंकवाद के मामलों में अदालतों में सुनवाई भी जल्द से जल्द पूरी कर दोषियों को कठोर सजा मिलनी चाहिए। ताकि दहशत पैदा करनेवालों के मन में भी डर पैदा किया जा सके ।
(ओमप्रकाश तिवारी से बातचीत पर आधारित)
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साभार : दैनिक जागरण 17 जुलाई 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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