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आर्थिक सुधारों के पहिया जाम ने बिगाड़े हालात

मुद्दा
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17d11m3-1_1324143328_mवजह चाहे भले ही शुद्ध रूप से राजनीतिक हो लेकिन केंद्र सरकार ने आर्थिक सुधारों पर उस समय ब्रेक लगाया है जब इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। एक तरफ अर्थविद, उद्योग जगत व तमाम निवेशक यह मांग कर रहे हैं कि मंदी से निकलने के लिए आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया आगे बढ़ाई जाए तो दूसरी तरफ सरकार एक के बाद एक सुधारवादी कदमों को रोकते जा रही है। एक बड़ा वर्ग है जो मानता है कि तमाम कमजोरियों की वजह से सरकार किसी भी मुद्दे पर दो टूक फैसला नहीं कर पा रही है। इसका सबसे ज्यादा विपरीत असर अर्थव्यवस्था को उठाना पड़ रहा है।


आर्थिक सुधारों पर कोई फैसला नहीं होने के बारे में फिक्की के महासचिव राजीव कुमार का कहना है कि ‘यह बात समझ में नहीं आती कि अगर सरकार पहले कहती है कि रिटेल में विदेशी कंपनियों के आने से एक करोड़ नई नौकरियां मिलेंगी और दो दिन बाद ही उस फैसले को पलट दिया जाता है। अगर रिटेल के फैसले पर सरकार अटल रहती तो औद्योगिक उत्पादन में गिरावट की खबर आने का पूरे माहौल पर उतना बुरा असर नहीं पड़ता। पूरी दुनिया में मंदी है, भारत में भी है लेकिन मुश्किल यह है कि यहां की सरकार इसे टालने के लिए कुछ नहीं कर रही।’


इस बार की मंदी को भांपने में केंद्र सरकार ने शुरु से ही गलती की है। इस बात को वित्त मंत्री भी स्वीकार कर चुके हैं कि यूरोपीय मंदी के असर को आंकने में गलती हुई है। नौ महीने पहले सरकार ने नौ फीसदी की विकास दर तय की थी अब इसके सात फीसदी रहने की बात की जा रही है। इसके बावजूद सरकार चाहती तो तमाम प्रयासों द्वारा मंदी के असर को कम किया जा सकता था। लगभग 40 बिजली परियोजनाएं पर्यावरण व अन्य मंजूरियों की वजह से लटकी हुई हैं। अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट की दिक्कतों को दूर करने की कोशिश नहीं हुई। कोयला उत्पादन में लगातार गिरावट को बढ़ाने के लिए भी तत्काल प्रभाव से कदम नहीं उठाए गए। जीएसटी को लेकर सरकार राजनीतिक सहमति बनाने में असफल रही। मैन्युफैक्चरिंग नीति लागू करने पर ही कछुआ गति से सरकार चलती रही। दिल्ली-मुंबई औद्योगिक क्षेत्र के विकास को लेकर भी सरकार का रवैया सुस्त रहा। ढांचागत क्षेत्र में निवेश को लेकर एकमुश्त फैसला करने के बजाए छोटे-छोटे उपाय किये जाते रहे। अगर ये उपाय पहले हुए होते तो आज वित्त मंत्री को यह नहीं कहना पड़ता कि मंदी से उबरने के लिए सरकार बहुत कुछ नहीं कर सकती।


इसी तरह से बीमा क्षेत्र में एफडीआइ सीमा बढ़ाने के फैसले से देश में तत्काल 2500 करोड़ रुपये का निवेश होने की संभावना थी। रिटेल कंपनियां भी अरबों डॉलर का निवेश करने की तैयारी की थी जो फिलहाल ठंडे बस्ते में हैं। कई मुद्दों पर कैबिनेट में फैसला होने के बावजूद सरकार उसके लिए समर्थन नहीं जुटा पाई। मसलन, मल्टी ब्रांड रिटेल में एफडीआइ और बीमा सुधार विधेयक। जानकारों का कहना है कि इन सबके पीछे राजनीतिक वजहें हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद ही सरकार इन मुद्दों पर विचार करेगी। हो सकता है कि तब तक अर्थव्यवस्था के लिए और देर हो जाए।


जरूरी सुधार, जो थम गए

1. मल्टी ब्रांड खुदरा क्षेत्र में एफडीआइ की अनुमति का फैसला फिर स्थगित।

2. बीमा क्षेत्र में एफडीआइ सीमा बढ़ाने के फैसले पर स्थाई समिति ने लगाई रोक।

3. विदेशी बैंकों को ज्यादा अधिकार देने संबंधी प्रस्ताव भी ठंडे बस्ते में।

4. निजी क्षेत्र में नए बैंक खोलने को लेकर सरकार नहीं कर पा रही फैसला।

5. बिजली क्षेत्र में कोयले की किल्लत दूर करने पर नहीं बन पा रही बात।

6. सामान और सेवा कर के रास्ते में बाधा बरकरार।

7. प्रत्यक्ष कर कोड को लेकर भी स्थिति साफ नहीं।

8. विदेशी उड्डयन कंपनियों को अनुमति देने पर खींचतान।

9. पेट्रोलियम सब्सिडी का बोझ कम करने पर नहीं बनी बात।

जनमत


क्या अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट ने आपको अपने खर्चो में कटौती पर विवश किया है?

हां: 91%

नहीं: 9%


क्या आर्थिक सुधारों को लागू करने की सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति से मंदी बढ़ रही है?

हां: 76%

नहीं: 24%


आपकी आवाज

अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट ने हम सभी को अपने खर्चो में कटौती पर विवश किया है। पिछली मंदी से सबक लेते हुए लोगों ने बचत पर ज्यादा जोर देना शुरू किया है। -रत्नेश 160880 @ रीडिफमेल.कॉम


मंदी में हम लोग भले ही अपने जरूरी खर्चो में कटौती पर विवश होते हों, लेकिन जिन माननीयों की वजह से ये हालात पैदा होते हैं उनके खर्चे इससे बेअसर हैं। -आशीष पाठक अंशु @ जीमेल.कॉम


हमें तो सरकार की गलत नीतियों के कारण बढ़ने वाली महंगाई की आदत पड़ चुकी है। आर्थिक मंदी तो कभी-कभी आती है परंतु महंगाई तो रोज का रोना है। -राजू09023693142 @ जीमेल.कॉम


आर्थिक सुधारों को लागू करने की दृढ़ इच्छाशक्ति का सरकार में बिल्कुल ही अभाव दिखता है। अन्यथा स्थितियां जुदा होती। -रामरैप @ जीमेल.कॉम

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