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फिर पानी के समाजीकरण की है जरूरत

मुद्दा
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मैं’ पानी हूं। सभी मुझसे परिचित हैं। न मेरा कोई रंग है न कोई गंध है और न ही कोई स्वाद है। मैं पृथ्वी के अस्तित्व से जुड़ा हूं और पृथ्वी मेरे अस्तित्व से जुड़ी है। मैं अपनी महत्ता का खुद बखान करके मियां मिट्ठू नहीं बनना चाहता। मेरी जरूरत उस राही से पूछिए जो तपती धूप में लंबी दूरी तय करके आ रहा है। मुझसे भरा एक गिलास उसकी आत्मा को वह खुशी देता है जिसको लिखना या बयान करना असंभव है। मेरी उपयोगिता उन चंद लोगों से मत पूछिए जिन्हें मैं सर्वसुलभ हूं और वे मेरा अपव्यय कर रहे हैं। मेरे बारे में अगर जानना है तो दुनिया के उन लोगों से पूछिए जो रात-रात भर जागकर मुझे एकत्र करते हैं। वे लोग जो मेरी एक-एक बूंद की तलाश में मीलों का सफर तय करते हैं। मैं खुद बहुत दुखित हूं। ना…ना…ना… अगर आप सोच रहे हैं कि भविष्य में खुद पर आते संकट को देखकर मैं दुखित और चिंतित हूं तो आप गलत हैं। दरअसल मेरे कारण से दुनिया को हो रही परेशानी और कष्ट से मेरी यह हालत हुई है। फिर सोचता हूं कि आखिर मेरी कमी का यह संकट खड़ा कैसे हुआ? काफी चिंतन मनन के बाद जो एकमात्र नतीजा सामने आता है, वह खुद मनुष्य है। ‘मैं’ जिसके इस्तेमाल के  लिए बना हूं, वही साल दर साल मेरी बेकद्री करते चला आ रहा है। लिहाजा मेरे आवास खत्म होते चले जा रहे हैं। मैं दूषित हो रहा हूं। मेरा स्तर रसातल में पहुंच रहा है। लोग मेरे दूषित रूप को पीकर मर रहे हैं। मैंने सुना है कि मानव इस दुनिया का सबसे समझदार प्राणी है, लेकिन यह समझदारी मेरी समझ से बाहर है। अगर किसी को मालूम हो कि यह चीज उसके जीवन के लिए संजीवनी है तो उसे उस वस्तु की मन, क्रम और वचन से रक्षण और संरक्षण करना चाहिए। लेकिन मानव तो हमें ही खत्म करने पर तुला हुआ है। हे, भगवान! मानव को सद्बुद्धि दो। मेरा संरक्षण आज दुनिया का सबसे बड़ा मुद्दा है। मेरे संरक्षण के प्रति लोगों में जागरण का आह्वान कराओ प्रभु।

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फिर पानी के समाजीकरण की है जरूरत

-अनुपम मिश्र (गांधीवादी चिंतक और कालजयी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के लेखक)
-अनुपम मिश्र (गांधीवादी चिंतक और कालजयी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के लेखक)

सचमुच! नल निचोड़ने के दिन आने वाले हैं, तब भी पक्का नहीं कि उसमें से कुछ बूदें निचुड़ जाएंगी। छोटे-बड़े शहर और प्रदेशों की राजधानियों के अलावा देश की राजधानी दिल्ली पानी के मामले में अब लगातार कंगाल होती जा रही है। पानी की इस कंगाली को स्वतंत्र बहुमत से जीतने वाली सरकारें या मजबूरी में गठबंधन के जरिए चलने वाली सरकारें भी दूर नहीं कर पा रहीं हैं। अलग-अलग समय में हर एक उपाय करके देख लिए गए हैं लेकिन यह संकट है कि थमता ही नहीं।

हमने पानी की तरफ ध्यान देना बंद कर दिया है। पहले समाज पानी का मामला अपने हाथ में रखता था। यह काम मेरा है ऐसा मानता था। अंग्रेजों के आने से पहले देश के पांच लाख गांवों में 25 लाख तालाब थे। इन्हें किसी सिंचाई या जल विभाग ने नहीं बनाए थे। इन्हें गांव का समाज अपने दम पर बनाता था। पीढ़ियों तक इनकी रखवाली करता था। आज जनभागीदारी का मतलब है बनी-बनाई सरकारी योजनाओं में थोड़ा-सा हाथ लगा देना लेकिन तब पानी के मामले समाज बिल्कुल दूसरे स्तर की भागीदारी करता था।


वह योजना खुद बनाता था उसके लिए साधन खुद जुटाता था फिर योजना को अमल में लाता था और फिर योजना के पूरी हो जाने पर अगले पचास सौ बरस तक उसकी देख-रेख करके यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी आने वाली पीढ़ी को सौंप कर जाता था। शहरों की हालत भी ऐसी थी। अब परिस्थितियां पूरी तरह से बदल गई हैं। अब हम बाकी सब चीजों की तरह पानी को खरीदने-बेचने की एक चीज बना चुके हैं। हम पानी के उपभोक्ता बन चुके हैं और उम्मीद करते हैं कि कोई इसे लाकर हमें दे देगा।


इसलिए अब पानी का सरकारीकरण हो चुका है। इसमें कुछ कमियां दिखती हैं तो इसे ठीक करने का अगला कदम यही सूझ पड़ता है कि इसका निजीकरण हो। वह भी ठीक से नही चला तो हम कहां जाएंगें।


सरकारीकरण, निजीकरण की तुकबंदी, कुंभकरण से हो सकती है। जो गहरी निद्रा में सोने का पर्याय है। लेकिन पानी का मामला इतना खतरनाक है कि यदि हम इसमें कुंभकरण बन गए तो बचना बहुत कठिन हो जाएगा। इसलिए आगे-आगे पानी जैसे मामले में उन सब बातों को दोहराने का समय आने वाला है। जिससे इसके समाजीकरण का संबंध जुड़ा था।


अभी बड़े शहर अपने पास की नदी को सुखा देते है, अपनी प्यास बुझाने के लिए। फिर किसी और नदी का पानी खींच कर लाते हैं-बहुत मंहगी कीमत पर। यदि इसकी सही कीमत आंकी जाए तो हमें मिलने वाला पानी दूध के दाम पड़ना चाहिए। बाजार में मिलने वाली बोतल का दाम इसी तरफ इशारा कर रहा है और यह सब संकेत भयानक भविष्य की ओर जाते है। इसलिए हमें पानी के मामले में हमें अपना थोड़ा इतिहास खंगालना चाहिए और उसके आधार पर वर्तमान को दुरूस्त करना चाहिए। प्रकृति इतनी उदार है कि वह हर साल गलतियां करने के बाद भी हमें उनकी सख्त सजा नहीं देती है। हर जगह बरसात के दिनों में वह इतना पानी गिराती है कि यदि हम उसे रोक लें और भूजल का भंडार बढ़ा लें तो हमें वर्तमान जल संकट से राहत मिलनी शुरू हो जाएगी।


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