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बजट प्रबंधन: समय और समाज का तकाजा

मुद्दा
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मौका: हर साल की तरह आगामी 16 फरवरी को देश का एक और आम बजट पेश किया जाना प्रस्तावित है। अर्थव्यवस्था में तेजी लाने और सुधारों के प्रति सख्त कदम उठाने को लेकर अर्थविद् इस 2012-13 के बजट को सरकार का आखिरी मौका मान रहे हैं।


मायने: इधर बीच बजट के प्रति आस लगाने वाली लोगों की प्रवृत्ति में जैसे कमी आई है। मानों उन्हें लगता हो कि यह एक परंपरागत विधान है, जिसमें सरकार आय-व्यय का अनुमान दिखाते हुए कुछ नीतियों की घोषणा कर इतिश्री कर लेती है। बाद में जब भी उसे लगता है कि फलां चीज का दाम बढ़ाना है तो वह अपने मनमाफिक करती ही रहती है। लोगों के बीच बजट के बदलते मायने सरकार और समाज के बीच बढ़ती दूरी के संकेत हो सकते हैं।


मकसद: पूरी तरह से बदले आर्थिक परिवेश-परिदृश्य में इस तरह की परंपरागत बजट प्रणाली की व्यावहारिकता-उपयोगिता पर सवालिया निशान लग सकता है। जब तक आम जन खुद को सीधे तौर पर बजट के प्रावधानों से न जोड़ सकें, तब तक इसकामकसद सार्थक नहीं हो पाएगा। ऐसे में आम जनता के बीच बजट की स्वीकार्यता और समझ बड़ा मुद्दा है।

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कमल नयन काबरा (चेयर प्रोफेसर ऑफ डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स, इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज-नई दिल्र्ली)
कमल नयन काबरा (चेयर प्रोफेसर ऑफ डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स, इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज-नई दिल्र्ली)

बजट प्रबंधन: समय और समाज का तकाजा

केंद्रीय बजट भारतीय राज्य की राष्ट्रीय जीवन में भूमिका और भागीदारी को ठोस रूप देने का शायद सबसे महत्वपूर्ण और साल दर साल बदलता एक लचीला उपकरण है। बजट विमर्श की बढ़ती सहभागिता हमारे लोकतंत्र की सारगर्भिता का संकेत देती है किंतु इसमें खतरा यह छिपा रहता है कि दादी-नानी की कहानी की तरह कहीं यह भी लकीर पीटने वाला कर्मकांड न बन जाए। हमारे जैसे गैर बराबरी भरे देश में यह खतरा आम लोगों के हितों को हाशिये पर डाल रहा है।


आने वाले समय में सरकार क्या और कितना, किसके लिए और किसके द्वारा और किन वर्तमान तथा परिवर्तित नियमों के चौखटे में करने जा रही है, यह संसदीय मंजूरी के लिए पेश करना कानूनी और व्यावहारिक दोनों तरह से जरूरी है। किसी भी निर्णय की तरह बजट भी कल, आज और कल को किस तरह समन्वित कर पाता है, यह एक विचारणीय मुद्दा है। यह विचार करना जरूरी है क्योंकि नव उदारवाद ने भारत की आर्थिक विकास नीतियों का चरित्र और परिणाम दोनों बदल दिए हैं। आज 2012-13 के बजट पेश किए जाने से पहले कई खास बातें साफ नजर आती हैं। सरकार न केवल राजकीय वित्त के मामले में, किंतु स्वयं अपने लिए निर्धारित लक्ष्यों से दूर भटक गई है। आर्थिक वृद्धि की गति मंद हो गई है। बचत दर घटी है। राजकीय खर्च और आमदनी के बीच असंतुलन बढ़ा है। आर्थिक वृद्धि की बागडोर और प्रत्यक्ष भूमिका राज्य के भारी समर्थन व सोच से बड़ी संगठित देसी-परदेसी पूंजी को सौंपकर भी इच्छित और जरूरी नतीजे नहीं मिल पा रहे हैं। विदेशी आर्थिक-वित्तीय संबंध अति असंतुलित हो गए हैं। इस घाटे को पूरा करने के लिए विदेशी पूंजी की मांगों को फरमान मानकर लागू किया जा रहा है। महंगाई, बेरोजगारी, विषमता, गरीबी और पर्यावरणीय दुर्दशा के बढ़ते आलम ने देश में आंतरिक क्रय शक्ति को बेहद सीमित कर दिया है। अत: मुनाफे की खोज में हमारे धन्नासेठों का श्वेत-श्याम धन बाहर  न केवल चोरी छिपे पलायित हो रहा है, बल्कि देश में आ रही कुल विदेशी पूंजी का लगभग आधे के बराबर निवेश भारतीय कंपनियां विदेश में कर रही हैं। समावेशी आर्थिक वृद्धि के दावे खोखले हो गए हैं। गरीब के लिए निर्धारित सब्सिडी की राशि बड़ी कंपनियों को दी गई छूटों-प्रोत्साहन का आधे से भी कम है। यानी बीस से चालीस लाख अति समृद्ध लोगों पर किया गया खर्च सारे बजटीय घाटे का 128 प्रतिशत हो गया है। कर राजस्व राष्ट्रीय आय के 12 प्रतिशत से घटकर 10 प्रतिशत हो गया है। कम कर दर पर राजस्व वृद्धि और कर चोरी घटने की धारणा धराशायी हो गई है। इसके बदले कोई सकारात्मक सामाजिक जरूरतों के अनुकूल खर्च और निवेश की बात तो दूर आर्थिक वृद्धि के लिए भी ठोस नतीजे नहीं मिल रहे हैं।


साथ में सरकार की साख, कार्य क्षमता, ईमानदारी और स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता, जन-समर्थन पाताल छू रहे हैं। सामाजिक असंतोष बढ़ रहा है। पंचायतों और नगरपालिकाओं के स्तर का विकेंद्रीकरण तो दूर, राज्यों की स्वायत्तता पर भी हमले हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में बड़े व्यवसायियों और विदेशी पूंजी का दबाव फिर से देश की आर्थिक वृद्धि दर, निवेश प्रोत्साहन, बजट खर्च घटाने, कर घटाने और कंपनियों को और ज्यादा रियायतें देने के घातक रास्ते पर दौड़ लगवाने का है। धनी पूंजीवादी देशों के संकट के चक्रव्यूह से सबक लेने की जरूरत सामने आ रही है। नए जनपक्षीय बजट की उपेक्षा बहुत महंगी होने जा रही है। न्यूनतम पुख्ता आमदनी की सबके लिए व्यवस्था किए बिना लोक-दिखाऊ ढिंढोरची योजनाओं के नाम पर अब तक सच्चे जन विकास की नींव भी नहीं रखी जा सकी है। बिना इस सोच को छोड़े, यह संभव भी नहीं दिखता है। सरकार के लिए 2012-13 का बजट ऐसी गुणात्मक स्तर पर पहल का सुनहरा मौका है। निहित स्वार्थों की ताकत और दुराग्र्रहों से मुक्ति किसी भी सार्थक जन पक्षीय बजट की प्राथमिक शर्त है।


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