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जनता से कटी है सरकार

मुद्दा
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संप्रग अपने पहले अवतार में जनता के साथ तालमेल कायम कर पाई थी। लोगों का उसमें विश्वास भी मजबूत हुआ था। जो एजेंडा संप्रग सरकार लेकर चली उसका लोगों ने स्वागत किया। अपने दूसरे अवतार में इस सरकार ने धीरे-धीरे लोगों का विश्वास कमजोर किया। सरकार के खिलाफ लोगों में निराशावाद घर करने लगा।


इसके कई कारण थे। एक तो सरकार अपने पुराने एजेंडे से हट गई। यह कहा जा सकता है कि हटी ही नहीं बल्कि भूल गई कि शासन के लिए एक दृढ़ एजेंडा जरूरी होता है। खासतौर पर सरकार ने गरीबों का पक्षवादी एजेंडा लगभग तज दिया। देश का बुद्धिजीवी वर्ग सरकार से पहले ही असंतुष्ट था। इस वर्ग के बारे में हाल ही में सोनिया गांधी ने कहा कि सरकार की आलोचना करना फैशन बन गया है। अब आम जनता भी सरकार में आस्था खो रही है। सच तो यह है कि मौजूदा वातावरण में आम जनता का सरकार की तरफ रवैया निराशा से भरा है। शासन में बैठे लोग जनता से अलग-थलग महसूस कर रहे हैं।


इस प्रक्रिया में जिस प्रकार से महंगाई बढ़ी है और एक के बाद एक घोटाले सामने आए हैं, उसने भी सरकार के प्रति विश्वास को कमजोर किया है। इसके बावजूद कि इस सरकार के कार्यकाल में पहले के मुकाबले सबसे ज्यादा घोटाले सामने आए और भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों और नेताओं के खिलाफ कार्रवाई भी हुई लेकिन जनता इससे प्रभावित नहीं हुई। उसकी समझ है कि जो कुछ हुआ सरकार उससे बरी नहीं है।


आज के राजनीतिक माहौल में घुले निराशावाद को दूर करने में सरकार विफल रही है। अगर इसके बावजूद सरकार के विरोध में सरगर्मी नहीं है तो उसका मुख्य कारण विरोधी पार्टियों का राजनीतिक स्वास्थ्य है। दूसरी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के रूप में भाजपा निष्क्रियता का शिकार हो गई है। प्रांतीय पार्टियां भी अनेक प्रकार की शिथिलता की शिकार हैं। संभव है कि जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएगा, क्षेत्रीय राजनीतिक दल एक तीसरे मोर्चे की कोशिश करेंगे। हालांकि तीसरे मोर्चे की राजनीति का कोई भविष्य नहीं है, क्योंकि उनका पहले का अनुभव संतोषजनक नहीं रहा है। आमतौर पर लोग क्षेत्रीय पार्टियों का प्रांत में समर्थन करते हैं लेकिन राष्ट्रीय चुनाव में उनका दृष्टिकोण बदल जाता है। केंद्र में प्राय: लोग ऐसी सरकार चुनना चाहते हैं जो स्थिरता देने के साथ अविवादित फैसले लेने में सक्षम हो।


अगले राष्ट्रीय चुनाव में लगभग दो वर्ष बचे हैं। यद्यपि कुछ लोग इसके पहले भी चुनाव कराए जाने की बात कर रहे हैं। दो साल लंबा समय नहीं है। अगर संप्रग लोगों के विश्वास को पुन: जीवित नहीं कर पाएगी तो एक चिंताजनक और आपालकालीन परिस्थिति खड़ी हो सकती है, जो भारतीय प्रजातंत्र के लिए घातक होगी। ऐसा न हो कि यह संप्रग और खासतौर से कांग्र्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो।

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विफलता और बदनामी की लंबी है फेहरिस्त

हाय महंगाई

महंगाई की मार से सबकी कमर टूट रही है। संप्रग सरकार अपने पहले कार्यकाल से लेकर दूसरे कार्यकाल के पहले तीन साल तक आम जनता को महंगाई से निजात नहीं दिला सकी। मई, 2004 में सामान्य महंगाई दर औसतन 4-4.5 प्रतिशत थी। दूसरे कार्यकाल के साल यानी 2009 में इसकी सालाना औसत दर 10.83 फीसद तक पहुंच गई। खाद्य वस्तुओं की महंगाई ने सभी को बेहाल कर रखा है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल, 2004 से अप्रैल, 2012 के बीच सभी जिंसों की कीमतों में 63 फीसद का इजाफा हुआ है, लेकिन जब खाद्य वस्तुओं की बात करें तो इसी समयावधि के दौरान यह 98 से बढ़कर 206.4 फीसद पर पहुंच गई।

04/2004 से 04/2012 के बीच

कमोडिटी     वृद्धि (% में)

खाद्य   110.6

गेहूं    82.3

चावल 83.9

अंडे   100.2

दूध    104.6

दालें   111.0

सब्जियां      171.6

बंदगोभी      540.2

सभी कमोडिटी 63.1


गठबंधन का संकट

प्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी गठबंधन के साथियों को साथ लेकर चलने में नाकाम रहे हैं। आलम यह है कि आर्थिक संकट के कई मसलों पर भाजपा साथ देने को तैयार है लेकिन सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस को साथ लेने में प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेतृत्व नाकाम रहे। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और रेल बजट में किराया बढ़ोतरी जैसे मसलों को लेकर तृणमूल कांग्रेस ने सरकार की किरकिरी ही कराई है। इसके बावजूद सरकार या पार्टी की ओर से ममता बनर्जी की समस्या को समझने और सुलझाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ। द्रमुक की मांग पर भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र में श्रीलंका के खिलाफ वोट देकर विदेश नीति के मोर्चे पर दूरगामी नुकसान उठाया है।


लोकपाल की लड़ाई

अन्ना हजारे के जन लोकपाल बनाम सरकारी लोकपाल की लड़ाई में अभी तक कोई निर्णय नहीं निकल सका है। सशक्त और मजबूत लोकपाल लाने का वायदा करने के बाद भी सरकार में अभी तक इस मसले पर असमंजस बरकरार है। कभी हां कभी ना की स्थिति से सरकार उबर नहीं पाई।


एनसीटीसी विवाद

गैर कांग्रेस शासित राज्य इस मसले पर केंद्र सरकार का विरोध कर रहे हैं। वह इस कदम को संघीय ढांचे में हस्तक्षेप मान रहे हैं। नतीजतन, सरकार को इसको अमलीजामा नहीं पहना सकी।


आदर्श सोसायटी घोटाला

मुंबई के कोलाबा में सैनिकों के लिए आवंटित भूखंड में निर्मित इमारत में जिस प्रकार बड़े राजनेताओं, उच्च सैन्य व प्रशासनिक अधिकारियों ने फ्लैट आवंटन के असली हकदारों को वंचित कर फर्जी  नामों से अपने लिए आवंटन करवा लिए, उसने सरकार की खासी फजीहत करवाई। वरिष्ठ नौकरशाहों समेत महाराष्ट्र के तीन कांग्रेसी नेताओं सुशील कुमार शिंदे, विलास राव देशमुख व अशोक चह्वाण संदेह के घेरे में है। अशोक चह्वाण को तो मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।


2जी स्पेक्ट्रम घोटाला

आजादी के बाद का सबसे बड़ा घोटाला माना जा रहा है। 1.76 लाख करोड़ के घोटाले में सहयोगी दल द्रमुक के कोटे से दूरसंचार मंत्री बने ए राजा को बचाने के लिए उसकी पार्टी ने सरकार पर दबाव बनाया। सरकार ने भी राजा को बचाने कोशिश की। यहां तक कि कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ मंत्री ने बयान दिया कि इस मामले में शून्य घाटा हुआ है। नतीजतन सरकार राजा से बड़ी मुश्किल से इस्तीफा ले सकी। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही पिछले साल फरवरी में राजा की गिरफ्तारी संभव हुई। नीरा राडिया के फोन टैपिंग उजागर होने के बाद यह मामला सामने आया कि राजा को दूरसंचार मंत्री बनवाने में कारपोरेट घरानों की खासी दिलचस्पी थी। यानी कि सरकार में मंत्री पद की बंदरबाट में भी कारपोरेट हस्तक्षेप उजागर हुआ।


राष्ट्रमंडल घोटाला

इस अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के सफलतापूर्वक आयोजन पर भारत को दुनिया भर में वाह-वाही तो मिली लेकिन आयोजन में भ्रष्टाचार के कलंक ने सरकार की प्रतिष्ठा को चकनाचूर कर दिया। इस मामले में भी शुरुआती ना-नुकुर के बाद जब सरकार की बुरी तरह फजीहत की नौबत आ गई तो मामले को सीबीआइ को सौंप दिया गया। साथ ही पूरे घोटाले की जांच केंद्रीय सतर्कता आयोग से भी करवाने का निर्णय लिया गया। सीबीआइ ने इस मामले में कांग्रेस के पूर्व केंद्रीय मंत्री व आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी व आयोजन से जुड़े कई अधिकारियों को गिरफ्तार किया। केंद्रीय सतर्कता आयोग ने इस पूरे आयोजन में पांच हजार से आठ हजार करोड़ के घपले का अनुमान लगाया है।


सिविल सोसायटी विवाद

अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों को सरकार ठीक से समझ नहीं पाई। उनके साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाए यही सरकार तय कर पाने में असमर्थ रही। अन्ना हजारे और उनके साथियों की पहले उपेक्षा की गई। उसके बाद उनको दुत्कारा गया। अंत में बात उलटी पड़ती देख उनको गले लगाने का प्रयास किया गया। बाबा रामदेव के साथ भी यही हुआ।


नीतिगत रुकावट

वित्त मंत्री के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने सरकार की निर्णय क्षमता के बारे में बयान देकर अंदरखाने के सच को उजागर किया है। प्रमुख अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने अर्थव्यवस्था का दृष्टिकोण नकारात्मक कर दिया है। एजेंसी के विश्लेषकों ने सरकार की राजनीतिक स्थिरता पर भी सवाल उठाया है। सरकार मानती तो है कि कई नीतिगत निर्णय बेहद अहम हैं, लेकिन अमल पर मौन हो जाती है।


एंट्रिक्स-देवास समझौता

दुर्लभ एस-बैंड स्पेक्ट्रम को निजी कंपनी को देने के मामले में सरकार ने वरिष्ठ वैज्ञानिक जी माधवन नायर को किसी भी तरह के सरकारी पद को धारण करने से प्रतिबंधित कर दिया है। यह मामला उस वक्त का है जब संबंधित मंत्रालय प्रधानमंत्री के अधीन था। इसी तरह एयरसेल-मैक्सिस मसले में द्रमुक नेता दयानिधि मारन को मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। इसी से संबंधित ताजा मामले में गृहमंत्री पी चिदंबरम पर आरोप लग रहा है कि उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए अपने बेटे की कंपनी को लाभ पहुंचाया।

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