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बिन नदियां सब सून

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नदियों को आपस में जोड़ने वाली  महत्वाकांक्षी योजना को भले ही अघोषित तौर पर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया हो लेकिन मानसून की आहट और बाढ़ की विभीषिका से निपटने के लिए बिहार सरकार द्वारा नदी जोड़ परियोजना की शुरुआत ने इस मसले को फिर गरमा दिया है।


देश में विषम मानसूनी बारिश से कई क्षेत्रों में बाढ़ और सूखे का प्रकोप साथ-साथ होता है। कहीं नदियां अपने उफान पर होती हैं तो किसी नदी में पानी के नाम पर सिर्फ कीचड़ बचा रहता है। इन विसंगतियों को दूर करने के लिए और दुनिया में कई जगह किए गए सफल प्रयोगों के आधार पर एक महत्वाकांक्षी योजना के तहत नदियों को आपस में जोड़ने का प्रस्ताव रखा गया। मसले पर गठित टास्क फोर्स ने अपनी रिपोर्ट में साल 2016 तक इस योजना को पूरा होने की बात कही थी मगर यह परियोजना अभी तक व्यावहारिक अध्ययन तक ही सीमित है।


नदियों का आपस में जुड़ने का मूल स्वभाव रहा है। इतिहास गवाह है कि जो नदी किसी दूसरी नदी से नहीं जुड़ सकी या उसमें कोई सहायक धारा आकर नहीं मिली तो उसके अस्तित्व पर संकट के बादल गहराने लगे। अपनी नदियों को बचाने के लिए उनका न केवल उन्मुक्त प्रवाह जरूरी है बल्कि स्वभाव के अनुसार नदियों को आपस में जुड़ने या जोड़ने द्वारा उनमें पानी की उपयुक्त मात्रा भी बनाए रखना जरूरी है। देश की विशाल जनसंख्या के भरण-पोषण के लिए खाद्य सुरक्षा को बरकरार रखने और प्रत्येक व्यक्ति को शुद्ध पेयजल मुहैया कराने में ऐसी परियोजनाएं अहम साबित हो सकती है। ऐसे में मानसून के आगमन और वर्षा जल प्रबंधन के तहत बाढ़ के खतरे से निपटने के लिए बिहार सरकार द्वारा नदियों के आपस में जोड़ने की योजना का शुभारंभ बड़ा मुद्दा है।


Water Problem in north indiaइतिहास साक्षी है कि जीवन सबसे पहले वहीं पनपा और बढ़ा जहां नदियां रही हैं। पानी की धारा के साथ वह आगे बढ़ा और उसके सूखने के साथ मुरझाया है। भारत में गंगा, ब्रह्मपुत्र, गोदावरी, महानदी जैसी नदियों ने जीवन को सींचा है। पर दुर्भाग्य है कि इस जीवनदायिनी को हमने कभी सींचने का प्रयास नहीं किया। दस वर्ष पहले नदी जोड़ परियोजना पर एक गंभीर शुरुआत तो की लेकिन वह अध्ययनों तक सीमित  रह गई। इस परियोजना पर गठित टास्क  फोर्स के अध्यक्ष रहे सुरेश प्रभु का आरोप है कि सरकार पूरे मुद्दे को अटका कर देश की चुनौती बढ़ा रही है।


सत्तर के दशक में हुई पहल के बाद वर्ष 2002 में सरकारी स्तर पर एक गंभीर प्रयास शुरू हुआ था। राज्यों व विशेषज्ञों के साथ चर्चा शुरू हुई थी। हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों को अलग अलग जोड़ने पर चर्चा छिड़ी थी। वर्षों से सूखे की चपेट में झुलस रहे बुंदेलखंड पर पहली नजर गई थी। केन और बेतवा नदी को जोड़ने की कवायद पूरी हुई होती तो उसका भाग्य बदल जाता। लेकिन सब कुछ फिर से अटक चुका है। बतौर टास्क फोर्स अध्यक्ष पूरे मुद्दे पर व्यापक विचार विमर्श कर चुके सुरेश प्रभु का मानना है कि सब कुछ ठीक चल रहा होता तो देश के सामने आने वाले संकट के खिलाफ तैयारी शुरू हो जाती। चीन का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि 2002 में ही उन्होंने इसके प्रति सरकार को आगाह किया था लेकिन उस पर भी अब तक चुप्पी है। पर्यावरण और पानी को जीवन का सार बताते हुए उन्होंने कहा कि अध्ययन जारी रखने में कोई हानि नहीं है। लेकिन आगे की तैयारी को रोकना भी ठीक नहीं। उन्होंने विशेषकर धरती के बढ़ रहे तापमान को लेकर चेताया। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन को देखते हुए धरती का तापमान दो डिग्री तक बढ़ने की आशंका है। प्रभु ने कहा कि ऐसी स्थिति में अगर पानी का भी संकट हो तो फसल और खासकर गेहूं को नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता। लिहाजा जल प्रबंधन सबसे अहम है और नदी जोड़ परियोजना इसका एक बड़ा पहलू। टास्क फोर्स की रिपोर्ट सरकार के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट को भी सौंपी गई थी। पर्यावरण विशेषज्ञों के पास इस परियोजना के खिलाफ कई तर्क हो सकते हैं लेकिन इसके फायदे गिनाने वालों की संख्या भी कम नहीं है।


suresh prabhuभारतीय कृषि मानसून की सनक पर आधारित है। ऐसे में पहली नजर कृषि पर थी। परियोजना के समर्थकों का मानना है कि यह उन किसानों के लिए जीवनदायिनी हो सकता है जो कभी सुखाड़ से तो कभी बाढ़ से तबाह होने को मजबूर होते हैं। दरअसल नदियों के जोड़ने का पहला लाभ होता कि जल से भरी नदियां सहायक नदियों की प्यास बुझाती तो बाढ़ से भी राहत देती।


ऊर्जा के लिहाज से भी नदी जोड़ परियोजना को अहम माना जा रहा है। कुछ अध्ययनों के अनुसार इस परियोजना से 30 हजार मेगावाट से ज्यादा पनबिजली उत्पादन की क्षमता तैयार हो सकती है। ऊर्जा उत्पादन क्षमता को लेकर कुछ संशय जरूर हो सकते हैं लेकिन इसे नकारना किसी के लिए संभव नहीं होगा। ऊर्जा में पिछड़ रहे देश के लिए परियोजना बड़ी संभावनाओं का भंडार है। नदियां जुड़ी तो इसे आंतरिक परिवहन के रूप में भी देखा जा सकता है।


ज्यादा जरूरी है नदियों को लोगों से जोड़ा जाए


Rajendra Singhजल संरक्षण के लिए किए गए अपने कामों के लिए मैगसेसे पुरस्कार हासिल करने वाले ‘जल पुरुष’  राजेंद्र सिंह का मानना है कि भारत में नदियों को दूसरी नदियों से नहीं लोगों के दिलों से जोड़ने की जरूरत है। प्रस्तुत है उनसे ‘दैनिक जागरण’ की बातचीत के अंश:


नदी जोड़ परियोजना को आप कितना लाभकारी मानते हैं?


यह योजना भारत के लिए लाभकारी नहीं, हानिकारक है। इससे पर्यावरण का नुकसान होगा और देश की सांस्कृतिक और सामाजिक क्षति भी होगी। यह योजना नदियों का मां का दर्जा छीन लेगी। ये सिर्फ मैला ढोने का जरिया बन जाने को अभिशप्त हो जाएंगी।


इसलिए मेरा मानना है कि नदियों को आपस में जोड़ने की बजाय इन्हें समाज से जोड़ने की जरूरत है। जिस तरह राजस्थान के कुछ इलाकों में लोगों ने नदियों को पुनर्जीवित किया है, वह प्रयोग दूसरे इलाकों में भी दोहराया जाना जरूरी है।


तो क्या आपको लगता है कि यह विशाल परियोजना सिर्फ धन की बर्बादी है?


इस योजना पर सरकार ने 6.8 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बनाई थी। मगर अपने यहां सिंचाई की सभी परियोजनाएं पूरी होते तक दस गुनी लागत तक पहुंच जाती हैं। यह योजना अगर लागू की जाती है तो इसका भी यही अंजाम होगा। इतनी बड़ी लागत के बावजूद इससे देश के आम लोगों का और गरीब जनता का कोई भला नहीं होने वाला। इसके बाद देश का पानी सिर्फ अमीरों के हाथ में चला जाएगा।


इसके बाद जल पूरी तरह बाजार की चीज हो जाएगा। यह पानी के तेजी से हो रहे बाजारीकरण को बहुत तेजी से बढ़ावा देने वाली परियोजना साबित होगी। इस समय देश में पानी का बाजार 28 हजार करोड़ का है। इस परियोजना के पूरा होते ही यह 28 लाख करोड़ का हो जाएगा।


माना जाता है कि जो नदियां दूसरी नदियों से नहीं जुड़ पातीं, आखिरकार नष्ट हो जाती हैं लेकिन यह काम प्रकृति का है। भारत में भी प्रकृति ने यह काम बहुत खूबसूरती से किया है। आप देखिए कि गंगा और यमुना नदियां निकलती हैैं 40 किलोमीटर की दूरी पर। फिर ये 1300 किलोमीटर की यात्रा कर फिर आपस में मिल जाती हैं। अगर इंसान यह काम अपने हाथ में ले लेगा तो यह नदियों का हत्यारा बन जाएगा। उसे नष्ट ही करेगा।


आपकी नजर में सरकार को नदियों में प्राण डालने के लिए सबसे पहले क्या करना चाहिए?


सरकार को मुख्य रूप से तीन कदम तुरंत उठाने चाहिएं। एक तो नदियों की भूमि का उपयोग न बदला जाए। दूसरा नदियों के जल ग्र्रहण क्षेत्र में प्रदूषण को रोके, गंदे नालों को सीधे नदियों में जाने से रोके। जल ग्र्रहण क्षेत्र में जल को सहेजने के काम में समाज को प्रशिक्षित और प्रोत्साहित करे। और तीसरा जरूरी कदम है नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह को बनाए रखना। यह काम सरकार समाज के सहयोग से ही कर सकती है।


जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “सफल प्रयोग” पढ़ने के लिए क्लिक करें.


जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “प्रस्तावित नदी जोड़ परियोजना” पढ़ने के लिए क्लिक करें.


जून को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “…थम न जाए धारा” पढ़ने के लिए क्लिक करें.


साभार : दैनिक जागरण 19 जून 2011 (रविवार)


नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.


नदियों को आपस में जोड़ने वाली महत्वाकांक्षी योजना को भले ही अघोषित तौर पर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया हो लेकिन मानसून की आहट और बाढ़ की विभीषिका से निपटने के लिए बिहार सरकार द्वारा नदी जोड़ परियोजना की शुरुआत ने इस मसले को फिर गरमा दिया है।
देशमें विषम मानसूनी बारिश से कई क्षेत्रों में बाढ़ और सूखे का प्रकोप साथ–साथ होता है। कहीं नदियां अपने उफान पर होती हैं तो किसी नदी में पानी के नाम पर सिर्फ कीचड़ बचा रहता है। इन विसंगतियों को दूर करने के लिए और दुनिया में कई जगह किए गए सफल प्रयोगों के आधार पर एक महत्वाकांक्षी योजना के तहत नदियों को आपस में जोड़ने का प्रस्ताव रखा गया। मसले पर गठित टास्क फोर्स ने अपनी रिपोर्ट में साल 2016 तक इस योजना को पूरा होने की बात कही थी मगर यह परियोजना अभी तक व्यावहारिक अध्ययन तक ही सीमित है।
नदियों
का आपस में जुड़ने का मूल स्वभाव रहा है। इतिहास गवाह है कि जो नदी किसी दूसरी नदी से नहीं जुड़ सकी या उसमें कोई सहायक धारा आकर नहीं मिली तो उसके अस्तित्व पर संकट के बादल गहराने लगे। अपनी नदियों को बचाने के लिए उनका न केवल उन्मुक्त प्रवाह जरूरी है बल्कि स्वभाव के अनुसार नदियों को आपस में जुड़ने या जोड़ने द्वारा उनमें पानी की उपयुक्त मात्रा भी बनाए रखना जरूरी है। देश की विशाल जनसंख्या के भरण–पोषण के लिए खाद्य सुरक्षा को बरकरार रखने और प्रत्येक व्यक्ति को शुद्ध पेयजल मुहैया कराने में ऐसी परियोजनाएं अहम साबित हो सकती हैैं। ऐसे में मानसून के आगमन और वर्षा जल प्रबंधन के तहत बाढ़ के खतरे से निपटने के लिए बिहार सरकार द्वारा नदियों के आपस में जोड़ने की योजना का शुभारंभ बड़ा मुद्दा है।

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बिन नदियां सब सून…
इतिहाससाक्षी है कि जीवन सबसे पहले वहीं पनपा और बढ़ा जहां नदियां रही हैैं। पानी की धारा के साथ वह आगे बढ़ा और उसके सूखने के साथ मुरझाया है। भारत में गंगा, ब्रह्मपुत्र, गोदावरी, महानदी जैसी नदियों ने जीवन को सींचा है। पर दुर्भाग्य है कि इस जीवनदायिनी को हमने कभी सींचने का प्रयास नहीं किया। दस वर्ष पहले नदी जोड़ परियोजना पर एक गंभीर शुरुआत तो की लेकिन वह अध्ययनों तक सीमित रह गई। इस परियोजना पर गठित टास्क फोर्स के अध्यक्ष रहे सुरेश प्रभु का आरोप है कि सरकार पूरे मुद्दे को अटका कर देश की चुनौती बढ़ा रही है।
सत्तर
के दशक में हुई पहल के बाद वर्ष 2002 में सरकारी स्तर पर एक गंभीर प्रयास शुरू हुआ था। राज्यों व विशेषज्ञों के साथ चर्चा शुरू हुई थी। हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों को अलग अलग जोड़ने पर चर्चा छिड़ी थी। वर्षों से सूखे की चपेट में झुलस रहे बुंदेलखंड पर पहली नजर गई थी। केन और बेतवा नदी को जोड़ने की कवायद पूरी हुई होती तो उसका भाग्य बदल जाता। लेकिन सब कुछ फिर से अटक चुका है। बतौर टास्क फोर्स अध्यक्ष पूरे मुद्दे पर व्यापक विचार विमर्श कर चुके सुरेश प्रभु का मानना है कि सब कुछ ठीक चल रहा होता तो देश के सामने आने वाले संकट के खिलाफ तैयारी शुरू हो जाती। चीन का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि 2002 में ही उन्होंने इसके प्रति सरकार को आगाह किया था लेकिन उस पर भी अब तक चुप्पी है। पर्यावरण और पानी को जीवन का सार बताते हुए उन्होंने कहा कि अध्ययन जारी रखने में कोई हानि नहीं है। लेकिन आगे की तैयारी को रोकना भी ठीक नहीं। उन्होंने विशेषकर धरती के बढ़ रहे तापमान को लेकर चेताया। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन को देखते हुए धरती का तापमान दो डिग्री तक बढ़ने की आशंका है। प्रभु ने कहा कि ऐसी स्थिति में अगर पानी का भी संकट हो तो फसल और खासकर गेहूं को नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता। लिहाजा जल प्रबंधन सबसे अहम है और नदी जोड़ परियोजना इसका एक बड़ा पहलू। टास्क फोर्स की रिपोर्ट सरकार के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट को भी सौंपी गई थी। पर्यावरण विशेषज्ञों के पास इस परियोजना के खिलाफ कई तर्क हो सकते हैैं लेकिन इसके फायदे गिनाने वालों की संख्या भी कम नहीं है।
भारतीय
कृषि मानसून की सनक पर आधारित है। ऐसे में पहली नजर कृषि पर थी। परियोजना के समर्थकों का मानना है कि यह उन किसानों के लिए जीवनदायिनी हो सकता है जो कभी सुखाड़ से तो कभी बाढ़ से तबाह होने को मजबूर होते हैैं। दरअसल नदियों के जोड़ने का पहला लाभ होता कि जल से भरी नदियां सहायक नदियों की प्यास बुझाती तो बाढ़ से भी राहत देती।
ऊर्जा
के लिहाज से भी नदी जोड़ परियोजना को अहम माना जा रहा है। कुछ अध्ययनों के अनुसार इस परियोजना से 30 हजार मेगावाट से ज्यादा पनबिजली उत्पादन की क्षमता तैयार हो सकती है। ऊर्जा उत्पादन
क्षमता
को लेकर कुछ संशय जरूर हो सकते हैैं लेकिन इसे नकारना किसी के लिए संभव नहीं होगा। ऊर्जा में पिछड़ रहे देश के लिए परियोजना बड़ी संभावनाओं का भंडार है। नदियां जुड़ी तो इसे आंतरिक परिवहन के रूप में भी देखा जा सकता है।
–आशुतोष झा

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थम न जाए धारा
देशकी जल समस्या के लिए नदी जोड़ने का नुस्खा डेढ़ सौ साल से भी पुराना है, लेकिन इस नुस्खे की पेचीदगियों ने हर बार ऐसी किसी भी कोशिश का रास्ता रोका है। इस कोशिश का सबसे बड़ा अवरोध पर्यावरण को होने वाला नुकसान है।
नदियों
को जोड़ना चाहिए या नहीं, जोड़ें तो कैसे व कितना और किस कीमत पर, ऐसे ढेरों सवाल नदियों के जोड़े जाने की कवायद पर मंडराते रहते हैैं। करीब एक दशक पहले जब राजग सरकार के समय नदियों को जोड़ने की महती परियोजना राष्ट्रपति अभिभाषण का हिस्सा बनी तो इसे लेकर बहस और तेज हो गई। सियासत से अलग जल संसाधन विशेषज्ञों में भी इसे लेकर खासे मतभेद हैैं। यही वजह भी है कि 1972 में तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव की ओर से इस बाबत पहली बार रखे गए औपचारिक प्रस्ताव के बाद से अभी तक केवल उत्तरप्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में केन और बेतवा को जोड़ने की परियोजना ही आगे बढ़ पाई है।
जल
संबंधी मामलों पर सक्रिय साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम, रिवर्स एंड पीपुल के संयोजक हिमांशु ठक्कर कहते हैैं कि नदियों को जोड़ने के विचार से कई गंभीर पारिस्थितिकीय खतरे जुड़े हैैं। इसमें लोगों के विस्थापन से लेकर जंगलों के नष्ट होने तक की चिंता शामिल है जो पर्यावरण के साथ–साथ नदियों को भी खत्म कर सकती है। वहीं नदी क्षेत्र की मिट्टी, भू–जल संचय, स्थानीय पेड़ पौधे, जीव–जंतुओं के वजूद को लेकर भी अनेक प्रश्न हैैं। संसाधन विशेषज्ञ ठक्कर के शब्दों में नदी जोड़ों की पूरी अवधारणा पानी की अधिकता वाले नदी बेसिन को कम पानी वाले नदी बेसिन से जोड़ने की है। लेकिन जल तंत्र में मानसून की महती भूमिका वाले इस मुल्क में जब केन में बाढ़ आएगी तो बेतवा का बहाव भी ज्यादा होगा। ऐसे में अधिक पानी को संभालने के लिए पर्याप्त ड्रेनेज व्यवस्था की कमी मुसीबत ला सकती है। उनके अनुसार भारत में किसी भी नदी के जल प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए कोई व्यवस्था ही नहीं है, जो एक बड़ी समस्या है। ऐसे में बांध या नहर निर्माण से नदी के बाद आगे जा रही धारा में कितना पानी जा रहा है इसके आकलन का भी कोई इंतजाम नहीं है।
इसके
अलावा जानकारों की
चिंता
जहां नदी तंत्र में पाई जाने वाले पादप और जंतु प्रजातियों के
अस्तित्व
को लेकर है वहीं फिक्र इस परियोजना से प्रभावित होने वाले जंगलों से भी जुड़ी है। सवाल लाजिमी है कि गंगा में पाई जाने वाले डॉल्फिन मछलियां क्या गोदावरी के पानी में भी जी पाएंगी?
बिरला
इंस्टीटूयट में प्रोफेसर और जस संसाधन विशेषज्ञ डॉ. एपी सिंह के अनुसार ऐसे किसी विचार पर आगे बढ़ने से पहले बेहद जरूरी है कि देश में नदी जल के हर पहलू का वैज्ञानिक आकलन हो। जिसमें वाष्पीकरण से लेकर भू–जल संभरण व प्रवाह का समाहित किया जाए।
इनके
अनुसार शहरों की आबादी के लिए भी ऐसी परियोजना के साथ तालमेल आसान नहीं होगा। अधिक पानी के साथ जी रही आबादी के लिए अपनी जरूरतों को कम करना और
कम
जल के साथ जीने को अभ्यस्त लोगों के लिए उसे संभालने की
क्षमता
विकसित करने में दिक्कतें
संभव
हैैं। इसके कारण नदी की धारा में अप–स्ट्रीम और डाउन–स्ट्रीम आबादी
के
बीच तनाव भी संभव है। हालांकि उनके मुताबिक रिमोट सेंसिंग तकनीक जैसे आधुनिक संसाधनों और
पर्याप्त
शोध व सावधानी से आगे बढ़ा जाए तो इसके सकारात्मक नतीजे मिल सकते हैैं।
–प्रणय उपाध्याय

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ज्यादा जरूरी है नदियों को लोगों से जोड़ा जाए
जलसंरक्षण के लिए किए गए अपने कामों के लिए मैगसेसे पुरस्कार हासिल करने वाले ‘जल पुरुष’  राजेंद्र सिंह का मानना है कि भारत में नदियों को दूसरी नदियों से नहीं लोगों के दिलों से जोड़ने की
जरूरत
है। प्रस्तुत है उनसे ‘दैनिक जागरण’ की बातचीत के अंश:
नदी
जोड़ परियोजना को आप कितना लाभकारी मानते हैं?
यह
योजना भारत के लिए लाभकारी नहीं, हानिकारक है। इससे पर्यावरण का नुकसान होगा और देश की सांस्कृतिक और सामाजिक क्षति भी होगी। यह योजना नदियों का मां का दर्जा छीन लेगी। ये सिर्फ मैला ढोने का जरिया बन जाने को अभिशप्त हो जाएंगी।
इसलिए
मेरा मानना है कि नदियों को आपस में जोड़ने की बजाय इन्हें समाज से जोड़ने की जरूरत है। जिस तरह राजस्थान के कुछ इलाकों में लोगों ने नदियों को पुनर्जीवित किया है, वह प्रयोग दूसरे इलाकों में भी दोहराया जाना जरूरी है।
तो
क्या आपको लगता है कि यह विशाल परियोजना सिर्फ धन की बर्बादी है?
इस
योजना पर सरकार ने 6.8 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बनाई थी। मगर अपने यहां सिंचाई की सभी परियोजनाएं पूरी होते तक दस गुनी लागत तक पहुंच जाती हैं। यह योजना अगर लागू की जाती है तो इसका भी यही अंजाम होगा। इतनी बड़ी लागत के बावजूद इससे देश के आम लोगों का और गरीब जनता का कोई भला नहीं होने वाला। इसके बाद देश का पानी सिर्फ अमीरों के हाथ में चला जाएगा।
इसके
बाद जल पूरी तरह बाजार की चीज हो जाएगा। यह पानी के तेजी से हो रहे बाजारीकरण को बहुत तेजी से बढ़ावा देने वाली परियोजना साबित होगी। इस समय देश में पानी का बाजार 28 हजार करोड़ का है। इस परियोजना के पूरा होते ही यह 28 लाख करोड़ का हो जाएगा।
माना
जाता है कि जो नदियां दूसरी नदियों से नहीं जुड़ पातीं, आखिरकार नष्ट हो जाती हैं…
लेकिन
यह काम प्रकृति का है। भारत में भी प्रकृति ने यह काम बहुत खूबसूरती से किया है। आप देखिए कि गंगा और यमुना नदियां निकलती हैैं 40 किलोमीटर की दूरी पर। फिर ये 1300 किलोमीटर की यात्रा कर फिर आपस में मिल जाती हैैं। अगर इंसान यह काम अपने हाथ में ले लेगा तो यह नदियों का हत्यारा बन जाएगा। उसे नष्ट ही करेगा।
आपकी
नजर में सरकार को नदियों में प्राण डालने के लिए सबसे पहले क्या करना चाहिए?
सरकार
को मुख्य रूप से तीन कदम तुरंत उठाने चाहिएं। एक तो नदियों की भूमि का उपयोग न बदला जाए। दूसरा नदियों के जल ग्र्रहण क्षेत्र में प्रदूषण को रोके, गंदे नालों को सीधे नदियों में जाने से रोके। जल ग्र्रहण क्षेत्र में जल को सहेजने के काम में समाज को प्रशिक्षित और प्रोत्साहित करे। और तीसरा जरूरी कदम है नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह को बनाए रखना। यह काम सरकार समाज के सहयोग से ही कर सकती है।

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प्रस्तावित नदी जोड़ परियोजना
एनडब्लूडीएके नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान के तहत हिमालयी और प्रायद्वीपीय क्षेत्र की चिह्नित नदियों एवं स्थानों को कुल 30 नहरों द्वारा आपस में जोड़ा जाना है। इनमें हिमालयी क्षेत्र में 14 और प्रायद्वीपीय क्षेत्र में 16 संयोजक नहरें शामिल हैैं
आनुमानित
लागत: इस परियोजना की 2002 में आनुमानित लागत 5 लाख 60 हजार करोड़ रुपये थी। इसमें 16000 करोड़ हर साल के हिसाब से 35 साल तक खर्च किया जाना था। एक दूसरे अनुमान के मुताबिक इस परियोजना में कुल खर्च 5 लाख 56 हजार करोड़ रुपये है। इसमें 3 लाख 30 हजार करोड़ रुपये हिमालयी और प्रायद्वीपीय क्षेत्र की नदियों को आपस में जोड़ने की लागत है
परियोजना
की वर्तमान स्थिति: एनडब्लूडीए तीस अंतरराज्यीय नदी जोड़ (हिमालय भाग की 14 और प्रायद्वीपीय हिस्से की 16) बनाने के लिए व्यवहारिक रिपोर्ट (एफआर) तैयार कर रहा है। इनमें से प्रायद्वीपीय भाग की 14 और हिमालय के 2 लिंक की रिपोर्ट तैयार हो चुकी है
प्रायद्वीपीय
भाग की पांच अंतरराज्यीय नदी जोड़ सरकार की प्राथमिकता सूची में शामिल हैं। इनमें केन–बेतवा, पार्वती–कालीसिंध–चंबल दमनगंगा–पिंजल, पार–तापी–नर्मदा, एवं गोदावरी (पोलावरम)-कृष्णा (विजयवाड़ा) नदी जोड़ से संबंधित विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार की जा रही है
ङ्क्तकेन
बेतवा नदी जोड़ प्रोजेक्ट का डीपीआर तैयार हो गया है। उसको उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकार के पास विचार के लिए भेजा गया है। इसके अलावा पार–तापी–नर्मदा और दमनगंगा–पिंजल से संबंधित डीपीआर दिसंबर 2011 तक तैयार हो जाने की संभावना है
ङ्क्तगोदावरी
(पोलावरम)-कृष्णा (विजयवाड़ा) नदी जोड़ के लिए योजना आयोग ने निवेश की अनुमति प्रदान कर दी है
ङ्क्तएनडब्ल्यूडीए
को सात राज्यों महाराष्ट्र, गुजरात, झारखंड, उड़ीसा, बिहार, राजस्थान और तमिलनाडु से 36 अंतरराज्यीय नदी जोड़ के लिए प्रस्ताव मिले हैं। उनमें से 12 प्रोजेक्ट की पूर्व व्यावहारिक रिपोर्ट (प्री–एफआर) का काम एनडब्ल्यूडीए ने पूरा कर लिया है।
हिमालयी
क्षेत्र की संयोजक नहरें
1. कोसी–मेकी
2. कोसी–घाघरा
3. गंडक–गंगा
4. घाघरा–यमुना
5. शारदा–यमुना
6. यमुना–राजस्थान
7. राजस्थान–साबरमती
8. चुनार–सोन बैराज
9. सोन बांध–गंगा की दक्षिणी सहायक नदियां
10. ब्रह्मपुत्र–गंगा (मानस–संकोश–तीस्ता–गंगा)
11. ब्रह्मपुत्र–गंगा(जोगीगोपा–तीस्ता–फरक्का)
12. फरक्का–सुंदरवन
13. फरक्का–दामोदर–सुवर्णरेखा
14. सुवर्णरेखा–महानदी
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प्रायद्वीपीय
क्षेत्र की संयोजक नहरें:
1. महानदी (मणिभद्रा)-गोदावरी (दौलाईस्वरम)
2. गोदावरी (इंचमपाली)-कृष्णा (नागार्जुन सागर)
3. गोदावरी (इंचमपाली लो डैम)-कृष्णा (नागार्जुन टेल पॉंड)
4. गोदावरी (पोलावरम)-कृष्णा (विजयवाड़ा)
5. कृष्णा (अलमाटी)-पेन्नार
6. कृष्णा (श्रीसैलम)-पेन्नार (प्रोडात्तुर)
7. कृष्णा (नागार्जुन सागर)-पेन्नार (स्वर्णशिला)
8. पेन्नार (स्वर्णशिला)-कावेरी (ग्र्रांड आर्नीकट)
9. कावेरी (कट्टई)- वईगई–गुंडुर
10. केन–बेतवा लिंक
11. पार्वती–काली सिंध–चंबल
12. पार–तापी–नर्वदा
13. दमनगंगा–पिंजाल
14. वेदती–वरदा
15. नेत्रावती–हेमावती
16. पम्बा–अचनकोविल–वप्पार

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प्रदेशों की पीड़ा
झारखंड
राज्य
में तीस के करीब छोटी–बड़ी नदियां हैं। इनमें से कई मौसमी हैं जो गर्मी आते–आते सूख जाती हैं। कुछ नदियों में सालों भर पानी जमा रहता है। यह देश का पहला राज्य है जिसने अंतरराज्जीय नदियों को जोड़ने की योजना तैयार की थी। योजना का मोटा–मोटा खाका सरकार के जल संसाधन विभाग ने खींच रखा है। पर अभी इसे कई स्तरों से गुजरना है। डीपीआर की तैयारी के अलावा इस पर केंद्र सरकार से राय मशविरा करने के बाद पड़ोसी राज्यों की भी सहमति लेनी है। संबंधित अधिकारी के अनुसार यदि इसके डीपीआर पर आज काम शुरू किया जाए तो इसे पूरा होने में कम से कम दो साल लगेंगे।
हरियाणा

राज्य
में नदियों को जोड़ने की कोई परियोजना कभी नहीं बनी। इतना जरूर है कि पंजाब व हरियाणा अलग–अलग सूबे बनने के बाद जल बंटवारे का विवाद बरसों से चल रहा है। पंजाब से हरियाणा के हिस्से का पानी लेने के लिए सतलुज यमुना जोड़ नहर (एसवाईएल) की योजना बनी। पर यह नदी आधी अधूरी है। पंजाब व हरियाणा में विवाद चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट हरियाणा के हक में फैसला दे चुका है पर अब मामला राष्ट्रपति के पास है। 2005 में हरियाणा सरकार ने राज्य में मौजूदा पानी के बंटवारे के लिए हांसी
बुटाना
नहर बनाई। नहर पूरी हो चुकी है पर इस पर पंजाब और राजस्थान सरकार के कई
एतराज
है। यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट में है।
उत्तराखंड

टिहरी
बांध की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के मद्देनजर केंद्र की राजग सरकार के कार्यकाल में अलकनंदा का पानी भागीरथी में डालने का प्रस्ताव जरूर था, लेकिन बाद में यह ठंडे बस्ते में चला गया। वैसे जानकारों का कहना है कि विषम परिस्थितियों वाले उत्तराखंड में यदि नदी जोड़ परियोजना शुरू होने पर यह मुसीबत का सबब बन सकती है। विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तराखंड में जैसी विषम भौगोलिक स्थितियां हैं, उनमें नदियों को आपस में जोड़ना किसी भी तरह हित में नहीं होगा। नदी बचाओ आंदोलन के प्रमुख सुरेश भाई के मुताबिक नदियों को आपस में जोड़ने के लिए पहाड़ों में सुरंगें बनानी होंगी, जो किसी भी दशा में यहां के हित में नहीं होगा। फिर पहाड़ तो पहले ही तमाम समस्याओं से जूझ रहा है, ऐसे में नदियों को जोड़ने से एक और मुसीबत सामने आ सकती है।
बिहार

नदियों
को जोड़ने के लिए पांच योजनाओं का विस्तृत परियोजना प्रतिवेदन तैयार किया जा रहा है। इसमें एक योजना का विस्तृत परियोजना प्रतिवेदन तैयार हो गया है। योजना के तहत नवादा जिले में सकरी नदी पर बकसोती के समीप बैराज का निर्माण होगा और नाटा नदी पर निर्मित वीयर के स्थान पर बैराज का निर्माण कर सकरी नदी को नाटा नदी से जोड़ दिया जायेगा। सकरी व नाटा नदी के जुड़ने से सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हो सकेगा। केन्द्रीय जल आयोग की सहमति प्राप्त होने के बाद इसे योजना आयोग को भेजा जायेगा। वर्तमान गंडक नहर प्रणाली में जल संवद्र्धन के लिए बूढ़ी गंडक व बाया नदी जल का अंतरण व गंडक नदी पर अरेराज के समीप गंडक योजना चरण दो के अन्तर्गत एक दूसरे बैराज का निर्माण किया जाना है। इसका डीपीआर तैयार हो रहा है। इसी प्रकार बागमती बहुउद्देश्यीय योजना में दो चरणों में कोसी नदी से जल हस्तांतरण के साथ इसके प्रथम चरण में भारत–नेपाल सीमा पर ढेंग के समीप बैराज निर्माण, मोकामा टाल में जल निस्सरण व आर्थिक विकास के लिए जल का उत्तम उपयोग व नवादा जिले में धनारजै जलाशय व फुलवरिया नहर प्रणाली को एक दूसरे से जोड़कर पानी की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए डीपीआर तैयार हो रहा है। अन्य 12 योजनाओं का भी डीपीआर तैयार किया जायेगा। उत्तर बिहार में बाढ़ की विनाशलीला को कम करने के लिए अधिक पानी वाली नदी का पानी कम पानी वाली नदी में अंतरण कर दिया जायेगा।

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सफल प्रयोग
अंतरबेसिन जल स्थानांतरण द्वारा सिंचाई, बाढ़ की रोकथाम और जल प्रबंधन के प्रयास इससे पहले भी किए गए हैं। देश और विदेश में ऐसे सफल प्रयोगों द्वारा जनजनित समस्याओं को दूर करके खुशहाल जीवन जिया जा रहा है
पेरियार प्रोजेक्ट: 19वीं सदी का यह एक प्रमुख प्रोजेक्ट था। इसमें पेरियार बेसिन के पानी को वैगेई बेसिन में स्थानांतरित किया गया। शुरुआत में इसके उपयोग से 57,923 हेक्टेयर भूमि में सिंचाई की जा सकी। बाद में इसका विस्तार करते हुए 81,069 हेक्टेयर भूमि तक सिंचाई की सुविधा पहुंचाई गई। इस पर एक 140 मेगावाट क्षमता का एक बिजली घर भी है
करनूल–कुडप्पा नहर: इस परियोजना के तहत कृष्णा बेसिन से पेन्नार बेसिन तक जल पहुंचाया जाता है। इससे करीब 52,746 हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई की जाती है
परम्बीकुलम अलियर: यह प्रोजेक्ट चेलाकुडी बेसिन से पानी को भरतपुरा और कावेरी बेसिन तक पहुंचाता है। ये पानी अंतिम रूप से तमिलनाडु के कोयंबटूर और केरल के चित्तूर जिले के सूखा प्रभावित क्षेत्रों में पहुंचता है
तेलुगु–गंगा प्रोजेक्ट: इस प्रोजेक्ट के माध्यम से चेन्नई मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र की जरूरतों को पूरा किया जा रहा है। इसमें कृष्णा नदी के जल को श्रीसैलम जलाशय के सहारे एक नहर द्वारा पहुंचाया जाता है। यह प्रोजेक्ट महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के सहयोग से ही संभव हो सका है
रावी–व्यास–सतलुज–इंदिरा गांधी नहर प्रोजेक्ट: विशेष रूप से राजस्थान के थार इलाके के लिए शुरू किया गया यह प्रोजेक्ट इस बात का प्रतीक है कि किस प्रकार बडे़ अंतरबेसिन के स्थानांतरण द्वारा किसी बड़े क्षेत्र की सामाजिक–आर्थिक समृद्धि के साथ वहां के पर्यावरण को भी लाभ मिलता है
अमेरिका: कैलीफोर्निया स्टेट वाटर प्रोजेक्ट द्वारा इस राज्य के उत्तरी हिस्से से 4 क्यूबिक किमी जल का प्रवाह मध्य और दक्षिणी हिस्से में 1973 से किया जा रहा है। टेक्सास और न्यू मेक्सिको में जल के पुर्नवितरण के लिए टेक्सास वाटर प्लान पर काम चल रहा है। यह 2020 की जरूरतों को पूरा करने में मददगार साबित होगा। इसी तरह कोलोराडो नदी के पानी की स्थानांतरित किया जा रहा है
कनाडा: केमानो, चर्चिल डायवर्जन, जेम्स बे, चर्चिल फाल्स जैसे कई अंतरबेसिन जल स्थानांतरण यहां मौजूद हैं। इसके अलावा कई परियोजनाओं मसलन ओगोकी और लांग लेक जैसे प्रोजेक्ट के प्लान पर काम हो रहा है

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