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प्रधानमंत्री जी ने कहा कि गंगा को बचाने के लिए अब बहुत कम समय रह गया है। समय तो पूरे भारत के पानी के पास भी कम ही है। भारत की जीडीपी भी कम होने लगी है और तपिश बढ़ने से पहले ही नल और कुएं का पानी भी। भोपाल में फरवरी से ही टैंकर पानी पहुंचाने लगे हैं। इंदौर में रोज पानी को लेकर विवाद हो रहे हैं। मुंबई की जलापूर्ति में मार्च से ही 15-20 प्रतिशत कटौती शुरू हो गई है। कोलकाता के 49 वार्ड साफ पानी नहीं पा रहे। चेन्नईवासी पानी पर रोज 50 लाख खर्च कर रहे हैं। लखनऊ करोड़ों लीटर भूजल निकालने के बावजूद पानी-पानी चिल्ला रहा है। 2021 तक दिल्ली को प्रतिदिन दो अरब गैलन पानी चाहिए होगा। मात्र नौ साल बाद इतना पानी कहां से आयेगा? यह चिंता अभी से सता रही है।
समस्या सिर्फ शहरी नहीं है और कारण सिर्फ बाजार नहीं। पिछले 50 साल में हिमालयी ग्लेशियरों का रकबा एक चौथाई घट गया है। सबसे अधिक बांधों वाले महाराष्ट्र की 187 नदियां नाला बन गई हैं। उनका मात्र 2.07 फीसद पानी ही पीने योग्य बचा है। दूसरी तरफ देश में पानी की प्रति व्यक्ति खपत हर 20 वर्ष में दोगुनी होती जा रही है। खपत बढ़ने के कारण 65 प्रतिशत उद्योग अभी ही पानी के संकट से जूझ रहे हैं। आधुनिक खेती, उद्योगों में प्रयुक्त नई तकनीक, आधुनिक स्वच्छता प्रणाली, एक्सप्रेस वे और इंडस्ट्रियल कॉरीडोर इस खपत और संकट दोनों को और बढ़ाएंगे।
कारण इस बात का भी समझना होगा कि चेरापूंजी सर्वाधिक बारिश वाला होकर भी प्यासा क्यों है? 950 मिमी वर्षा के बावजूद बुंदेलखंड में आत्महत्याएं क्यों हुई और जैसलमेर 50 से 100 मिमी वर्षा के बावजूद जिंदा कैसे रहता है? इस विरोधाभास का कारण भारत के परंपरागत जलप्रबंधन और आधुनिक व्यावसायिक जलदर्शन के बीच बढ़ता विरोधाभास भी है और वही संकट की असल वजह भी।
प्रश्न उठ सकता है कि जिस देश के धौलीवीरा, जूनागढ़, शृंगबेरपुर (इलाहाबाद) में प्राचीन जल संरक्षण प्रणाली के निशान अभी भी मौजूद हैं, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, कल्हण की राजतरंगिणी से लेकर बूंदों की संस्कृति बताने वाला साहित्य मौजूद हो, ताल-पाल-झाल-चाल जैसे परंपरागत जलप्रबंधन के तमाम ढ़ाचे दिशानिर्देशित कर रहे हों, उस देश का पानी रास्ता भटक कैसे गया?
दरअसल जिस दिन से पानी और जंगल सरकारी हुए, उसी दिन से लोगों ने इन्हें पराया मान लिया। जाति-धर्म-आरक्षण की राजनीति ने समाज का साझा तोड़ा। इसी के साथ पानी की पाले भी टूट गईं और उपयोग का अनुशासन भी। समाज हर काम के लिए नेता और प्रशासन की ओर ताकने लगा। अब सरकार ने एलान कर दिया है कि जिसकी भूमि, उसका भूजल नहीं चलेगा। भूजल की यह नई नीति और नदी-सरकार-बाजार के नए जोड़ समाज को पानी से और दूर करेंगे। संकट और गहराएगा। समाधान तभी होगा, जब सुप्त समाज फिर जागेगा। कम पानी की खेती, अनुशासन वाली जीवनशैली अपनाएगा।
बाजारीकरण की साजिश!
गरीब से गरीब देश भी यदि पानी को ‘सेवा के मुक्त व्यापार’ हेतु खोलने की शर्त न माने, तो ऐसे देशों को कर्ज व सहायता बंद कर दो। पानी की गुणवत्ता घटाओ भी और उसके प्रति संदेह भी पैदा करो। जिससे स्वच्छ जल की मांग बढ़े। फिर प्रचारित करो कि सरकारी तंत्र स्वच्छ जलापूर्ति में अक्षम है। कंपनियां सर्वश्रेष्ठ हैं। इस बहाने पानी के स्नोतों पर कब्जा करो। जल सुधार के नाम पर जल का नियमन कराओ। सार्वजनिक नल हटाओ। भूजल को लाइसेंस के दायरे में लाओ। फिर मनचाही कीमतें बढ़ाओ। कुछ भी करो। अंतत: प्यासे को बाजारम् शरण गच्छाामि पर विवश कर दो। यही हैं पानी के बाजार को बढ़ाने की अंतरराष्ट्रीय व्यावसायिक सहमतियां।
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