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जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव

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जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव

हमारे शहरों में पानी की मांग तेजी से बढ़ रही हैं। तेजी से बढ़ती हुई शहरी जनसंख्या का गला तर करने के लिए हमारी नगरपालिकाएं आदतन कई किमी दूर अपनी सीमा से परे जाकर पानी खींचने का प्रयास कर रही हैं। लेकिन हमारी समझ में यह नहीं आता है कि आखिर सैकड़ों किमी दूर से पानी खींचने का यह पागलपन क्यों किया जा रहा है? इसका प्रमुख कारण हमारे शहरी प्लानर, इंजीनियर, बिल्डर और आर्किटेक्ट हैं जिन्हें कभी नहीं बताया जाता कि कैसे सुलभ पानी को पकड़ा जाए। उन्हें अपने शहर के जल निकायों की अहमियत को समझना चाहिए। इसकी जगह वे लोग जल निकायों की बेशकीमती जमीन को देखते हैं, जिससे जल स्नोत या तो कूड़े-करकट या फिर मलवे में दबकर खत्म हो जाते हैं।


देश के सभी शहर कभी अपने जल स्नोतों के लिए जाने जाते थे। टैंकों, झीलों, बावली और वर्षा जल को संचित करने वाली इन जल संरचनाओं से पानी को लेकर उस शहर के आचार विचार और व्यवहार का पता लगता था। लेकिन आज हम धरती के जलवाही स्तर को चोट पहुंचा रहे हैं।  किसी को पता नहीं है कि हम कितनी मात्रा में भू जल का दोहन कर रहे हैं। यह सभी को मालूम होना चाहिए कि भू जल संसाधन एक बैंक की तरह होता है। जितना हम निकालते हैं उतना उसमें डालना (रिचार्ज) भी पड़ता है। इसलिए हमें पानी की प्रत्येक बूंद का हिसाब-किताब रखना होगा।


1980 के शुरुआती वर्षों से सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट रेनवाटर हार्वेस्टिंग संकल्पना की तरफदारी कर रहा है। इसे एक अभियान का रूप देने से ही लोगों और नीति-नियंताओं की तरफ इसका ध्यान गया। देश के कई शहरों ने नगरपालिका कानूनों में बदलाव कर रेनवाटर हार्वेस्टिंग को आवश्यक कर दिया। हालांकि अभी चेन्नई ही एकमात्र ऐसा शहर है जिसने रेनवाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली को कारगर रूप से लागू किया है।


2003 में तमिलनाडु ने एक अध्यादेश पारित करके शहर के सभी भवनों के लिए इसे जरूरी बना दिया। यह कानून ठीक उस समय बना जब चेन्नई शहर भयावह जल संकट के दौर से गुजर रहा था। सूखे के हालात और सार्वजनिक एजेंसियों से दूर हुए पानी ने लोगों को उनके घर के पीछे कुओं में रेनवाटर संचित करने की अहमियत समझ में आई।


यदि किसी शहर की जलापूर्ति के लिए रेनवाटर हार्वेस्टिंग मुख्य विकल्प हो, तो यह केवल मकानों के छतों के पानी को ही संचित करने तक ही नहीं सीमित होना चाहिए। वहां के झीलों और तालाबों कासंरक्षण भी आवश्यक रूप से किया जाना चाहिए। वर्तमान में इन संरचनाओं को बिल्डर्स और प्रदूषण से समान रूप में खतरा है। बिल्डर्स अवैध तरीके से इन पर कब्जे का मंसूबा पाले रहते हैं वहीं प्रदूषण इनकी मंशा को सफल बनाने की भूमिका अदा करता है।


इस मामले में सभी को रास्ता दिखाने वाला चेन्नई शहर समुद्र से महंगे पानी के फेर में कैद है। अब यह वर्षा जल की कीमत नहीं समझना चाहता है। अन्य कई शहरों की तर्ज पर यह भी सैकड़ों किमी दूर से पानी लाकर अपना गला तर करना चाह रहा है। भविष्य में ऐसी योजना शहर और देश के लिए महंगी साबित होगी।

लेखिका सुनीता नारायण (प्रमुख, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट)

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दृढ़ इच्छाशक्ति से ही निकलेगा समाधान

घोर जल संकट चिंता का विषय है। आखिर करें तो क्या करें। वर्षा जल संचय का मतलब बरसात के पानी को एकत्र करके जमीन में वापस ले जाया जाए। 28 जुलाई 2001 को दिल्ली के लिए तपस की याचिका पर अदालत ने 100 वर्गमीटर प्लॉट पर रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम (आरडब्ल्यूएच) अनिवार्य कर दिया। उसके बाद फ्लाईओवर और सड़कों पर 2005 में इस प्रणाली को लगाना जरूरी बनाया गया। लेकिन हकीकत में कोई सामाजिक संस्था इसको लागू करने के लिए खुद को जिम्मेदार नहीं मानती है।


सीजीडब्ल्यूए को नोडल एजेंसी बनाया गया था लेकिन उनके पास कर्मचारी और इच्छाशक्ति में कमी है। इस संस्था ने अधिसूचना जारी करने और कुछ आरडब्ल्यूएच के डिजाइन देने के अलावा कुछ नहीं किया है। एमसीडी, एनडीएमसी के पास इस बारे में तकनीकी ज्ञान नहीं है। दिल्ली जलबोर्ड में इच्छाशक्ति की कमी है। वे सीजीडब्ल्यूए को दोष देकर अपनी खानापूर्ति करते हैं।


हमारे पूर्वजों ने बावड़ियां बनवाई थी। तालाब बनवाए थे। जिन्हें कुदरती रूप से आरडब्ल्यूएच के लिए इस्तेमाल किया जाता था। सरकार चाहे तो इनसे सीख ले सकती है। आज 12 साल बाद भी सरकार के पास रेनवाटर हार्वेस्टिंग को लेकर कोई ठोस आंकड़ा नहीं उपलब्ध है। सरकार को नहीं पता है कि कितनी जगह ऐसी प्रणाली काम कर रही है। केवल कुछ आर्थिक सहायता देने से ये कहानी आगे नहीं बढ़ेगी। इच्छाशक्ति होगी तो रास्ता भी आगे निकल आएगा। किसी एक संस्था को जिम्मेदार बनाना पड़ेगा और कानून को सख्त करने की जरूरत होगी। एक ऐसी एजेंसी अनिवार्य रूप से बनाई जानी चाहिए जहां से जनता रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम से जुड़ी सभी जानकारियां ले सके। जागरूकता ही सफलता हासिल होगी।


लेखक वीके जैन (चेयरमैन, तपस- गैर सरकारी संगठन)


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