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चुनाव: पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव की तपिश से सियासत का पारा सातवें आसमान पहुंच गया है। ये चुनाव इस लिहाज से बेहद अहम हैं क्योंकि ये देश में वामपंथी राजनीति की दशा-दिशा तय करने जा रहे हैं.
चर्चा: सबसे अधिक चर्चा पश्चिम बंगाल और केरल में सत्तासीन वाममोर्चा मोर्चा सरकारों के भविष्य पर हो रही है। दरअसल इन चुनावों के बहाने वाममोर्चा की सरकारें अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती दिख रही हैं.
लाल दुर्ग: पिछले 34 बरस से सत्ता का सुख भोग रही पं बंगाल की वाममोर्चा सरकार का सिंहासन ममता बनर्जी की आंधी के कारण डोल रहा है। हालांकि अपनी साख बचाने के लिए वाममोर्चा ने भी पूरी ताकत झोंक दी है.
दरकती दीवारें: लाल दुर्ग की दरकती दीवारों के संबंध में राजनीतिक विश्लेषकों का सटीक आकलन न सिर्फ वाम नेताओं के लिए आत्मचिंतन का विषय है बल्कि राष्ट्रीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में आमजन के लिए भी बड़ा मुद्दा है.
प.बंगाल में ममता बनर्जी की ताजपोशी तो वामपंथियों को भी दीवार पर लिखी इबारत नजर आ रही है। वामपंथी काडर अभी यह मानने को तैयार नहीं है, लेकिन उनके थिंकटैंक को बदलते वक्त की करवट का अहसास साफ है। वाममोर्चा की सबसे बड़ी पार्टी माकपा के महासचिव प्रकाश करात के बयानों से भी यह स्पष्ट हो रहा है। वह लगातार कह रहे हैं कि केरल में वाममोर्चा अच्छा प्रदर्शन करेगा, लेकिन पश्चिम बंगाल का नाम एक बार भी नहीं ले रहे। जाहिर है ममता के तूफान के सामने 34 साल पुराना किला वह बचा पाएंगे, इसका भरोसा उन्हें खुद ही नहीं है। तो क्या इस हड़बड़ी का मतलब है कि पश्चिम बंगाल में वामपंथी युग समाप्त हो रहा है? अगर ऐसा हुआ तो पूरे देश में वामपंथियों की बौद्धिक और राजनीतिक ताकत का भी अवसान समीप है?
वामपंथी बुद्धिजीवी और उनके बड़े नेताओं के नजरिये से देखें तो वह पश्चिम बंगाल में बदले समीकरणों के दूरगामी परिणाम देख रहे हैं, लेकिन इतने नकारात्मक नहीं। हालांकि, लगातार सत्ता में रहने की आदी हो चुकी वामपंथी पीढ़ी के एक वर्ग को चिंता है कि कहीं, उसकी बौद्धिक विरासत और वैचारिक ताकत भी सत्ता विरोधी लहरें नेस्तनाबूद न कर दें। मगर यह सोचने वाले नेता या वर्ग बेहद कम हैं। उनकी चिंता केरल बनाम पश्चिम बंगाल वामपंथी राजनीति के और ज्यादा बढ़ने और शीर्ष नेतृत्व पर संघर्ष बढ़ने को लेकर ज्यादा है। हालांकि, इस पराभव में वे एक बार फिर से संगठन के नए सिरे से खड़े होने और नए अवतार में आने की संभावनाएं भी देख रहे हैं।
दरअसल, कांग्रेस की सरकारें रही हों या फिर तीसरे मोर्चे की, सभी में वामपंथी प्रभुत्व कम या ज्यादा जरूर रहा। राजग शासन को छोड़ दें तो लंबे अरसे बाद ऐसा हुआ है कि मौजूदा केंद्र सरकार यानी संप्रग दो में वामपंथी न सिर्फ बाहर हैं, बल्कि बिल्कुल अलग-थलग हैं। वहीं, पिछले कार्यकाल में वामपंथी पिछली सीट से सरकार को रिमोट से चलाते थे। एकदम से बदले इस राजनीतिक परिदृश्य के बाद वामपंथियों की कलह सतह पर आ चुकी है। ऐसे में पश्चिम बंगाल का शक्ति केंद्र जाने के बाद पूरा वामपंथी ढांचा ढहने के कयास लगाना लाजिमी है, लेकिन वामपंथी विचारक इस ‘विध्वंस में भी सृजन’ देख रहे हैं।
पहले बात करें पश्चिम बंगाल और राष्ट्रीय स्तर के वामपंथी नेताओं की। बड़े नेताओं का वर्ग मान रहा है कि अगर पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा हारा तो इसमें नुकसान कम, बल्कि फायदा ज्यादा हैं। वास्तव में इसी सोच के मद्देनजर, पश्चिम बंगाल के चुनाव में वामपंथियों ने अपने 9 मंत्रियों समेत 149 विधायकों को दोबारा टिकट नहीं दिया है। बुद्धदेव भट्टाचार्य जब 2006 में दोबारा पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने थे तो वामपंथी राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अनिल विश्वास ने उसी समय नई पीढ़ी को आगे लाने की जमीन तैयार करनी शुरू कर दी थी। वास्तव में इस संकटकाल में वाममोर्चा नेतृत्व ने नए चेहरों को टिकट देकर 2016 के चुनाव की तैयारी अभी से शुरू कर दी है। इस दफा के नतीजों को लेकर आशंकित मोर्चा अब आगे की ओर देख रहा है।
उसकी सबसे बड़ी चिंता साढ़े तीन दशक तक सत्ता में रहने के दौरान काडर के निरंकुश हो जाने की है। उसे सत्ता में बाहर रहने से वसूली करने वाले इन गुंडा तत्वों से निजात मिलने की संभावना है। इसके अलावा ममता ने वाममोर्चे को बेदखल करने के लिए उनके ही पैदा किए हुए भस्मासुरों यानी माओवादियों से हाथ मिलाया है, उसका न सिर्फ पश्चिम बंगाल की बल्कि भारतीय राजनीति पर भी असर पड़ना तय है। खैर ममता के शासन के साथ जो आशंकाएं जुड़ी हैं, उसके सही या गलत साबित होने के लिए पहले चुनावी नतीजों का और फिर कुछ दिन उनके पश्चिम बंगाल में रहने का इंतजार करना होगा। सबसे ज्यादा दिलचस्प यह देखना होगा कि वामपंथी 34 साल की सत्ता विरोधी लहर का सामना कैसे करते हैं और यदि वे बाहर हुए तो दोबारा पैरों पर खड़े हो सकेंगे या नहीं? यदि खड़े हो सके तो क्या अपनी विचारधारा को नए तेवरों और बदलते समय के लिहाज से तैयार कर सकेंगे।
गैरकांग्रेसवाद का बुलंद नारा
पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा और केंद्र में कांग्र्रेस की सरकार। इंदिरा गांधी के जमाने से ही वामपंथियों और कांग्रेस के बीच की यह केमेस्ट्री संप्रग-एक के शासनकाल तक चलती रही। गैरकांग्रेसवाद के नाम पर वाममोर्चा राष्ट्रीय राजनीति की धुरी में यदा-कदा मुखर हुआ तो भाजपा के आविर्भाव ने उसे फिर पीछे धकेल दिया। सांप्रदायिकता के विरोध के नाम पर कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच खट्टे-मीठे संबंध चलते ही रहे। अमेरिका के साथ परमाणु करार के मुद्दे पर वामपंथियों और कांग्रेस के बीच पैदा हुई कटुता पहली बार इतने चरम पर है।
इसीलिए, ममता बनर्जी के हाथों जगह-जगह जलील होने के बावजूद कांग्रेस की पहली वरीयता पश्चिम बंगाल से वाममोर्चा शासन को धराशायी करना है। इससे एक बात तो तय है कि पश्चिम बंगाल के नतीजे चाहे जो हों, लेकिन वामपंथी और दक्षिणपंथी सभी खेमों से अलग-अलग ही सही, लेकिन गैरकांग्रेसवाद का नारा और बुलंद होना तय है। संप्रग-दो के शासन में आने के बाद से संसद में वामपंथी और भाजपाई अलग-अलग फोरम से ही सही, लेकिन एक ही सुर में बोले। वास्तव में इस एकता के पीछे मुख्य फैक्टर गैरकांग्र्रेसवाद ही था। यदि वाममोर्चा परास्त होता है तो जाहिर तौर पर उसके पास इस नारे पर बढ़ने के अलावा और कोई चारा नहीं रहेगा। – (जागरण ब्यूरो)
हमें सत्ता से बेदखल करना आसान नहीं – अतुल अनजान (भाकपा के राष्ट्रीय सचिव)
वामपंथी दलों ने पश्चिम बंगाल में जन आंदोलन के जरिये 34 सालों तक निर्बाध शासन किया है। जनता के इस भरोसे की कुछ तो वजह होगी। अल्प संसाधनों में रहने वाले विधायक सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही मिलेंगे। इतने लंबे समय तक शासन में रहने वाले वाम मोर्चा सरकार में भ्रष्टाचार का एक भी मामला ढूंढें नहीं मिलेगा। स्पष्ट विचारधारा व सिद्धांतों वाली वाममोर्चा सरकार के चलते ही पश्चिम बंगाल सांप्रदायिक सौहाद्र्र की मिसाल रहा है। बांग्लादेश की 1640 किमी लंबी खुली सीमा के बाद भी आतंकवादी घुसपैठ की घटनाएं नहीं हुईं। भूमि सुधार और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाया गया। लेकिन, 1977 के बाद पैदा हुई युवा पीढ़ी कांग्रेस के पुराने गुनाहों से नावाकिफ है। उनमें बदलाव की इच्छा जरूर पैदा हुई है। लेकिन साथ ही ऐसा युवा वर्ग भी हैं जो हमारी विचारधारा का पक्का समर्थक है। पं बंगाल में सारी शक्तियां मिलकर वाममोर्चा के खिलाफ एकजुट हो गई हैं। लेकिन वाममोर्चा को सत्ता से हटाना इतना आसान नहीं होगा। इन अवसरवादी ताकतों को लोकतांत्रिक तरीके से वामपंथी दल जवाब देंगे। बंगाल की जनता वामपंथी दलों की खामियों व खूबियों से परिचित है। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी के क्या सिद्धांत हैं? वह पहले भाजपा के साथ थी तो अब कांग्रेस के साथ हैं। केंद्रीय मंत्री के रुप में उनके कार्यो को पूरा देश जानता है। हमारी सरकार को सिंगुर व नंदीग्राम की घटना ने बदनाम किया है। दरअसल राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय वामपंथ विरोधी शक्तियां भारत से वामपंथ को नेस्तनाबूद करने पर तुली हैं। ताकि अमेरिका से किसी भी समझौते में कोई बाधा न आ सके। – (सुरेंद्र प्रसाद सिंह से बातचीत पर आधारित).
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साभार : दैनिक जागरण 17 अप्रैल 2011 (रविवार)
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