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आखिरी प्रयास भी बना अपर्याप्त

मुद्दा
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nathसंसद की जवाबदेही निश्चित करने के आखिरी और महत्वपूर्ण तरीके चुनाव पर से भी लोगों का भरोसा उठने लगा है। चुनावी प्रक्रिया में आई खामी काफी हद तक इसके लिए जिम्मेदार है।


संसद में केवल मुद्दों पर बहस के स्तर में ही कमी नहीं आयी है बल्कि सांसदों के अमर्यादित आचरण में भी इजाफा हुआ है। ऐसे समय में जब लोकतंत्र की समस्त संस्थाओं से जवाबदेही की अपेक्षा की जा रही है तो संसद की जवाबदेही तय करना भी जरूरी हो जाता है।

जवाबदेही के तय करने के लिए जो कार्य तय किए गए हैं वे यथेष्ठ नहीं दिखाई पड़ते। उदाहरण के लिए अविश्वास प्रस्ताव को ही ले लें। कार्यपालिका के अनाधिकार चेष्टा पर संसद इसके द्वारा अंकुश रख सकती है। इसके द्वारा सरकार को गिराना संभव है। कई बार ऐसा हुआ भी है। लेकिन कई गंभीर मौकों पर यह असफल रहा है। आपातकाल के समय लाए गए अविश्वास प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया। परमाणु संधि के समय लाए गए अविश्वास प्रस्ताव को सांसदों के खरीदफरोख्त से फेल कर दिया गया। इसी तरह विपक्ष की जो भूमिका संसद को जवाबदेह बनाने में होनी चाहिए उसमें भी भारी कमी आयी है। लोगों को यह लगने लगा है कि विपक्ष और सतापक्ष में एक मिलीभगत है। इसलिए जिन मुद्दों पर विपक्ष को हंगामा करना चाहिए उन पर चुप्पी लगाए रहता है। मुद्दों पर गंभीर बहस से सत्ता पक्ष की कमजोरियों को जनता के सामने लाने की बजाय हंगामा करके ध्यान बंटा दिया जाता है। ऐसा शायद इसलिए भी हो गया है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में संसद की सीमित शक्ति उसे कमजोर बना रही है। विधान के अनुसार कार्यपालिका के द्वारा की गई अंतरराष्ट्रीय संधि को संसद की मंजूरी जरूरी नहीं है। ऐसे में बहुत सी ऐसी संधियां हो रही हैं जिनके बारे में यह कहना कठिन है कि उसमें जनहित निहित है या विदेशी पूंजी का हित। सांसदों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की खबरों के बाद इस विषय में और भी कुछ निष्कर्ष निकलना मुश्किल हो गया है। ऐसे में कमजोर विपक्ष का मतलब है संपूर्ण संसद को ही कमजोर बना डालना।


घातक हो सकता है रिवर्स माइग्रेशन


संसद की जवाबदेही निश्चित करने का आखिरी और महत्वपूर्ण तरीका है चुनाव। इससे जनता राजनीतिक दलों को कटघरे में खड़ा करती है। भारतीय जनतंत्र में ऐसा देखने को भी मिलता है कि समय-समय जनता ने उन्हें सीख भी दी है। लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि चुनाव की प्रक्रिया में भी अब काफी जटिलता आ रही है। मीडिया इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगी है और पिछले चुनाव में जिस तरह से प्रायोजित समाचारों के किस्से सामने आए हैं उससे यह कहना कठिन है कि मीडिया स्वतंत्र है। कुल मिलाकर देश की राजनीति कुछ परिवारों के हाथों में सिमट गई है। ऐसा विचार मान्य होने लगा है कि उनके हित को ही देशहित और जनहित के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। ऐसी मान्यताओं के प्रचलित हो जाने से प्रजातंत्र के खतरे में होने की संभावना है इसलिए संसद को एक जिम्मेदार संस्था बनाने की तरफ प्रयास बहुत जरूरी है।


डॉ मानिंद्र नाथ ठाकुर

(एसोसिएट प्रोफेसर, सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जेएनयू)


Read:हम सब भारतीय हैं


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