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प्रकृति मानव विलगाव से पैदा हुए हालात

मुद्दा
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प्रसिद्ध पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने अपने विशेष अंक ‘द वल्र्ड इन 2012’ का समापन पृथ्वी को श्रद्धांजलि देने के साथ किया है। पृथ्वी नष्ट होने नहीं जा रही है। जो नष्ट होने जा रहा है वह है ऐसी वैश्विक दृष्टि जिसने पर्यावरण संकट की शुरुआत के साथ कई अन्य संकटों को जन्म दिया। माया सभ्यता में भी पृथ्वी के नष्ट होने की बात नहीं कही गई है बल्कि पर्यावरण विनाश के अंत की बात इसमें शामिल है।


पिछले साल 20 अप्रैल, 2011 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विश्व पृथ्वी दिवस के उपलक्ष्य में प्रकृति के साथ तालमेल विषय पर एक कांफ्रेंस आयोजित की थी। उसमें संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए कहा था कि भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रकृति के साथ दोबारा जुड़ना होगा।


प्रकृति के साथ असंगति का मूल कारण अलगाव है। मनुष्य जब प्रकृति के साथ अपना नाता तोड़ लेता है तो अलगाव पैदा होता है। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने भी कहा है कि गरीबी और दासता की मूल वजह अलगाव ही है।


आज प्रकृति के साथ मनुष्य के अलगाव को दूर करने की सबसे बड़ी जरूरत है। प्रकृति के साथ विलगाव हमारी जिंदगी और सोच पर हावी हो चुका है। विलगाव के इस भ्रम को खत्म करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि हम प्रकृति और पृथ्वी का ही हिस्सा हैं। क्या उससे अलग हमारा कोई अस्तित्व हो सकता है?


पृथ्वी के खिलाफ युद्ध सबसे पहले हमारे मस्तिष्क में प्रारंभ हुआ। इसके बीज उस वक्त पड़े जब औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप जीवित पृथ्वी को मृत पदार्थ के रूप में बदल दिया गया। नतीजतन संपूर्णता लघुता में बदलने लगी। विविधता और जटिलता की जगह एक समान संस्कृति दिखने लगी और गतिशील और ऊर्जावान पृथ्वी ‘कच्चे माल’ या ‘मृत पदार्थ’ में तब्दील होकर रह गई।


आधुनिक विज्ञान के पिता फ्रांसिस बेकन ने कहा था कि वस्तुओं की प्रकृति होती है कि वे किसी माध्यम के जरिए तेजी से बदल जाती हैं। जबकि स्वाभाविक रूप से उनके परिवर्तन में वक्त लगता है। ये माध्यम वैज्ञानिक ज्ञान और यांत्रिक उपकरण होंगे जिनमें पृथ्वी को जीतने की क्षमता होगी। उन्होंने वादा किया कि वे ऐसे हीरो और सुपरमैन बनाना चाहते हैं जो प्रकृति और समाज पर आधिपत्य स्थापित कर सकें।


बेकन के दर्शन से रॉयल सोसायटी प्रभावित हुई। इसके सेक्रेट्री हेनरी ओल्डनबर्ग ने 1664 में घोषणा करते हुए कहा कि सोसायटी का मकसद इस तरह के प्रभावी दर्शन को पेश करना है जहां मानव का मस्तिष्क ठोस तथ्यों के ज्ञान से परिपूर्ण हो। जोसेफ ग्लानविल के अनुसार विज्ञान का मकसद प्रकृति पर वर्चस्व हासिल करने के तरीके खोजना है।


मस्तिष्क में प्रकृति की मृत्यु संबंधी इस तरह के विचार आते ही पृथ्वी के खिलाफ युद्ध शुरू हो गया। दरअसल यह विचार इस धारणा से जुड़ा था कि जब पृथ्वी पहले से ही मृत पदार्थ है तो इसको खत्म करने की बात ही नहीं उत्पन्न होती।


इन्हीं भ्रामक धारणाओं ने मनुष्यता को इस कदर प्रभावित किया जिसकी वजह से कई प्रजातियां नष्ट हो गईं। जलवायु अस्थिर होने लगी। जल की कमी और नदियां एवं सागर प्रदूषित होने लगे। प्रकृति के साथ इस अलगाव की शुरुआत ने हमको अपने मानव समुदाय से पृथक करना शुरू कर दिया। अंतत: हम अस्तित्व, मानवता और पृथ्वी पर अपने मकसद से विमुख हो गए। हम यह मानने लगे कि इस पृथ्वी को जीता जा सकता है। हम अपने भाइयों-बहनों की क्रूरता को सहन करने लगे। इस तरह हम शोषक और उपभोक्ता बनकर रह गए।


पृथ्वी के साथ इस विलगाव के सांस्कृतिक और भौतिक परिणाम होंगे। यह पारिस्थितिकी विनाश उन दशाओं को नष्ट कर रहा है जिनकी बदौलत इंसान समृद्ध और जिंदा रहता है। इस प्रकार हम पृथ्वी के नहीं बल्कि अपने भविष्य के दरवाजे बंद कर रहे हैं। पृथ्वी ग्रह पर हम विनाशक ताकत बन गए हैं।


लेखिका डॉ वंदना शिवा (संस्थापक, नवदन्य (रिसर्च फाउंडेशन फॉर साइंस टेक्नोलॉजी एंड इकोलॉजी)


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