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महंगाई सुरसा के मुंह की तऱह बढ़ती जा रही है। कारखानों का उत्पादन गिर रहा है। सरकार को अर्थव्यवस्था की विकास दर के आनुमानित आंकड़ों को कम करके सशोधित करना पड़ रहा है। विकास की रफ्तार सुस्त हो चुकी है। कभी वित्तमत्री के रूप में अर्थव्यवस्था में जान डालने वाले मनमोहन सिह आज देश के प्रधानमत्री हैं। इनकी आर्थिक सलाहकार परिषद का निष्कर्ष है कि महंगाई और अन्य अनेक आर्थिक-राजनीतिक कारणों के चलते विकास की रफ्तार धीमी पड़ने लगी है। आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार दूसरे चरण के आर्थिक सुधार अपरिहार्यहो गए हैं, लेकिन सरकार कोई कदम उठाने के लिए तैयार नजर नहीं आती। गैर आर्थिक मसलों से जूझ रही सरकार शायद देश की आर्थिक समस्याओं पर ध्यान ही नहीं दे पा रही है। इस तरह ऑटो पायलट मोड में चलने वाली अर्थव्यवस्था के सिर के बल गिरने का भी खतरा बना रहता है। इस वास्तविकता से सरकार कब रूबरू होगी? ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था की सुस्त रफ्तार और महंगाई व बेरोजगारी जैसी आर्थिक समस्याएं बड़ा मुद्दा हैं।
2010-11 में आर्थिक विकास दर : 8.5
2009-10 में आर्थिक विकास दर : 9
खुशहाली के खलनायक
महंगाई: देश के आर्थिक विकास के लिए महंगाई सबसे बड़ी दुश्मन साबित हो रही है। पिछले एक साल से महंगाई सिर चढ़कर बोल रही है। इसे काबू में रखने के सरकार के तमाम दावे भोथरे साबित हुए हैं। नतीजा यह हुआ है कि इसका असर अब विकास दर को नीचे धकेल रहा है। बीते वित्त वर्ष महंगाई अपने चरम पर थी। खासतौर पर खाद्य उत्पादों की महंगाई ने बीते साल सारे रिकार्ड तोड़े और इसकी दर ने बीस प्रतिशत के अधिकतम स्तर को छुआ। लेकिन अंतत: इसमें कमी आई। हालांकि मार्च 2011 तक महंगाई की दर के सात प्रतिशत तक आने का अनुमान लगाया गया था। लेकिन सरकारी प्रयासों को धता बताती हुई यह 9.7 प्रतिशत तक ही नीचे आ पाई।
वर्तमान वित्त वर्ष के लिए सामान्य महंगाई की दर के अक्टूबर 2011 तक नौ प्रतिशत पर बने रहने का अनुमान है। लेकिन अर्थशास्त्री उम्मीद कर रहे हैं कि वित्त वर्ष खत्म होते होते यह मार्च 2012 तक 6.5 प्रतिशत तक आ जाएगी। अर्थशास्त्री मानते हैं कि महंगाई की दर बढ़ने की मुख्य वजहें घरेलू से ज्यादा वैश्विक हैं। जिंसों की कीमतों जिनमें क्रूड और मेटल की कीमतें प्रमुख हैं, ने महंगाई को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है।
आमतौर पर महंगाई को काबू में करने के लिए सरकारें दो तरह के उपायों को अमल में लाती हैं। पहला, मौद्रिक नीति को सख्त बनाकर बाजार में मांग सीमित करना। दूसरा, कीमतों को नीचे लाने के लिए बाजार में उनकी आपूर्ति को बढ़ाना। अभी तक सरकार ब्याज की दरें बढ़ाकर पहले उपाय पर अमल करती दिखी है। खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी मानते हैं कि अभी सप्लाई बढ़ाकर कीमतें कम करना व्यावहारिक नहीं है क्योंकि इससे उत्पादकों के लिए संकट खड़ा होगा। लेकिन वहीं यह भी सच है कि मांग में कमी कहीं न कहीं अर्थव्यवस्था की राह में बाधा बन रही है।
आर्थिक सुधारों की आस
सरकार भले यह दावा कर रही है कि आर्थिक सुधारों की चाल धीमी नहीं हुई है। लेकिन केंद्र में संप्रग की सरकार के वापस सत्ता में आने के दो साल बाद अब उद्योग जगत का विश्वास टूटने लगा है। कुछ छोटे बड़े बदलावों के अलावा सरकार के पास लंबित सुधारों की लंबी फेहरिस्त है। हाल ही में चुनिंदा बड़े उद्योगपतियों ने वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के साथ हुई बैठक में इस मुद्दे को जोर शोर से उठाया भी। जहां उद्योग मल्टीब्रांड रीटेल को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोलने की बाट जोह रहा है, वहीं निजी बीमा कंपनियां एफडीआइ की सीमा को 24 से बढ़ाकर 49 प्रतिशत होने की इंतजार में हैं। कर कानूनों में सुधार का इंतजार भी लंबा होता जा रहा है। न तो अभी तक वस्तु एवं सेवा कर को अमल में लाया जा सका है और न ही नए प्रत्यक्ष कर कानून के अमल को लेकर लोगों में भरोसा हो पा रहा है। यह कानून पुराने आयकर कानून की जगह लेगा।
महंगाई को काबू में करने की दिशा में सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी सुधार की राह देख रही है। तो सब्सिडी का बोझ कम करने के लिए उसे गरीबों को सीधे नकद देने के फैसले पर सरकार अब जाकर आगे बढ़ती दिख रही है।
लगी आस
-मल्टीब्रांड रीटेल को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोलना
-बीमा में एफडीआइ की सीमा को 24 से बढ़ाकर 49 प्रतिशत किया जाना
-वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को अमल लाना
-नए प्रत्यक्ष कर कानून (डीटीसी) को लागू करना
-सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार
अंतरराष्ट्रीय संकट
दुनिया की सभी प्रमुख बड़ी अर्थव्यवस्थाएं इस वक्त संकट में हैं। अमेरिका इसका ताजा उदाहरण है। धीमी आर्थिक विकास की रफ्तार से तो यह पहले ही जूझ रहा था अब कर्ज संकट ने इसकी दिक्कतें और बढ़ा दी हैं। इस संकट के बाद अमेरिका के 2.7 प्रतिशत की विकास दर को पाना भी रेटिंग एजेंसियों को मुश्किल लग रहा है। यही वजह है कि स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने अमेरिका की रेटिंग घटा दी है।
उधर यूरोपीय संघ के सभी देश मुश्किल में हैं। ग्रीस, पुर्तगाल, आयरलैंड और स्पेन का संकट इतना बड़ा है कि अगर जर्मनी फ्रांस जैसे बड़े देश मिलकर इन देशों को वित्तीय मदद करें तो भी इनका संकट दूर करना मुश्किल होगा। जापान की अपनी अलग दिक्कत है। सुनामी के झटके ने जापान की अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दिया है। इससे उबरने में जापान को अभी लंबा वक्त लगेगा।
भारत के साथ ये तीनों अर्थव्यवस्थाएं काफी गहराई से जुड़ी हैं। भारत के विदेश व्यापार में करीब साठ प्रतिशत हिस्सेदारी इन्हीं तीनों देशों की है। इन देशों पर होने वाले आर्थिक संकट का असर एक बार हम 2008 में देख चुके हैं। स्वाभाविक है इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं डूबने का मतलब भारतीय उत्पादों के लिए बाजार खोना होगा। इसका सीधा असर भारतीय निर्यात पर होगा। सरकार भी मान रही है कि अगस्त के बाद निर्यात के आंकड़ों पर इसका असर दिखना शुरू हो सकता है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के धीमे होने का दूसरा सबसे बड़ा फर्क हमारे देश में आने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर होगा। एफडीआइ के मामले में अमेरिका और यूरोप की भूमिका काफी अधिक रहती है। इनके कमजोर होने का मतलब है देश में कम एफडीआइ का आना। यही वजह है कि पीएमईएसी ने इस साल के लिए केवल 32 अरब डॉलर के निवेश का ही अनुमान लगाया है। लेकिन दिक्कत यहीं खत्म नहीं होती। एफडीआइ कम आने से ज्यादा खतरनाक है यहां निवेशित एफडीआइ वापस लौटना। इस साल अनुमान है कि 17 अरब डॉलर की विदेशी पूंजी को निवेशक यहां से वापस ले जा सकते हैं। हालात यही रहते हैं तो शेयर बाजार में निवेशित विदेशी संस्थागत निवेशक भी अपने हाथ वापस खींच सकते हैं, जिसका असर भारतीय शेयर बाजारों पर होगा।
07 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख “ढलान पर विकास” पढ़ने के लिए क्लिक करें.
साभार : दैनिक जागरण 31 जुलाई 2011 (रविवार)
नोट – मुद्दा से संबद्ध आलेख दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में हर रविवार को प्रकाशित किए जाते हैं.
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