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उम्मीद की धुंधली किरण

मुद्दा
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इस बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती कि संप्रग सरकार का पिछले चार साल का कार्यकाल नाकामी भरा रहा है। नि:संदेह यह भी नहीं कहा जा सकता कि उसने पिछले चार बरस में कहीं कुछ हासिल नहीं किया, लेकिन तमाम नाकामियों ने उसकी चंद उपलब्धियों पर ऐसा पर्दा डाला है कि उन्हें जानना-समझना देश ही नहीं, दुनिया के लिए भी मुश्किल हो रहा है। अब ऐसा लगता है कि सरकार के नीति-नियंता चेत गए हैं और वे कुछ कर दिखाना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें अपने तौर-तरीके और खासकर खुद को सही, दुनिया को गलत मानने का रवैया छोड़ना होगा।  यदि वे ऐसा कर सके तो अपने और साथ ही देश के भले की कुछ उम्मीद कर सकते हैं। यह बहुत आसान नहीं होगा, क्योंकि जो कई काम सरकार के एजेंडे पर बताए जा रहे हैं वे वोट बैंक को मजबूत बनाने के इरादे से ज्यादा लैस नजर आते हैं जबकि आज जरूरी यह है कि वोट हित के बजाय देश हित को महत्व दिया जाए। एक वर्ष का समय ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं होता। इस दौरान बहुत कुछ हो सकता है, बशर्ते वादों के साथ इरादे भी नेक हों।

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बड़े और कड़े फैसलों की तत्काल जरूरत


संप्रग सरकार ने अपने पिछले नौ साल के कार्यकाल में खुद का काम तमाम कर लिया है। अब कोई चमत्कार ही उसे जनता की सहानुभूति दिला पाएगा।संप्रग सरकार के कार्यकाल के दौरान जिस रफ्तार से लाखों करोड़ों रुपये के घोटाले जनता की गाढ़ी कमाई में सेंध लगाते रहे और सरकार के मुख पर कालिख पोतते रहे हैं, उसने प्रधानमंत्री की छवि को धूमिल किया है और निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की विश्वसनीयता को पूरी तरह नष्ट कर दिया है। महंगाई और बेरोजगारी पर काबू पाने में सरकार बुरी तरह नाकाम रही है। अगर वह अब तक बची रह सकी है तो बाहर से समर्थन देने वाली मौकापरस्त पार्टियों की बैसाखी के सहारे। ऐसे में कार्यकाल के बचे चंद महीनों में सरकार से किसी चमत्कार की अपेक्षा करना हास्यास्पद लगता है।


सरकार की अब तक की कार्यशैली से यह बिल्कुल परिलक्षित नहीं होता है कि आगामी दिनों में यह जनता के कल्याण के लिए ऐसी नीतियां और योजनाएं बना पाएंगी जिससे उनका विश्वास जीत सके। और जब तक सरकार को जनता का विश्वास नहीं हासिल होगा तब तक जनता सरकार के प्रति सहानुभूति नहीं दिखा सकती है।


यह देश बड़ा रहमदिल है और इसकी याद्दाश्त भी बड़ी कमजोर है। हमारी पुरानी परंपरा है पाप को आसान से प्रायश्चित से (जो साधनसंपन्न के लिये कभी भी नाकाबिले बर्दाश्त खर्चीला नही होता) धोने के बाद सब कुछ भुलाया जा सकता है। ‘गंगा नहाओ फिर से मिल बांट के खाओ’! अत: यह असंभव नहीं कि जैसा आपातकाल के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी को दंडित करने के डेढ़ साल बाद ही दोबारा उनकी ताजपोशी सब कुछ जानने वाले मतदाता ने कर दी थी वैसे ही नौ साल से घिसट रही निकम्मी अहंकारी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी इस सरकार के आने वाले नौ महीनों के कामकाज से खुश हो यह मतदाता उसे सजा नहीं मजा का हकदार समझ सरकार एक बार और बनाने का मौका दे दे।


यह चमत्कार तभी संभव है जब संप्रग का प्रमुख घटक दल कांग्र्रेस दो-चार बड़े फैसले तत्काल ले। सबसे पहले प्रधानमंत्री के रूप में नये चेहरे को पेश करने की जरूरत है। मनमोहन सिंह की चुप्पी का और खामियाजा उठा सकना सहज नहीं। उम्र के इस मोड़ पर वह ना तो नए नौजवान सपनों की साझेदारी कर सकते हैं और न ही खुद को आंकड़ों के निर्जीव मकड़जाल से मुक्त कर सकते हैं। इसके  साथ ही बड़बोले, अहंकारी जमीनी हकीकत से कटे खानदानी-दरबारी मंत्रियों को उनके लब सी कर नेपथ्य में निर्वासित करना होगा। महंगाई पर आंकड़ों में नहीं रसोई में काबू पाना होगा। मीडिया को हर विफलता के लिये दोषी ठहराना बंद कर अब तक की गलितयों के लिये ईमानदारी से माफी मांगनी होगी। हर घोटाले के बीज राजग के कार्यकाल में खोजने के बदले दोषी व्यक्तियों को चाहे वह अपने लोग ही क्यों न हों, सजा दिलाने के लिये सक्रिय होना पड़ेगा। अल्पसंख्यक तथा दलित वोटबैंक को भुनाने का लालच छोड़ वास्तव में समावेशी विकास के लिये परियोजनाओं कार्यक्रमों को लागू करने को प्राथमिकता देनी होगी। विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों को शत्रु नहीं सहयोगी मान कर माओवाद-आतंकवाद की चुनौती के मुकाबले संयुक्त मोर्चे के गठन की पेशकदमी का साहस दिखलाया जा सकेगा। विदेश नीति के संदर्भ में पारदर्शिता को इस सूची में जोड़ा जा सकता है।


राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार 2014 के आम चुनावों में सरकार के लिए यह पॉलिसी ‘गेमचेंजर’ साबित हो सकती है। इसके तहत गरीब लोगों को प्रत्यक्ष तौर पर उनके अकाउंट में पैसे भेजे जाएंगे। अभी यह योजना पॉयलट प्रोजेक्ट के रूप में शुरू की गई है।


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Tags: UPA Government, UPA Government Policies, UPA Government Politics, India And Politics, India, Politics, सरकार, राजनीतिक दल, भ्रष्टाचार, कांग्रेस राजनीति

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