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तब: अगस्त महीना और आंदोलनों का बहुत पुराना नाता रहा है। 1942 में इसी महीने में गांधी जी ने अंग्र्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन चलाया था। इसे अगस्त क्रांति के नाम से भी जाना गया। ‘करो या मरो’ के नारे पर अंग्र्रेजी हुकूमत के अत्याचार के खिलाफ उबल रहा देश आजादी के लिए उठ खड़ा हुआ। लोग आंदोलन से जुड़ते गए। माना जाता है कि इसी आंदोलन ने 1947 में मिली आजादी की नींव रखी।
अब: सत्तर साल बाद। एक और अगस्त का महीना। आधुनिक काल के दो बड़े आंदोलनों का मूक साक्षी। इनमें से भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाया जा रहा आंदोलन रूप बदलने को आतुर दिख रहा है। वहीं काले धन को लेकर चलाए जाने वाले आंदोलन का आगामी नौ अगस्त से श्रीगणेश किया जाना है। व्यवस्था परिवर्तन के लिए चलाए गए इन आंदोलनों का परिणाम चाहे जो हो, लेकिन एक बात तो है कि जनमानस में महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी जैसी मूल समस्याओं के प्रति वैसा ही आक्रोश है जो आजादी के लिए अंग्र्रेजी हुकूमत के खिलाफ था।
कब: इसे विडंबना ही कहेंगे कि देश, काल और परिस्थितियों में काल को छोड़ दें तो दोनों चीजें एक सी ही हैं, लेकिन आज के आंदोलनों में 1942 जैसी धार नहीं दिखती। आक्रोश चरम पर है फिर भी भीड़ आंदोलनकारियों में तब्दील नहीं हो पा रही है। कारण कुछ भी हों, लेकिन लोकतंत्र के लिए यह चिंता का विषय है। इसे मौजूदा व्यवस्था भी देख और समझ रही है। शायद इसी के चलते इन आंदोलनों को लेकर व्यवस्था के शीर्ष लोग बहुत गंभीर नहीं दिखते। आज के आंदोलनों के प्रति जनमानस में आया बदलाव और उसका आत्मावलोकन हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
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एक आंदोलन की परिणति
समस्या से परिचित होने के लिए गांधी जी ने देश के कोने-कोने में भ्रमण किया। शुरुआत में उन्होंने छोटे-छोटे आंदोलन चलाए ताकि उनके अनुभव के आधार पर बड़ा आंदोलन खड़ा किया जा सके।
साम्राज्यवाद की भ्रष्टाचार से तुलना भले ही बेमानी लगती हो, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि 1942 में आजादी के लिए लोगों में अंग्र्रेजी हुकूमत के खिलाफ जो आक्रोश और चिंता थी, वहीं भाव लोगों में आज भ्रष्टाचार के खिलाफ दिखाई देता है। उस दृष्टिकोण से देखें तो आज के इस दौर में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे की मुहिम एकबड़े आंदोलन के रूप में सामने आई है, लेकिन इस आंदोलन को आजादी के लिए हुए जनआंदोलनों की तरह सार्वजनिक समर्थन नहीं मिल पाना बहस का मुद्दा है।
इस विसंगति को समझने के लिए इसे सामाजिक दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। पहली बात तो यह है कि भ्रष्टाचार से लोग परेशान कितने भी हों, लेकिन समाज के सभी तबकों के जनमानस में इसके खिलाफ उस तरह की प्रतिक्रिया नहीं पैदा हो पाई जो आजादी के समय अंग्र्रेजी साम्राज्य के खिलाफ आक्रोश के रूप में दिखाई देती थी। इतना ही नहीं, मौजूदा आंदोलन एक आवाज से बोलने में असमर्थ रहा है। तीसरी बात है कि न ही अन्ना हजारे और न ही रामदेव गांधी जैसी शख्सियत के समतुल्य हैं। ये लोग गांधी का सांकेतिक इस्तेमाल तो करते हैं लेकिन उसमें कोई मौलिकता नहीं ला सके। सच तो यही है कि इस आंदोलन की परिस्थिति भ्रमित है। कभी व्यवस्था परिवर्तन की बात की जाती है और कभी चुनाव में उम्मीदवार खड़ा करने की बात करते हैं। इस दिशाहीनता का नतीजा है कि धीरे-धीरे आंदोलन सांस तोड़ रहा है और समय के साथ लुप्त हो सकता है।
व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन चलाने की परंपरा बहुत पुरानी है। उन्नीसवीं सदी के अंत में अंग्र्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ विरोध एक शिक्षित मध्यम वर्ग की प्रतिक्रिया थी। यह वर्ग हर साल आयोजित होने वाली सालाना बैठकों में संवैधानिक सुधार के लिए प्रस्ताव तो पारित करते रहे, लेकिन अपनी मांग को सार्वजनिक बनाने से गुरेज करते रहे। बाल गंगाधर तिलक ने साम्राज्य विरोधी संघर्ष को सार्वजनिक बनाने की कोशिश अवश्य की, परंतु उनका आंदोलन धार्मिकता और धार्मिक प्रतीकों में फंस गया। लिहाजा उसे राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन नहीं मिल पाया।
गांधी के राजनीतिक पृष्ठभूमि पर उभरने के बाद व्यवस्था परिवर्तन आंदोलन की भूमिका पूरी तरह बदल गई। गांधी का राजनीतिक अनुभव दक्षिण अफ्रीका तक सीमित था। उन्हें हिंदुस्तान की परिस्थितियों का अंदाजा नहीं था। इसलिए उन्होंने देश के कोने-कोने में भ्रमण किया। शुरुआत में उन्होंने छोटे-छोटे आंदोलन चलाए ताकि उनके अनुभव के आधार पर बड़ा आंदोलन खड़ा किया जा सके। गुजरात में अंग्र्रेजी हुकूमत द्वारा लगाए गए लगान के खिलाफ संघर्ष और चंपारण में आदिवासियों और दूसरों के जमीन अधिकारों के लिए चलाई गई मुहिम इसकी बानगी हैं। गांधी द्वारा चलाए गए आंदोलनों की दो मुख्य प्रवृत्तियां रहीं। स्वयं एक धार्मिक व्यक्ति होने के बाद भी उन्होंने अपनी संघर्ष संबंधी कोशिशों में धर्म को हस्तक्षेप नहीं करने दिया। दूसरी तरफ गांधी ने अंग्र्रेजी साम्राज्यवाद को मुख्य दुश्मन की तरह पेश किया। व्यापक पैमाने पर लोग इन आंदोलनों से इसलिए जुड़े कि उन्होंने स्वयं महसूस किया कि उनकी दरिद्रता और समस्याओं के लिए अंग्र्रेजी साम्राज्यवाद काफी हद तक जिम्मेदार है।
गांधी का व्यापक दबदबा था। इसलिए जब उन्होंने 1942 में देश छोड़ो आंदोलन की आवाज खड़ी की तो देश के कोने-कोने में इसके समर्थन में लहर चल पड़ी। परंतु एक नैतिक व्यक्ति होने के नाते गांधी को जब लगा कि आंदोलन में कुछ ऐसे तत्व आ गए हैं जो इसे कमजोर करेंगे तो उन्होंने आंदोलन को स्थगित कर दिया। यह हौसला सभी के लिए संभव नहीं होता। इसीलिए उनकी छवि एक कद्दावर नेता की रही और है।
आजादी के बाद व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन पर विराम लग गया। कारण कई रहे। लोगों का ध्यान नए भारत के निर्माण की तरफ लग गया। साथ ही बंटवारे से पैदा हुई परिस्थिति में आंदोलन चलाने का माहौल भी नहीं था। समय समय पर छोटे-छोटे क्षेत्रीय आंदोलन तो चले लेकिन देश भर में कोई आंदोलन पनप नहीं पाया।
इस आलेख के लेखक इम्तियाज अहमद हैं
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भारत छोड़ो आंदोलन (1942)
आठ अगस्त को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से तत्काल आजादी हासिल करने के लिए जनता को ‘करो या मरो’ का नारा दिया। इस आह्वान को अगस्त क्रांति के नाम से भी जाता है। उन्होंने अहिंसक तरीके से आजादी हासिल करने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने के लिए जनता का आह्वान किया। नारे की गूंज से देखते ही देखते देश आंदोलित हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के उस दौर में इस आंदोलन ने जर्जर हो चुके अंग्रेज साम्राज्य की चूलें हिला दीं। ब्रिटिश सरकार भयभीत हो गई और उसने लगभग सभी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया। बड़े नेताओं के जेल जाने के कारण आंदोलन लगभग नेतृत्वहीन हो गया लेकिन इसके प्रभाव में कमी नहीं आई। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आजादी हासिल करने के लिए लोगों ने अपना सर्वस्व झोंक दिया। आंदोलन के प्रभाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रुजवेल्ट ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल पर दबाव डालते हुए कहा कि वे भारतीयों की मांगों पर गंभीरता से विचार करें। इन सबके बावजूद ब्रिटिश सत्ता ने आंदोलन को कुचलने का कोई भी उपक्रम नहीं छोड़ा लेकिन स्वतंत्रता संग्राम की इस अंतिम बड़ी लड़ाई के अगले पांच वर्षों के भीतर स्वतंत्र देश के रूप में भारत का उदय हुआ।
आज की क्रांतियां (2011)
‘आजादी की दूसरी लड़ाई’ का नारा देते हुए करीब 70 वर्षों बाद प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे ने अपनी टीम के साथ देश में गंभीर रूप से व्याप्त भ्रष्टाचार के समूल नाश के लिए जनलोकपाल बिल लाने के मकसद से आंदोलन का नेतृत्व किया। टीम अन्ना ने पिछले करीब डेढ़ साल से जनलोकपाल के लिए लड़ाई लड़ रही है। भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी जनता ने शुरू में आंदोलन को व्यापक समर्थन दिया। सरकार को झुकना पड़ा और अन्ना की मांगों पर विचार के लिए संसद का विशेष सत्र तक आयोजित करना पड़ा लेकिन अंतिम रूप से नतीजा ढाक के तीन पात निकला। सरकार ने अलग-2 रूप में कई बिल तो पेश किए लेकिन अन्ना समर्थित जनलोकपाल बिल पर बस विचार ही हुआ। उसको अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। इस बीच आंदोलन ने भी अपनी दशा-दिशा बदली। कई चरणों, दिशाओं से गुजरता हुआ यह राजनीतिक पार्टी के रूप में अपनी पहचान बनाने को उत्सुक दिखाई दे रहा है। नागरिक समाज में इसको लेकर तर्क-वितर्क हो रहा है। इसी तरह बाबा रामदेव भी काला धन और भ्रष्टाचार के मसले पर अपनी आवाज उठा रहे हैं। नौ अगस्त से वह भी अपनी बहुचर्चित आंदोलन की शुरुआत करने जा रहे हैं। इन आंदोलनों के विषय में बौद्धिक तबके में माना जा रहा है कि कमजोर शासन के खिलाफ विपक्ष द्वारा सही विकल्प पेश नहीं किए जाने के कारण सामाजिक असंतोष इन आंदोलनों के जरिए प्रकट हो रहा है।
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