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पतित पावनी सलिला हमारे दिल और दिमाग से होकर बहती हैं। उनमें पानी नहीं बल्कि आजीविका, संस्कृति, मान्यता, परंपरा, इतिहास, भविष्य और एक अरब से अधिक लोगों के सपने बहते हैं।
तब
लाखों साल पहले। द्वापर युग। पहली बार जहरीली हुई कालिंदी यानी सूर्यपुत्री यमुना। कालिया नाग था कारण। अपनी जहरीली फुफकारों से इसने यमुना के नीले जल को काले विष में बदल दिया था। यमुना के जलपान से बड़ी संख्या में जीवजंतु काल कवलित होने लगे थे। यमुना का जहर खत्म करने के लिए उस समय ब्रज क्षेत्र से ही साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के मानव अवतार में सामने आए। कालिया नाग का मर्दन करके कालिंदी का स्वरूप वापस लौटाया
अब
अधर्म के लिए जाना जाने वाला युग। कलियुग। एक बार फिर यमुना जहरीली हो चुकी हैं। उनका अस्तित्व खतरे में है। देश की सभी नदियों की दुर्दशा एक जैसी है। इस बार वजह एक कालिया नाग नहीं बल्कि करोड़ों कालिया नाग हैं। हम सभी अपना जहर ‘मां’ का दर्जा प्राप्त इन पावन नदियों में उड़ेल रहे हैं। अबकी बार भी कालिंदी को मूल रूप में लाने के लिए ब्रज क्षेत्र के लोग आगे आए हैं। संत जयकृष्ण दास के नेतृत्व में एक आंदोलन दिल्ली की तरफ बढ़ रहा है। इन सबका मकसद एक है, दिल्ली में बैठे हुक्मरानों से ‘अपनी यमुना’ की मांग
कब
मानव सभ्यता नदी तीरे पुष्पित पल्लवित होती रही है। नदियां हमारी संस्कृति, सभ्यता और समाज का एक अभिन्न अंग रही हैं। हालांकि जिस रफ्तार से हम उनसे अपना जुड़ाव खत्म कर नदी संस्कृति को तिलांजलि दे रहे हैं, उससे लगता है कि हमारी पीढ़ियां कभी ‘एक थी नदी’ कहने को विवश होंगी। ऐसे में इनको अविरल, निर्मल बनाने वाले मौके को सार्थक करने का हमें संकल्प लेना चाहिए। नदियों को उनके मूल स्वरूप में लाने वाले ‘यमुना मुक्ति पदयात्रा’ जैसे आंदोलनों को मनसा वाचा कर्मणां प्रयासों से सार्थक बनाना हम सभी के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है।
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जल-जहर रखने का हो अलग तंत्र
मां बाल्यकाल में हमारी गंदगी धोती है और बड़ा होने पर बेटा मां की गंदगी को दूर करता है। भारतीय संस्कृति में समाज, राज और संतों ने जीवन को पोषण देने वालों को ‘मां’ कहा। और उनके साथ ‘मां’ जैसा व्यवहार भी किया। 1932 में पहली बार अंग्रेज कमिश्नर (बनारस के) ने हमारी इस आस्था एवं प्रकृति की रक्षा के व्यवहार और संस्कार पर चोट करके मां गंगा में बनारस के तीन गंदे नालों को डालने का राज्यादेश दिया। जबकि हमारी आस्था एवं संस्कृति में जीवन को अमृत रूप बनाने वाली नदियां और जीवन में जहर घोलने वाले नालों को अलग-अलग रखने का विधान था।
भारतीय जनमानस इस बात को जानता और मानता था कि मां बाल्यकाल में हमारी गंदगी धोती है और बड़ा होने पर बेटा मां की गंदगी को दूर करता है। लेकिन अंग्रेजों ने हमारी मां गंगा और अन्य सभी नदियों के साथ उल्टा व्यवहार करने को मजबूर किया। उस काल की सारी नगरपालिकाओं ने अपना गंदा जल नदियों में डालना शुरू कर दिया। इस राज्यादेश से पहले भारतीय नगर अपनी गंदगी को त्रिकुंडीय व्यवस्था (सफाई और जल को निर्मल बनाकर) द्वारा छोटी नदियों और जल के स्वरूप में बड़ी नदी में मिलने की व्यवस्था रखता था। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत व आजादी के बाद हमारी हुकूमत जहर और अमृत में भेद करके अलग रखने का कोई तंत्र विकसित न कर सकीं। इसलिए आज सारे राज्य, सरकारी संस्थाएं और भारत सरकार अमृत में जहर घोलने की मौन स्वीकृति देकर सभी सरकारी संस्थानों, पंचायतों, नगरपालिकाओं को आश्रय प्रदान कर रहे हैं। इस सरकारी आश्रय ने ही भारतीय आस्था और नदियों की सुरक्षा को तोड़ा है। आज नदियों की सफाई के नाम पर हजारों करोड़ खर्च करने की छूट है। अपने भ्रष्ट आचरण से नदियों को नाले बनाकर और उनकी सफाई के लिए हजारों-हजार करोड़ खर्च करने के विभाग बन गए हैं। ये विभाग एक भी नालों को नदी नहीं बना सके जबकि राजस्थान के लाचार लोगों ने अपनी सात मरी हुई नदियों (अरवरी, सरसा, भगानी, जहाजवाली, रूपारेल, शादी और माहेश्वरा) को पुनर्जीवित कर लिया है। इससे आज भी लगता है कि हम जब भी अपनी आस्था और श्रम निष्ठा से किसी काम में जुटते हैं तो उसे पूरा कर लेते हैं। सरकारी व्यवस्था इस तरह के कार्यों में केवल रुकावट पैदा करती रहती है। बनारस में कुछ लोगों ने गंगा को साफ बनाने की कोशिश शुरू की, लेकिन सरकारी इंजीनियरों ने उनमें अडं़गे लगाकर पिछले 25 सालों से होने नहीं दिया। वे केवल पैसे और प्रोजेक्ट के लिए ही काम करते हैं। उनके मन, मस्तिष्क से गंगा मर गई हैं और सूख गई हैं। इसलिए आज हमारी नदियों को पुनर्जीवित करने की जब भी कोई अभियान या आंदोलन खड़ा होता है, सरकारी तंत्र उनको तोड़ने बिखेरने में जुट जाता है। इसलिए भारतीयों में अपनी नदियों के प्रति आस्था, उनकी पोषणकारी परंपरा और संस्कृति विविधता का सम्मान मिटता जा रहा है और नदियों के पुनर्जीवन के कार्यक्रम विफल से दिखते हैं।
मैं जानता हूं कि लोकतंत्र में कोई भी आंदोलन विफल नहीं होता। वह अपने सिद्धि के बीज बोकर बिखर जाता है, जब पुन: वैसा वातावरण बनता है तो उस आंदोलन के पुराने बीज अंकुरित होकर प्रस्फुटित होते हैं और सफलता हासिल करते हैं। मुझे लगता है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी और देशभर की सभी छोटी नदियों की सेहत ठीक होगी और नालों में तब्दील ये पुन: नदी बनेगी ।
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