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सिंचाई: सुनकर हैरत होती है, लेकिन यह सच है। आज भी अपने देश की खेती बारी कुदरत के भरोसे चल रही है। किसानों के लिए खेती करना किसी जुए से कम नहीं है। यह मजबूरी बदस्तूर जारी है। इस बार भी सूखे की स्थिति बलवती हो रही है। देश के 120 करोड़ लोगों के पेट भरने की जिम्मेदारी इंद्रदेव के ऊपर है। न भी हो तो हमारे नीति नियंता यह स्वीकार कर अपना नाकारापन तो कम से कम जता ही देते हैं। ‘भारत की कृषि मानसून पर आधारित’ जुमला लोगों के अन्त:करण में रच बस गया है। कभी हमने इससे उबरने की जहमत नहीं उठाई। लिहाजा जून से पहले मानसून के आने की टकटकी और मौसम विभाग के पूर्वानुमानों पर ही हमारे किसान खरीफ की फसलों का खाका खींचते हैं।
रुसवाई: अगर मानसून अनुमान के विपरीत रहा तो किसान तो किसान, पूरे देश का गला सूख जाता है। वहीं सरकार कागजों पर सूखे से निपटने की तैयारियां करके अपने नाकारेपन को कम करने का प्रयास करती दिखती है तो किसानों को केवल इंद्रदेव के भरोसे बैठे रहना पड़ता है। यह सब क्यों? आखिर आजादी के 65 साल बाद भी हमारी खेती को क्यों मानसून के भरोसे रहना पड़ता है? क्यों नहीं अब तक सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था की जा सकी? क्यों नहीं सिंचाईं की कम पानी खपत वाली आधुनिक तकनीकों को अपनाया जा सका? क्यों नहीं अब तक फसलों की ऐसी प्रजातियां अमल में आ सकीं जिनको उपजाने में नाममात्र पानी की जरूरत पड़े?
भलाई: एक ही देश के अलग-अलग हिस्सों में बाढ़ और सूखे की स्थिति स्थायी प्राकृतिक आपदा है। नदी जोड़ परियोजना एक साथ बाढ़ और सूखे की समस्या से निजात दिलाने में कारगर बताई जा रही थी, लेकिन वह सिरे नहीं चढ़ पा रही। कारण जो भी हों, पिस रहा है इस देश का आम आदमी। ऐसे में परंपरागत रूप से की जा रही खेती-किसानी में आधुनिकता के पुट दिए जाने की जरूरत महसूस की जा रही है। आज हम सबके लिए सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि सूखे की आहट पर बिना घबराहट के किसान किस तरह से अपनी खेती सुचारू रुप से कर सकें।
खत्म हो बारिश पर कृषि निर्भरता
अलगप्पा विश्वविद्यालय (तमिलनाडु) में इकोनॉमिक्स और रूरल डेवलेपमेंट विभाग के विभागाध्यक्ष और इकोनॉमिक्स ऑफ इरीगेशन वाटर के विशेषज्ञ कमजोर मानसून की वजह से चहुंओर जल संकट की बात हो रही है। किसानों के लिए यह इसलिए भी अहम है क्योंकि इससे सिंचाई की सुविधाओं पर असर पड़ता है जो कृषि विकास के लिए निर्णायक कारक है।
कृषि की दशा सुधारने के लिए सिंचाई पर निवेश को नकारा नहीं जा सकता। इसके चलते ही 1950-51 में 17 प्रतिशत सिंचित क्षेत्रों का दायरा बढ़कर 2010-11 तक 48 प्रतिशत हो गया। इसी का परिणाम है कि वर्तमान में नौ करोड़ हेक्टयर सिंचित फसल क्षेत्र के साथ भारत दुनिया में सिंचाई तंत्र के लिहाज से सिरमौर बन गया है। इन सबके बावजूद कृषि के लिहाज से मानसूनी बारिश पर निर्भरता लगातार जारी है।
इस पूरी तस्वीर का निराशाजनक पहलू इस बात के लिए मजबूर करता है कि मानसून की कमी से कृषि को कैसे बचाया जाए? वर्षों की एकपक्षीय सिंचाई नीति मानसून के फेल होने की दशा में कृषि को बचाने में नाकाम रही है। परंपरागत सिंचाई तंत्र (टीआइए) मसलन टैंक, तालाब, झीलें आदि की कृषि के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये कम कीमत के स्रोत हैं और किसान ही प्रमुख रूप से इसका प्रबंधन करते हैं। यहां तक कि कमजोर मानसून की स्थिति में भी अपेक्षाकृत कम बड़े आकार के होने के कारण इनको आसानी से भरा जा सकता है और ये किसानों के लिए तारणहार हो सकते हैं। फंड के वितरण में कमी और कमजोर रख-रखाव के चलते इनका सिंचित क्षेत्रों में हिस्सा घटा है। जहां 1950 के दशक में इनका हिस्सा 19 प्रतिशत था वह अब घटकर चार प्रतिशत रह गया है। गरीब किसान इन्हीं टीआइए स्रोतों पर ही निर्भर रहते हैं। इनमें लगातार गिरावट उनके लिए बढ़ती परेशानी का सबब है।
कुछ लोग तर्क देते हैं कि वृहद सिंचाई प्रणाली कमजोर मानसून की स्थिति में बहुत उपयोगी नहीं होती। देश में वृहद सिंचाई प्रणाली या लघु जल निकायों में से कौन सी बेहतर व्यवस्था है, उसका जवाब देना मुश्किल है। दोनों ही कई मामलों में एक-दूसरे के पूरक हैं। दक्षिण भारत में वृहद नहर प्रणाली से कई टैंक भी संबद्ध हैं। इसकी वजह से किसानों के लिए नियमित सिंचाई व्यवस्था हो गई है। जिन क्षेत्रों में वृहद सिंचाई प्रोजेक्ट की संभावना है उनको नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इसी तरह लघु जल निकायों वाले संभावित क्षेत्रों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए। टीआइए को नजरअंदाज करते हुए वृहद सिंचाई प्रणाली विकसित करने की नीति उस देश के लिए बहुत उपयोगी नहीं हो सकती जहां के 70 प्रतिशत छोटे किसान हैं।
जलवायु परिवर्तन संबंधी कारकों के कारण भविष्य में मौसमी दशाओं में भी परिवर्तन होगा। इसलिए सिंचाई नीति में परिवर्तन करते हुए प्रत्येक बूंद का इस्तेमाल करते हुए फसलों की पैदावार बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। देश का सिंचाई परिदृश्य पहले से ही भारी-भरकम नहीं है। एक ओर, कृषि के सघन होने के साथ सिंचित जल की मांग बढ़ी है। दूसरी ओर, ऐसे 14 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र की उत्पत्ति हुई है जिसका 80 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई की संभावना युक्त है। अब यह बेहद जरूरी है कि मानसून के फेल होने की दशा में सिंचाई व्यवस्था को सुधारा जाए जिससे कृषि क्षेत्र को टिकाऊ एवं सुरक्षित बनाया जा सके।
अन्य देशों के अनुभव बताते हैं कि आधुनिक सिंचाई प्रणालियां मसलन ड्रिप और स्प्रिंक्लर (छिड़काव) ज्यादा उपयोगी हैं क्योंकि इसके माध्यम से जल की कमी वाले क्षेत्रों में 100 प्रतिशत जल का उपयोग हो पाता है। कम लागत की ड्रिप सिंचाई प्रणाली की महत्ता के बारे में सघन जागरूकता कार्यक्रम चलाकर इसकी स्वीकार्यता बढ़ाई जा सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि इस तरह की नई लघु-सिंचाई प्रणालियों को अपनाकर कमजोर मानसून से उत्पन्न हुई समस्या से निपटकर कृषि क्षेत्र को बचाया जा सकता है।
डॉ ए नारायणमूर्ति हैं
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कम पानी में तैयार होने वाली प्रजातियां हैं इलाज
धान की ऐसी प्रजातियां विकसित की जा चुकी हैं जो सूखे की स्थिति में भी अच्छी उपज दे सकेंगी। इनको उगाने में कम पानी की जरूरत होती है। इनमें नरेंद्रदेव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय द्वारा विकसित एनडीआर 118, एनडीआर 97 व शुष्क सम्राट शामिल हैं। 100 से 105 दिन में तैयार होने से इन फसलों के लिए कम पानी की जरूरत होती है। सिर्फ धान ही नहीं गेहूं की भी ऐसी किस्में विकसित की गई हैं। आइसीएआर की ड्राईलैंड प्रोजेक्ट इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। नई तकनीक के इस्तेमाल से केवल पानी की ही नहीं बल्कि ऊर्जा व लागत भी कम की जा सकती है। जिन फसलों के पौधों की जड़ें जमीन में ज्यादा गहराई तक नहीं जाती हैं उन्हें ज्यादा और कम अंतराल पर पानी की जरूरत होती है। नई विकसित किस्मों की जड़ें ज्यादा लंबी हैं लिहाजा ये गहराई में जाकर ज्यादा दिनों तक जमीन की नमी सोखकर खुद को जीवित रखने में सक्षम होती हैं। कम बारिश या बारिश न होने की स्थिति में किसानों को रोपाई की जगह बुवाई को प्रमुखता देनी चाहिए। बुवाई वाली फसल अपेक्षाकृत सात से दस दिन पहले पक जाती है। उपज भी रोपाई के अपेक्षा अधिक होती है। इसमें लागत भी कम आती है। केवल बुवाई करके ही 50 प्रतिशत पानी की बचत की जा सकती है।
इस आलेख के लेखक डॉ तेजपाल सिंह कटियार हैं
रिसर्च समन्वयक- (आचार्य नरेंद्रदेव कृषि एंव प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय कुमारगंज, फैजाबाद)
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सूखा प्रतिरोधी फसलें
हम एक दिन में एक, दो या तीन लीटर पानी पीते हैं, लेकिन रोजाना जो खाना खाते हैं उसे पैदा करने के लिए दो से तीन हजार लीटर पानी की जरूरत होती है। चाहे वह शाकाहारी हो या मांसाहारी। ज्यादा खाद्यान्नों के उत्पादन में पानी की समस्या की काट खोजने के लिए दुनिया भर के वैज्ञानिक रात दिन एक किए हुए हैं। ‘मोर क्राप पर ड्राप’ यानी कम पानी में अधिक उपज की अवधारणा पर दुनिया भर में काम कर रहे वैज्ञानिक पौधों के जींस में फेरबदल (जेनेटिक इंजीनियरिंग) कर यह सपना साकार करने में जुटे हैं।
मक्के की प्रजाति: दुनिया की सबसे बड़ी बायोटेक्नालाजी कंपनी मॉनसैंटो सूखा प्रतिरोधी मक्के की प्रजाति विकसित कर चुकी है। अगले चार साल में इसे किसानों तक पहुंचने का अनुमान है। इस प्रजाति की पैदावार तुलनात्मक रूप से अधिक होगी। मेक्सिको में इंटरनेशनल मेज एंड व्हीट इंप्रूवमेंट सेंटर द्वारा विकसित मक्के की प्रजाति अफ्रीका के सूखे क्षेत्रों में उगाई जा रही है।
कम उर्वरक वाली प्रजातियां: कैलिफोर्निया की कंपनी आर्केडिया बायोसाइंसेज ऐसी प्रजाति विकसित कर रही है जिन्हें सामान्य पौधों की तुलना में आधे नाइट्रोजन की जरूरत होगी।
बाढ़ प्रतिरोधी धान: फिलीपींस में इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट धान की एक ऐसी प्रजाति तैयार करने में जुटा है जो बाढ़ में भी बेअसर रहेगी।
जल संग्र्रह करने वाली प्रजाति: कनाडाई कंपनी परफार्मेंस प्लांट्स ने पौधों में एक अतिरिक्त जीन जोड़ते हुए उन्हें सूखे की स्थिति में पानी संग्र्रह करने में सक्षम बनाया है।
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