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सवाल: आज लंदन में आयोजित खेलों के 30वें महाकुंभ ओलंपिक का समापन है। इसी के साथ एक बार फिर यह बहस जोर पकड़ चुकी है कि आखिर ऐसे खेल आयोजनों में हम फिसड्डी क्यों साबित होते रहे हैं? आर्थिक रूप से लगातार तरक्की करने वाले विश्व की महाशक्ति बनने की ओर उन्मुख 120 करोड़ की विशाल आबादी वाला देश खेल महाशक्ति क्यों नहीं बन पा रहा है?
संस्कृति: ‘पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब’ जैसा जुमला ही हमारी खेल संस्कृति की कलई खोलने के लिए काफी है। उचित खेल माहौल के अभाव में हर कोई अपने बच्चे को पढ़ा लिखा कर ऊंचे ओहदे पर बैठाना चाहता है। कुछ साहसी लोग जो धारा के विपरीत अपने बच्चे को इस क्षेत्र में प्रोत्साहित भी करते हैं तो वे इसकी बाधाओं से निपटने में सक्षम होते हैं। सरकार से लेकर शीर्ष सरकारी खेल एजेंसियों तक का रवैया खेलों के प्रति उदासीन है। खेलों में राजनीति हावी है। देश में खेल (क्रिकेट को छोड़कर) के मजहब न बन पाने के लिए ये संस्थाएं काफी उत्तरदायी है। शुरुआती स्तर पर प्रतिभा तलाशने और तराशने का काम भाग्य भरोसे है।
सीख: कुल मिलाकर खेलों के प्रति देश में अच्छा माहौल न होने के चलते लोगों में इसको लेकर नकारात्मक मानसिकता घर कर चुकी है। इस मानसिकता में बदलाव की जरूरत है। खेलों की विश्व शक्ति बनने के लिए हमें फिर से अपनी खेल संस्कृति का चहुंमुखी विकास करना होगा। ओलंपिक के नतीजों के आलोक में खेल संस्कृति को स्थापित करना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
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खेल से खिलवाड़
बेहतर खेल सुविधाओं और प्रशिक्षण के अलावा खिलाड़ियों के भविष्य को भी सुरक्षित करना होगा, तभी मां-बाप अपने बच्चों को खेलों में भेजेंगे।
मैं बार-बार यही कहता हूं कि ओलंपिक के लिए हमारे देश की तैयारी वैसी नहीं है जैसी बाकी देशों की है। आज पूरे विश्व में भारत का कद ऊंचा हो गया है लेकिन खेलों में हम कहीं पर भी नहीं ठहरते है। छोटे-छोटे मुल्क ओलंपिक खेलों की पदक तालिका में हमसे ऊपर दिखाई देते हैैं। निश्चित रूप से कहीं न कहीं कमी है।
हमारे पास संसाधन की नहीं, सिर्फ आत्मबल की कमी है। खेल विभाग ने 40 हजार कोचों को भर्ती कर रखा है लेकिन इन कोचों की बदौलत हम ओलंपिक में पदक नहीं जीत सकते है। मैं देखता हूं विदेशी खिलाड़ियों के कोचों को उनका जब खिलाड़ी मैदान में होता है तो उनकी जान निकली होती है। हमें ऐसे कोचों की आवश्यकता है। मैं देश के उन कोचों के खिलाफ नहीं हूं जो खिलाड़ियों को ट्रेनिंग दे रहे हैैं, लेकिन हमें अगर ओलंपिक में मेडल चाहिए तो कांट्रैक्ट बेस पर कोच को रखना होगा। वो कोच जिनसे कांट्रैक्ट ही यही होगा कि आप हमें ओलंपिक में मेडल दिलवाएंगे। इसके लिए उन्हें सारी सुविधाएं देनी होगी जैसे चीन करता है। विश्व में सबसे लोकप्रिय खेल एथलेटिक्स है। जब तक हम एथलेटिक्स में पदक नहीं लाते हैं। तब तक हमें ऐसे ही एक दो पदकों से संतोष करना पड़ेगा। हां, पिछले एक दो ओलंपिक में हमारे खिलाड़ियों ने अच्छा किया है लेकिन यह निरंतर जारी रहेगा ऐसा लगता नहीं है। हम कब तक भाग्य के सहारे चलते रहेंगे। लंदन ओलंपिक में भी भारतीय एथलीट अपनी छाप नहीं छोड़ सके लेकिन हमें अभी से अगले एक दो ओलंपिक को ध्यान में रख कर काम शुरू कर देना होगा।
मुख्य रूप से तीन एजेंसियां होती हैं जो देश में खेल का सकारात्मक माहौल बनाती हैं। पहला खिलाड़ी। मुझे याद आता है एक ट्रेनिंग कैंप के दौरान ध्यानचंद से जब मैंने उनकी ट्रेनिंग के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया था कि मैं गोल पोस्ट पर साइकिल का टायर बांध देता हूं और हर रोज 500 गेंदें टायर से निकालता हूं। तभी तो हिटलर ने उनकी हॉकी बदलवा दी थी। आज उसी हॉकी में हमारा क्या हाल हो गया है। हम उसी जर्मनी से हार रहे हैं जिसे हिटलर के सामने हमने हराया था।
दूसरी एजेंसी है कोच। कोच वो जो न सिर्फ कड़ी मेहनत करने वाला हो बल्कि खिलाड़ियों को भी टफ बना सके। तीसरी एजेंसी है एसोसिएशन। जब तक यह तीन एजेंसियां एक ही दिशा में काम नहीं करेंगी तब तक ओलंपिक में एथलेटिक्स से पदक की उम्मीद करना बेमानी है। आज चारों तरफउसैन बोल्ट की तूती बोलती है वो क्यों, क्योंकि वो जीतता है। जब आप जीतते है तो लोग आपको चाहते है।
यह सब कुछ अपने-आप नहीं होने वाला है। इसके लिए कई स्तर पर प्रयास करने की आवश्यकता है। खिलाड़ियों के भविष्य को भी सुरक्षित करना होगा, तभी मां-बाप अपने बच्चों को खेलों में भेजेंगे। ओलंपिक में सिल्वर मैडल लाने वाले विजय कुमार को सेना तरक्की नहीं दे रही। वो विजय कुमार, जिसने ओलंपिक, जिसमें 214 देशों के खिलाड़ी हिस्सा ले रहे है, में मैडल जीता। जबकि आठ-दस देशों के खेल क्रिकेट के खिलाड़ी को सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल बना देते हैं। अगर विजय कुमार, मैरी काम, साइना नेहवाल को हम आइकन के रूप में स्थापित नहीं करेंगे तो कोई मां-बाप अपने बच्चों को क्यों खेलने के लिए भेजेगा।
मेडल जीतने वाले खिलाड़ियों का भविष्य सुरक्षित करना होगा। यानी मेडल जीतने वालों को उनके प्रदर्शन के मुताबिक नौकरी दी जाए।
बातचीत पर आधारित
ओलंपिक में भारत को पदक
वर्ष | स्वर्ण | रजत | कांस्य | कुल |
1948 | 01 | 00 | 00 | 01 |
1952 | 01 | 00 | 00 | 01 |
1956 | 01 | 00 | 00 | 01 |
1960 | 00 | 01 | 00 | 01 |
1964 | 01 | 00 | 00 | 01 |
1968 | 00 | 01 | 00 | 01 |
1972 | 00 | 01 | 00 | 01 |
1980 | 01 | 00 | 00 | 01 |
1996 | 00 | 00 | 01 | 01 |
2000 | 00 | 00 | 01 | 01 |
2004 | 00 | 01 | 00 | 01 |
2008 | 01 | 00 | 02 | 03 |
2012 | 00 | 02 | 04 | 06 |
कुल | 09 | 08 | 08 | 25 |
ओलंपिक में चीन को पदक
वर्ष | स्वर्ण | रजत | कांस्य | कुल |
1952 | 00 | 00 | 00 | 00 |
1984 | 15 | 08 | 09 | 32 |
1988 | 05 | 11 | 12 | 28 |
1992 | 16 | 22 | 16 | 54 |
1992 | 16 | 22 | 16 | 54 |
1996 | 16 | 22 | 12 | 50 |
2000 | 28 | 16 | 14 | 58 |
2004 | 32 | 17 | 14 | 63 |
2008 | 51 | 21 | 28 | 100 |
2012 | 38 | 27 | 22 | 87 |
कुल | 201 | 144 | 127 | 471 |
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