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घातक हो सकता है रिवर्स माइग्रेशन

मुद्दा
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ले लत्ता, चल कलकत्ता। जब तक यह जुमला चलन में रहा तब तक कोलकाता की तूती बोलती रही। लेकिन जिस दिन से प्रवासियों ने कोलकाता को छोड़ना शुरू किया, वहां की रौनक भी विदा हो गई। मुंबई में राज ठाकरे के राजनीतिक उदय के बाद से यही कहानी मुंबई में भी दोहराए जाने की आशंका व्यक्त की जाने लगी है।


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अंग्र्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में कदम रखने के बाद से 1967 तक कोलकाता (तब कलकत्ता) देश का नंबर एक महानगर माना जाता था। पार्क स्ट्रीट और चौरंगी लेन पर कंपनियों का मुख्यालय रखना उद्योगपतियों-व्यावसायियों के लिए प्रतिष्ठा की बात हुआ करती थी। 1967 में शुरू हुए वामपंथी आंदोलन के दौरान जब ‘बिहारी महामारी’  का नारा गूंजा तो असुरक्षा के चलते बिहारियों ने कोलकाता छोड़ना शुरू कर दिया। जूट मिलों की चिमनियां बंद होने लगीं, चाय के बागान वीरान होने लगे। काम करने वाले मजदूर भागे तो उद्योगपतियों ने अपनी उत्पादन इकाइयां मुंबई, अहमदाबाद और दिल्ली की ओर स्थानांतरित करनी शुरू कर दी। कुछ समय बाद पार्क स्ट्रीट और चौरंगी लेन के प्रतिष्ठित पते से भी उनका मोह भंग हो गया।


कुछ ऐसी ही कहानी 2008 में राज ठाकरे ने मुंबई में शुरू की। मुंबई से बाहर यह आग कल्याण, नासिक और पुणे तक जा पहुंची। नासिक में बड़े पैमाने पर हुई हिंसा के कारण बड़ी संख्या में प्रवासी उत्तर भारतीय शहर छोड़कर अपने-अपने घरों को लौट गए। पुणे और मुंबई से भी लोगों का पलायन हुआ। नतीजा यह हुआ कि नासिक के इर्द-गिर्द बड़ी संख्या में स्थित औद्योगिक इकाइयों में मेहनतकश मजदूरों की संख्या में 40 प्रतिशत तक कमी आ गई है। इस प्रकार 1980 में डॉ दत्ता सामंत द्वारा मुंबई की कपड़ा मिलों में करवाई गई हड़ताल से देश की आर्थिक राजधानी की रौनक विदा होने लगी। आज राज ठाकरे का आंदोलन इस जाती रौनक को और बदतर स्वरूप दे रहा है। जिसके फलस्वरूप दवा, रसायन और ऑटो पाट्र्स से जुड़े उद्योगों ने पड़ोसी राज्य गुजरात में ठिकाना तलाशना शुरू कर दिया है।


मुंबई से चार घंटे की दूरी पर स्थित गुजरात का व्यावसायिक शहर सूरत हीरे की कटाई-घिसाई का दुनिया का सबसे बड़ा केंद्र है। वहां काम करने वाले आधे से ज्यादा लोग उत्तर प्रदेश और बिहार के हैैं। पिछले कुछ वर्षों से दीवाली की छुट्टी पर जाने वाले कामगारों में से 60 प्रतिशत ही वापस आते हैैं। वापस न लौटने वाले बिहारी मजदूरों में से कुछ ने अपना रोजगार शुरू कर दिया है, तो कुछ मनरेगा जैसी योजनाओं से संतुष्ट हो जाते हैं। प्रशिक्षित हीरा कामगारों के वापस न लौटने से परेशान कंपनियां अब पटना में ही हीरा तराशी का नया केंद्र खोलने पर विचार करने लगी है। पंजाब में तो बिहारी कृषि मजदूरों के पलायन से परेशान भूमालिक उन्हें वापस बुलाने के लिए साइकिल और मोबाइल तक देने का लालच दे रहे है।


इस आलेख के लेखक ओमप्रकाश तिवारी हैं


Tag: political, Raj Thackeray, Marathi manoos, Uttar Pradesh, Bihar, migration


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