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चीन की चमक

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चीन की चमक

1984 में ओलंपिक खेलों का पहला पदक जीतने वाला चीन खेलों की महाशक्ति बन चुका है। 2008 के बीजिंग में आयोजित इस खेल महाकुंभ में उसके पदकों की संख्या तीन गुनी हो चुकी है। इस अभूतपूर्व सफलता के पीछे वहां एक मजबूत खेल संस्कृति का होना है।


टैलेंट पूल: 130 करोड़ की विशाल आबादी देश के लिए एक बहुआयामी टैलेंट पूल साबित हो रही है। आर्थिक संपन्नता से लोग पोषण पर ध्यान दे रहे हैं जिससे मजबूत कद कदकाठी वाली आबादी बढ़ रही है।


स्टेट डायरेक्टेड एथलेटिक प्रोग्र्राम: पूर्व सोवियत रूस और क्यूबा के नक्शे कदम पर चलते हुए चीन ने खिलाड़ियों को तैयार करने का कार्यक्रम शुरू किया। पदक विजेता तैयार करने वाला यह दुनिया का सबसे बड़ा और अच्छी तरह से वित्तीय सुविधा प्राप्त कार्यक्रम है। इसके तहत देश भर में सरकारी मदद से 15000 स्पोर्टिंग स्कूल चलाए जा रहे हैं। टैलेंट और क्षमता की बच्चों की शुरुआती आयु में ही पहचान कर उन्हें इन बोर्डिंग स्कूलों में भेज दिया जाता है।


भारी भरकम खर्च: हालांकि सरकार के इस विशिष्ट कार्यक्रम का बजट गुप्त रखा जाता है, लेकिन कुछ साल पहले यह जानकारी सार्वजनिक हुई कि 2004 एथेंस ओलंपिक की तैयारी में चीन ने करीब तीन अरब डॉलर रकम खर्च की थी। इस ओलंपिक में इसे 63 पदक प्राप्त हुए थे।


सही लक्ष्य का चुनाव: खिलाड़ियों के कद काठी और शारीरिक बनावट के अनुकूल खेलों का चयन बड़ी रणनीति के तहत किया जाता है। चूंकि चीनियों की शारीरिक बनावट अफ्रीकी और यूरोपीय लोगों से अलहदा होती है लिहाजा चीन ट्रैक और फील्ड जैसी स्पर्धाओं की तैयारी में धन नहीं बर्बाद करता। इनकी जगह ये लोग ऐसे खेलों पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं जिनके लिए वर्षों की मेहनत, प्रशिक्षण जरूरी होता है। जिनसे धनी देशों के खिलाड़ी किनारा कर लेते हैं। जैसे भारोत्तोलन


महिला खिलाड़ियों पर खास ध्यान: पदक जीतने की रणनीति में चीन का सबसे अहम ध्यान महिला खिलाड़ी होती हैं। नतीजतन सफलता के लिहाज से चीन की महिला खिलाड़ी वहां के पुरुष खिलाड़ियों पर भारी पड़ती है। पिछले तीस साल में चीन द्वारा जीते गए सभी पदकों में से 60 फीसद पदक महिला खिलाड़ियों द्वारा हासिल किए गए हैं।

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दो देश दो रुख

चीन, भारत की तुलना हमेशा से दोनों देशों की जनभावना से जुड़ी है। हम भले ही तर्कों के ढाल से खुद को श्रेष्ठ साबित करें, लेकिन कहानी कुछ जुदा ही है। हाल में चीन में सबसे बड़ा खेल आयोजन 2008 ओलंपिक था। हमने 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी की। आइए, खेलों के प्रति दोनों देशों के आयोजन पर एक नजर डालें:


अति उत्साह: चीन के लोग पदक जीतने से ज्यादा पदक तालिका में शीर्ष पर रहने को वरीयता देते हैं। हम लोग एक पदक पर भी आसमान सिर पर उठा लेते हैं। बीजिंग में अभिनव बिंद्रा ने जब सोने पर निशाना साधा तो पूरे देश की मनोदशा सातवें आसमान पर पहुंच गई। उस दिन चीन के सरकारी अखबार द्वारा लगाया गया शीर्षक ‘ अ नेशन ऑफ अ बिलियन पीपुल विंस इट्स फस्र्ट गोल्ड’ हमें धरती पर उतरने को मजबूर कर देती है।


तैयारी और घरेलू माहौल का फायदा: 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों में हमारे खिलाड़ियों को घर के आयोजन का बहुत फायदा नहीं मिला। कायदे से तो उन्हें सारे स्टेडियम और नई खेल संरचनाओं पर ही प्रशिक्षण लेना चाहिए था लेकिन खेल शुरू होने तक उनका निर्माण कार्य ही चल रहा था। वहीं चीन में 2008 के ओलंपिक की खेल संरचनाओं की तैयारी से कहीं पहले ही इसकी प्रतिस्पर्धाओं के लिए खिलाड़ियों को तराशना शुरू कर दिया गया था। जैसे ही 2001 में उसे ओलंपिक की मेजबानी मिली उसने अपने महत्वाकांक्षी खेल प्रोजेक्ट ‘विनिंग प्राइड एट द ओलंपिक्स’ की घोषणा की। इस प्रोजेक्ट के तहत चीन ने विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में आसानी से स्वर्ण पदक जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया। सरकार के स्तर पर खेल स्पर्धाओं और स्वर्ण पदकों के लिए स्पष्ट रुख वाली नीति और रणनीति लागू की गई। इसके साथ ही देश ने प्रोजेक्ट 119 की शुरुआत भी की। इस प्रोजेक्ट में 2000 के ओलंपिक में खुद के प्रदर्शन के आधार पर बताया गया था कि चीन कैसे 119 स्वर्ण जीत सकता है। तैयारी के लिए धन के प्रवाह में कभी रुकावट नहीं आई। खेल बजट 30 करोड़ डॉलर की वृद्धि के साथ 70 करोड़ डॉलर पर पहुंच गया। सभी महिला खेल प्रतिस्पर्धाओं पर जमकर निवेश हुआ। महिला खिलाड़ियों पर विशेष ध्यान दिए जाने का नतीजा भी दिखा। बीजिंग ओलंपिक में चीन की महिला खिलाड़ियों ने 46 स्वर्ण पदक जीते।


फिर भी उम्मीद कायम है

यह सच है कि हम ओलंपिक मेडल टैली में कुछ बेहतर नहीं कर पाए लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि विगत वर्षों में हमारा प्रदर्शन बेहतर होता गया है। एथलेटिक्स सभी खेलों की जननी है। ग्वांग्झू एशियन खेलों (2010) में 12 पदक जीतकर हम चीन के बाद दूसरे स्थान पर रहे थे। उन पदकों में से पांच स्वर्ण थे। इसी तरह तीरंदाजी, निशानेबाजी, कुश्ती और मुक्केबाजी में कम से कम 20 खिलाड़ी ऐसे हैं जिनको दुनिया के शीर्ष 10 में गिना जा सकता है। यह इस बात को बताता है कि लगभग सभी खेलों में हम एशियाई ताकत बनकर उभर रहे हैं और हमारी हार का अंतर कम होता जा रहा है। हालांकि यह अंतर बहुत ज्यादा है लेकिन तत्काल जबर्दस्त वैश्विक स्पर्धा के युग में जीरो से हीरो बनने की कल्पना नहीं कर सकते।


एथलेटिक्स

(2010 के बाद प्रदर्शन)

2012

डिस्कस थ्रो (पुरुष)

विकास गौड़ा (66.28 मी) ने पिछले आठ महीने की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया


शॉट पुट (पुरुष) :

ओम प्रकाश करहाना (20.69 मी) ने शक्ति सिंह के 12 वर्ष पुराने रिकॉर्ड को तोड़ा

20 किमी वॉक (पुरुष)

ओलंपिक में के. इरफान 10 वें स्थान पर रहे लेकिन 15 महीने पुराने राष्ट्रीय रिकॉर्ड से महज 15 सेकंड से चूके

110 मी हर्डल्स (पुरुष)

सिद्धार्थ थिंगालय (13.65 सेकंड) ने एक साल में दो राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाए

हाइ जंप (महिला)

साहना कुमारी (1.92 मी) ने बॉबी एलोयसिस के आठ साल पुराने रिकॉर्ड को तोड़ा

3000 मी स्टेपलचेज (महिला)

सुधा सिंह ने अपने एक महीने पुराने राष्ट्रीय रिकॉर्ड को तोड़ा

2011

ट्रिपल जंप (महिला)

मयूखा जॉनी (14.11 मी) ने 23 महीने पुराने रिकॉर्ड को तोड़ा

2010

ट्रिपल जंप (पुरुष)

रंजीत महेश्वरी (17.07 मी) ने अपने तीन साल पुराने रिकॉर्ड को तोड़ा

800 (महिला)

टिंटू लुका ने शाइनी विल्सन के 15 साल पुराने राष्ट्रीय रिकॉर्ड को तोड़ा


तैराकी

2009 से लेकर अब तक 28 राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़े गए


तीरंदाजी

महिला और पुरुष टीम लगातार विश्व की टॉप 5 टीमों में शामिल हैं


बॉक्सिंग

बीजिंग ओलंपिक के बाद से पांच मुक्केबाज दुनिया के टॉप 10 रैंकिंग में शामिल


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