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छोटे राज्य या नए राज्य का गठन किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकते हैं। भाषा मात्र नए राज्य बनने का आधार नहीं हो सकती है। नए राज्य के गठन के लिए जनता का मत जानना जरूरी होना चाहिए। इसके लिए जनमत कराना एक माध्यम हो सकता है। नए राज्य की मांगों के संदर्भ में दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग को गठित करने की तुरंत आवश्यकता है। अगर आयोग को गठित करने में विलंब किया गया तो देश के विभिन्न हिस्सों में असंतोष पैदा होगा जिसकी अभिव्यक्ति दंगों और उपद्रवों में भी हो सकती है, जो दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
जब तक आयोग को गठित करने की प्रक्रिया शुरू होती है और घोषणा की जाती है तब तक इस आशय का एक बयान सरकार की ओर से आना चाहिए। आयोग को सरकार द्वारा दिए जाने वाले निर्देशों एवं विचारणीय विषयों के आधार पर प्रशासनिक कुशलता, न्यायोचित शासन प्रणाली, आर्थिक एवं भौगोलिक योग्यता तथा क्षमता के आधार पर किसी भी नए राज्य के गठन की संभावनाओं का आकलन किया जाना चाहिए। आयोग को स्थानीय निकायों एवं पंचायतों और राज्य सरकार के बीच संबंधों पर भी विचार के लिए निर्देश दिए जाने चाहिए।
गठित आयोग के सामने देश में बढ़ते हुए शहरीकरण के मुद्दे को भी विचार के लिए रखा जाना चाहिए जिससे आने वाले समय में बड़े शहरों के संचालन के लिए उचित व्यवस्था का प्रारूप बनाया जा सके और राज्य सरकारों और इन विशाल नगरों के बीच सामंजस्य स्थापित हो सके। अभी बड़े शहरों और राज्य सरकारों के बीच कानून व्यवस्था और राजस्व को लेकर मतभेद सामने आने लगे हैं।
इस प्रकार से पृथक राज्यों की बढ़ती हुई मांगों को एक सकारात्मक मार्ग पर मोड़ा जा सकता है और देश में विकास की गति को तेज किया जा सकता है। इस तरीके से सभी क्षेत्रों का समग्र विकास किया जा सकता है।
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खूबियां और खामियां
छोटे राज्यों के पक्ष-विपक्ष में चल रही बहस के बीच इनकी मांग के तीन प्रमुख कारणों पर एक नजर :
1. ‘कांग्रेसी राज के बाद के दौर’ में जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर उपजी ‘क्षेत्रीय’ पार्टियों ने राजनीतिक और सामाजिक विभाजन को उभारा। इसके चलते ‘राष्ट्रीय’ पार्टियों में भी एक विशिष्ट किस्म का स्थानीय चरित्र उभरा और वे राज्य या क्षेत्र के चुनावी अभियानों और नीतियों में दिखे
2. पूरे देश में केंद्रीकृत संघीय ढांचे का विकास-नियोजन मॉडल राज्यों और उनके भीतर समान विकास के लक्ष्य को नहीं पाने के कारण फेल हो गया। उसके बाद नव-उदार बाजार अर्थव्यवस्था ने भी आय और उपभोग के स्तर पर क्षेत्रीय विषमताओं को बढ़ाया। इससे उपेक्षा और भेदभाव की भावना बढ़ी। बड़े राज्यों के भीतर अपेक्षाकृत विकसित क्षेत्रों में निजी निवेश का प्रवाह बढ़ा। उसकी तुलना में कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति वाले और कमजोर आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे वाले क्षेत्र वंचित रहे
3. जिन क्षेत्रों में निजी निवेश का प्रवाह और आर्थिक वृद्धि हुई उनमें राजस्व के मसले पर कम विकसित क्षेत्रों पर निर्भरता की वजह से असंतोष उपजा। स्थानीय प्रभावी तबके ने विपरीत भेदभाव की शिकायत की क्योंकि प्रभावी राजनीतिक क्षेत्र वित्तीय समझौते, लाभ और पद लेने में आगे रहे। बदले में उन्होंने अपनी पूर्ण सत्ता वाले पृथक राज्य की मांग की
पक्ष (छोटे राज्य)
1. छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड के दबे-कुचले पिछड़े क्षेत्रों में भी विकास की संभावनाएं जगी हैं
2. भाषाई और सांस्कृतिक समानता होती है। नीति नियंता स्थानीय जरूरतों को जानते हैं। सामाजिक और आर्थिक सेवाओं के लिए वित्तीय स्रोतों का आवंटन, प्रबंधन और क्रियान्वयन बेहतर होता है
3. सरकार के गठन में सभी तबकों को बेहतर प्रतिनिधित्व मिलता है। शासन में सुविधा होती है
विपक्ष
1. क्षेत्रीय और भाषाई उन्माद के बढ़ने से राष्ट्रीय एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो सकता है
2. बड़े राज्यों में अपेक्षाकृत अधिक स्थायित्व होता है
3. ये राज्य अपनी छोटी अर्थव्यस्था के कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कारपोरेशन के दबाव में आ सकते हैं। नए क्षेत्रीय आभिजात्य तबके का लालच भी खतरा उत्पन्न कर सकता है
4. लोकतांत्रिक और विकास की संभावनाओं के निष्पक्ष आकलन के बजाय राजनीतिक अवसरवाद के कारण भी इस तरह के राज्य बना दिए जाते हैं
4 अगस्त को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘छोटे राज्य बड़ी बहस’पढ़ने के लिए क्लिक करें.
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