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दो धमाके दो चिंताएं

मुद्दा
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बोस्टन शहर के धमाकों ने यह भरम तोड़ दिया है कि सर्वशक्तिमान अमेरिका ने दहशतगर्दी पर जीत हासिल कर ली है और बाकी दुनिया चाहे अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की छाया में सहमी रहने को मजबूर हो कोई उसका बाल बांका नहीं कर सकता। इसी तरह बेंगलूर के विस्फोट ने यह बात शर्मनाक तरीके से उजागर कर दी है कि गाल बजाने में माहिर हमारी सरकार वास्तव में कितनी लाचार है। यह सवाल नाजायज नहीं कि क्यों हम हर जगह दहशतगर्दी के खिलाफ जंग हारते नजर आ रहे हैं?


दो बातें शुरू में ही समझ लेना जरूरी है। अमेरिका हो या इजरायल, भारत हो अथवा रूस या चीन, आत्मघाती हमले से शत-प्रतिशत बचाव असंभव है। जटिल टेक्नोलॉजी पर निर्भर अत्याधुनिक शहरी समाज में यह जोखिम सदा बना रहेगा कि कोई ‘सिरफिरा’ हथियारबंद ‘दुश्मन’ अपने खूनखराबे वाले कारनामों को अचानक कहीं भी अंजाम दे सकता है। दूसरी असलियत इस तरह के पागलपन वाले असामाजिक-आपराधिक आचरण के स्नोत तलाशने से जुड़ी है। जिस समाज में दूसरे देशों की संप्रभुता का उल्लंघन सहज भाव से स्वीकार किया जाता है खुद को निरापद रखने के लिये सामरिक अनिवार्यता के अतियथार्थ वादी तर्क के तहत वहां बौखलाए ‘कमजोर’ बैरी का प्रतिहिंसा में कायराना वार उसके लिये एकमात्र प्रतीकात्मक ही सही विकल्प नजर आता है। यह ना समझें कि हम इसे जायज ठहरा रहे हैं हमारा मकसद सिर्फ यह रेखांकित करना है कि हर हादसे के बाद तत्काल विश्लेषण के लालच में किसी नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाजी से बचना चाहिए।


दूसरे शब्दों में बोस्टन और बेंगलूर की घटनाओं में बुनियादी फर्क समझने की जरूरत है। यदि अमेरिका होमलैंड को एक दशक से अधिक समय तक निरापद रख सका है (बीच-बीच में छिट-पुट मामलों को छोड़कर) तो इसे आतंकवाद पर उसकी कामयाबी ही कहा जाना चाहिए, हार नहीं। अफगानिस्तान, ईराक, लीबिया, सीरिया आदि में जिस तरह का तबाही फैलाने वाला हस्तक्षेप अमेरिकी नेतृत्व में हुआ है उसके मद्देनजर जवाबी हमला नगण्य हरकत ही कहा जा सकता है। बेंगलूर इस बात का उदाहरण है कि कैसे शुतुरमुर्गी अंदाज में पीछा करते जानलेवा दुश्मन का मुकाबला करने वाली सरकार इस संकट से निरीह नागरिकों को मुक्त नहीं कर सकती। छद्म धर्मनिरपेक्षता के बहाने अल्पसंख्यक वोटबैंक को हथियाने की लालच में केंद्र तथा राज्य सरकारें  अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति अपनाती रही हैं। ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता’ कहते मौका परस्त राजनेता कभी आतंकवाद के आरोपियों के मानवाधिकारों की हिफाजत की जिम्मेदारी उठाने लगते हैं तो कभी जांच पड़ताल पूरी होने के पहले ही अभियुक्त को निर्दोष करार देते हैं , पुलिस को फर्जी मुठभेड़ का आरोपी बना कठघरे में खडा करने वाले बड़े नेता कम नहीं। इसके बाद यदि पुलिस तथा खुफिया कर्मचारियों का मनोबल टूट जाता है तो इसमें अचरज किस बात का? भ्रष्ट अफसरों तथा गठित अपराधियों की आतंकवादियों से साठ-गांठ भी एकाधिक बार जगजाहिर हो चुकी है।

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आतंकी अट्टहास


सीख

होश संभालते ही हम सब यह सुनते और सीखते चले आ रहे हैं कि बुराई पर अच्छाई की जीत होती है, लेकिन अमेरिका के बोस्टन के बाद बेंगलूर में हुए आतंकी धमाकों की गूंज में यह सीख आज गुम होती दिख रही है। आज हमारे अपने और अपनों की वजह से अच्छाई पर बुराई भारी पड़  रही है। तमाम कोशिशों के बावजूद हम सब न तो घरेलू और न ही वैश्विक स्तर पर आतंकवादी गतिविधियों को रोकने में कामयाब हो सके हैं।


सुरक्षा

आज हमारी अहम जरूरतों रोटी, कपड़ा और मकान की सूची में एक नाम और जुड़ चुका है। वह है सुरक्षा। आतंकवादी घटनाओं की बढ़ती प्रवृत्ति से हर कोई बेचैन है। अगर कहीं बेचैनी नहीं दिखती तो वह हैं हमारे माननीय और नीति नियंता। कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। लेकिन अगर कोशिश ही न हो तो कोई क्या करे। दुश्मनों के बीच घिरा अदना सा इजरायल कैसे भी खुद को सुरक्षित रखे हुए है।


सवाल

दुनिया में आतंकवाद से सर्वाधिक भुक्तभोगी हम हैं। फिर भी इसके समूल खात्मे के लिए युद्धस्तर की कोशिश से हिचकिचाहट समझ से परे है। नीतियां और रणनीतियां बनती हैं लेकिन लागू करने पर एक राय नहीं बन पाती। ‘ये उनका ये हमारा’ हित के चक्कर में बार-बार हर बार आम जनता का लहू बहाया जा रहा है। एक तो आतंकवादी मामलों के निपटारे में सालों साल लग जाते हैं। ऊपर से आतंकवादियों को सख्त सजा देने के मसले पर वोटबैंक की राजनीति हावी हो चली है। ऐसे में सुबह को निकले हर एक आम आदमी के मन मस्तिष्क में शाम तक सुरक्षित घर लौटने की सोच बैठा पाना हम सभी के लिए बड़ा मुद्दा है।


21अप्रैल  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘कानून नहीं, लगता है माननीय हो चुके हैं अंधे’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

21अप्रैल  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘आसान निशानों पर बढ़ता खतरा’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


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