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निर्णायक जीत-हार का है अभी इंतजार

मुद्दा
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लोकतंत्र होगा मजबूत

प्रो इम्तियाज अहमद

(वरिष्ठ राजनीतिक समाजशास्त्री)

जिस प्रक्रिया के कारण राजनेताओं को सजा मिली, यदि वह आगे भी चलती रही तो उसका फायदा सरकार को भी होगा और जनता को भी।वैश्वीकरण के बाद जैसे-जैसे पैसा आया, उसी के साथ-साथ राजनेताओं की भूख भी बढ़ी। साथ ही नई टेक्नोलॉजी के कारण सरकार में पारदर्शिता भी आई। जिसके कारण नेताओं के भाव भी बढ़े और भ्रष्टाचार का स्तर भी बढ़ा। कुल मिलाकर परिस्थिति ऐसी बनी कि सरकार के ढांचे में भ्रष्टाचार फैला जिसने लोगों को परेशान करना शुरू कर दिया। भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को बड़े पैमाने पर समर्थन की वजह यही थी।


आम आदमी के मन में निराशापूर्ण अवधारणा बनी कि राजनेता का कुछ नहीं किया जा सकता। राजनेता राजनीतिक ढांचे का भाग होने के बावजूद वह सिस्टम से अलग है। उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। सरकार ने जिस तरह सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद करने की कोशिश की जिसमें सभी राजनीतिक दल शामिल थे, उससे आम आदमी की अवधारणा और भी मजबूत हुई। नेता सिस्टम से ऊपर है इसलिए कोई उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता क्योंकि सरकार स्वयं ही दागी राजनेताओं का बचाव कर रही है। अगर ऐसा न होता तो अध्यादेश न लागू करती, परंतु जिस प्रकार से व्यापक विरोध की लहर दौड़ी उसने सरकार को पीछे लौटने पर मजबूर कर दिया।


अध्यादेश तो वापस हो गया साथ ही कुछ दागी नेता जिनके खिलाफ मुकदमे चल रहे थे फैसला भी आ गया। सभी की चार से पांच साल की सजा के आदेश अदालत ने दिए। कई और सांसदों और राजनेताओं के खिलाफ चल रहे हैं। प्रश्न यह उठता है कि क्या इन सबसे राजनेताओं की चेतना जाग जाएगी? क्या संसद और राजनेता हिल जाएंगे ताकि आगे दूसरे सांसद और राजनेता वो न करे जो लालू यादव, रशीद मसूद ने किया? क्या लोगों का सिस्टम पर विश्वास बढ़ेगा? राजनेता और सांसद पर क्या प्रभाव होगा कहना मुश्किल है। जो भ्रष्ट है भ्रष्टाचार करेगा इस विचार से कि अगर दूसरे पकड़े गए तो जरूरी नहीं कि वो भी पकड़ा जाएगा। लेकिन इतना जरूर है कि हेरा-फेरी करने से पहले सोचेगा जरूर। लोकतंत्र में जनता सबसे ऊपर होती है। सरकार में उसका विश्वास टूट जाए तो जनता कि नजरों में वैधता खत्म हो जाती है। यह एक चुनौती है जिसका सामना कोई भी सरकार नहीं करना चाहती। मेरी समझ है कि  जो हुआ उससे लोगों का विश्वास सरकार में मजबूत हुआ है।

………….


निर्णायक जीत-हार का है अभी इंतजार

पुष्पेश पंत

(प्रो जेएनयू)


भारतीय जनतंत्र की गरिमा को पुन: प्रतिष्ठित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर बाकी अन्य दागदार राजनेताओं पर देखना अभी बाकी है। हमें लगता है कि जनतंत्र के शुद्धीकरण की इस लड़ाई में अभी निर्णायक जीत-हार बाकी है।


यह ना भूलें कि कानून और व्यवस्था राज्य सरकार के अधीन मुद्दा है। अर्थात् किसी भी अभियोग की प्राथमिकी दर्ज करना स्थानीय पुलिस चौकी या थाने की जिम्मेदारी है। क्या कोई भी दुनियादार समझदार इंसान यह मान सकता है कि अब कद्दावर सत्तारूढ़ या असरदार आरोपी के खिलाफ सिपाही-थानेदार अब बेखौफ शिकायत दर्ज करने लगेंगे अथवा यदि मीडिया या सतर्क नागरिक समाज के दवाब में ऐसा कर भी लेंगे तो संवेदनशील राजनीतिक मामले की तफ्तीश ईमानदारी और निष्पक्ष भाव से निर्भय करेंगे? सजा तो अभियुक्त को निचली अदालत से भी तब होगी जब जांच ठीक से होगी, अगर गवाह तोड़कर या सबूत नष्ट कर मुकदमे की नींव ही कमजोर कर दी जाएगी तब दो साल तो दूर की बात है छह महीने लिए भी किसी को जेल की हवा खिलाना असंभव हो जाएगा। हमें चिंता है कि इस बार जो महारथी कारामाती नेता शिकंजे में फंसे हैं वह सिर्फ इस कारण कि किसी को सुप्रीम कोर्ट के इस वज्रपात का पूर्वाभास नहीं था। निश्चय ही शासक वर्ग समय बीतने के साथ जवाबी हमले की रणनीति बनाने में जुट जाएगा। जायज-नाजायज सभी विकल्प तलाशे जा रहे हैं। माई-बाप, संरक्षक या सजातीय नेता का चरण चुंबन करने या उनकी जूतियां चमकाने वाले किसी पुलिस अधिकारी से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि इस घटना के बाद उनका जीवन दर्शन बदल जाएगा या वह यह सोचने लगेंगे कि नदी में रह कर भी वह मगरमच्छ से बैर कर सकते हैं। आज ईमानदार अफसर को तबादले या मुअत्तली का ही खौफ नहीं -वह अपनी जान से भी हाथ गंवा सकता है। आज आपराधिक मानसिकता वाले दागी नेता को न तो कानून का डर है न बदनामी का। जितनी बदनामी बढ़ती है उतना ही आतंक और राजनीतिक प्रभाव बढता है!

बहरहाल इस फैसले के आलोक में नये, महत्वाकांक्षी और अब तक बेदाग छविवाले प्रत्याशी ‘सिंहासन खाली करो’ की ललकार बुलंद करने लगे हैं।

बदलाव की बयार

आश्चर्यजनक रूप से राजनीतिक सुधारों को एकाएक गति मिलती दिखी है। आश्चर्यजनक इसलिए कि इन सुधारों की पहल जहां से होनी चाहिए थी वहां से नहीं, कहीं और से हुई। जी हां, कानून बनाने वाले हमारे राजनीतिक वर्ग ने इन चुनाव सुधारों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई बल्कि उनमें रोड़े ही अटकाए। देश की अन्य संस्थाओं द्वारा हाल फिलहाल चुनाव सुधार को लेकर बड़े कदम उठाए गए। पेश है एक नजर:


चुनें नेक, खारिज करें अनेक

27 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब ईवीएम यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में ही चुनाव आयोग को एक अतिरिक्त बटन लगवाना होगा। इस बटन के सामने ‘इनमें से कोई नहीं’ या फिर ऐसा ही कुछ लिखा जा सकता है। अगर मतदाता की अपेक्षाओं पर कोई भी उम्मीदवार खरा नहीं उतर रहा है तो वह अब इस बटन को दबाकर अपनी नापसंदगी जाहिर कर सकता है।


फायदा: अभी वर्तमान व्यवस्था का इस्तेमाल बहुत व्यापक स्तर पर नहीं हो पा रहा है। मतदाताओं में जागरूकता की कमी के चलते अधिकांश लोग इस प्रावधान से वाकिफ ही नहीं होते हैं। कुछ तो जानते हैं लेकिन लंबी प्रक्रिया या संकोच के चलते वोट देने ही नहीं जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनके मत के दुरुपयोग की संभावना रहती है। ईवीएम पर अतिरिक्त बटन या ‘इनमें से कोई नहीं’ बटन की सुविधा के बाद कोई भी जाकर बटन को दबा सकेगा। इस तरह केवल वह ही जान सकेगा कि उसने कौन सा बटन दबाया है।


दागी जनप्रतिनिधि हों अयोग्य

लिली थॉमस और लोक प्रहरी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को फैसला दिया। अपने फैसले में कोर्ट ने अदालत से दोषी करार होने के बावजूद सांसदी-विधायकी कायम रखने वाली जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को असंवैधानिक ठहराया। अहम फैसले के अनुसार यदि कोई विधायक या सांसद किसी ऐसे आरोप में दोषी पाया जाता है जिसमें कम से कम दो साल की सजा का प्रावधान हो तो तत्काल प्रभाव से उसे अपनी सदस्यता छोड़नी होगी।


आरटीआइ के दायरे में दल

इसी साल तीन जून को केंद्रीय सूचना आयोग ने अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि छह प्रमुख राजनीतिक दल (कांग्र्रेस, भाजपा, राकांपा, बसपा, सीपीआइ और माकपा) आरटीआइ के दायरे में आते हैं। क्योंकि वे सरकार से वित्त सहित कई सुविधाओं और सहूलियतों का उपभोग करते हैं। इस फैसले का मतलब यह है कि कोई भी नागरिक इन राजनीतिक दलों से इनकेसंचालन और वित्त संबंधी जानकारी मांग सकता है।


घोषणापत्रों में मुफ्त उपहार

पांच जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह राजनीतिक दलों के साथ मशविरा करके एक ऐसा दिशानिर्देश तैयार करे जिससे पार्टियों द्वारा चुनाव के समय उनके घोषणा पत्रों में मुफ्त उपहारों के वादों का नियमन किया जा सके। जिससे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा को साकार किया जा सके।


जेल से चुनाव लड़ने के अयोग्य

दस जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाई कोर्ट के फैसले पर मुहर लगाते हुए व्यवस्था दी कि जेल में रहते हुए कोई व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता है। चीफ इलेक्शन कमिश्नर बनाम जन चौकीदार (गैर सरकारी संगठन) मामले में यह फैसला आया। हालांकि सरकार ने इस पर संशोधन लाकर इसे निष्प्रभावी कर दिया है।


हलफनामा भरने की अनिवार्यता

दो मई, 2002 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इसमें उसने कहा कि चुनाव में नामांकन के समय हर उम्मीदवार को उससे जुड़े प्रत्येक विवरण को सार्वजनिक करना होगा। मसलन उसकी संपत्ति, उसके ऊपर आपराधिक मामले, कहां तक शिक्षा प्राप्त की इत्यादि। यह फैसला भारत सरकार बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स मामले में सुनाया गया। बाद में सरकार ने  इसे निष्प्रभावी करने का प्रयास किया लेकिन 13 मार्च, 2003 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला निष्प्रभावी करने वाले कानून को रद करते हुए अपने पूर्व के फैसले पर फिर से मुहर लगाई।


6 अक्टूबर  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘विश्वसनीयता का संकट’ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


6 अक्टूबर  को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘शुद्धीकरण का शुभारंभ !‘ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.

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