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न्याय के हथियार में लगता जंग

मुद्दा
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देश को आजादी मिलने के बाद अब तक सूचना का अधिकार कानून ही ऐसा हथियार है जिसने आम नागरिक को यह अधिकार दिया कि वह प्रशासन में अपनी संप्रभुता के उपयोग और दुरुपयोग पर नैतिक रूप से सवाल खड़ा कर सके। वोट करने का अधिकार जरूरी था, लेकिन सरकार की जवाबदेही की मांग के लिए पर्याप्त नहीं था। सूचना के अधिकार से इस पूरी प्रक्रिया को एक कदम और आगे ले जाया गया। इसने सरकार और नागरिक के बीच के रिश्ते की व्यापक व्याख्या की। इस कानून का सबसे यादगार आयाम यह है कि इसे सभी वर्गों, जातियों, और क्षेत्रों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। बिना किसी भेदभाव के सभी लोग सूचनाएं मांग कर पंचायत से पार्लियामेंट तक प्रगतिशील तरीके से सरकारी जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं।


हालांकि इन दिनों यह कानून कई चुनौतियों से जूझ रहा है। चिंता के इन मसलों का दायरा काफी व्यापक है। इनमें  आयुक्तों की नियुक्ति, आयोग और अपीलीय अधिकारियों के पास लंबित मामले, संशोधनों के माध्यम से इस कानून को कमजोर करने के लगातार किए जा रहे सरकारी प्रयास और सीबीआइ जैसे संगठनों का इस कानून के दायरे से बाहर रखने जैसे प्रावधान शामिल हैं।


आजकल सूचना के अधिकार मांगने वाले और कार्यकर्ताओं के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है। उनकी जान को खतरा पैदा हो गया है। अराजक तत्व और माफिया द्वारा ऐसे कई सूचना के सिपाही मारे जा चुके हैं। नेशनल कंपेन ऑफ पीपुल्स राइट्स टू इंफार्मेशन के अनुसार पिछले दो साल के अंदर करीब 150 आरटीआइ कार्यकर्ताओं पर हमले किए जा चुके हैं। सरकार द्वारा शीघ्र ही इन लोगों की सुरक्षा का प्रबंध किया जाना चाहिए। आरटीआइ कार्यकर्ताओं को चाहिए कि वे सामूहिक रूप से खुद के एक सुरक्षा तंत्र के तहत काम करें और उन लोगों की सुरक्षा करें जो अपने हितों की रक्षा के लिए ताकतवर मुहिम चला रहे हैं। इनकी सुरक्षा के लिए शीघ्र ही व्हिसल ब्लोअर विधेयक पारित किया जाना चाहिए।


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subhash chandra agarwalआरटीआइ एक्ट में सुधार में जरूरत

(आरटीआइ कार्यकर्ता)


कई हाई कोर्ट और सक्षम अथॉरिटी के बाद अब छत्तीसगढ़ विधानसभा भी आरटीआइ एक्ट की धारा 27 और 28 द्वारा दी गई शक्तियों का दुरुपयोग कर रही है। इन धाराओं में राज्य सरकार या सक्षम प्राधिकारी को अपने नियम बनाने की शक्ति दी गई है। इसका उपयोग करके ही छत्तीसगढ़ विधानसभा ने आरटीआइ की फीस 10 रुपये से बढ़ाकर 500 रुपये कर दी है। इसी तरह प्रति पेज कॉपी कराने की दर दो रुपये से बढ़ाकर 15 रुपये कर दी गई। यह कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के 26 अप्रैल, 2011 को जारी उस सर्कुलर के बावजूद किया गया जिसमें सभी राज्यों से आग्रह किया गया है कि 10 रुपये की आरटीआइ फीस के मामले में सभी समानता रखें

इससे पहले 2006 में दिल्ली हाई कोर्ट ने इन धाराओं का दुरुपयोग करते हुए ऐसे नियम बनाए जो आरटीआइ एक्ट से प्रत्यक्ष तौर पर विरोधाभासी है। इसलिए केंद्र सरकार को आरटीआइ एक्ट की धारा 27 और 28 को निष्प्रभावी बनाने संबंधी कदम उठाने चाहिए। इसके साथ ही आरटीआइ नियमों और इसकी फीस की समीक्षा का अधिकार केंद्रीय सूचना आयोग को दिया जाना चाहिए ताकि वह ही इसका निर्धारण कर सके जो सभी राज्यों और सक्षम प्राधिकारियों के लिए एकसमान हों। इसी तरह आरटीआइ फीस और अन्य मदों के भुगतान के लिए एकमात्र विशेष आरटीआइ स्टांप की शुरुआत करनी चाहिए। यह स्टांप हर पोस्ट ऑफिस, बैंक और सार्वजनिक विभागों में उपलब्ध होने चाहिए। इससे पोस्टल-आर्डर बनवाने में जनता के पैसे की होने वाली बर्बादी पर अंकुश लगाया जा सकेगा। वित्तीय वर्ष 2006-07 के एक आंकड़े के अनुसार एक पोस्टल-आर्डर पर 22.71 रुपये का खर्च आता है। एक राज्य सूचना आयुक्त के अनुसार कुछ बड़े ठेकेदार दस्तावेजों और आरटीआइ फीस से मुक्ति पाने के लिए गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) की श्रेणी में आने वाले अपने कर्मचारियों के माध्यम से आरटीआइ आवेदन कराते हैं। इसकी वजह यह है कि इन लोगों से फीस लेने का प्रावधान नहीं है। इस तरह के दुरुपयोग को रोकने के लिए इस श्रेणी में आने वाले लोगों को ऐसी सूचनाएं ही दी जानी चाहिए जो उनसे व्यक्तिगत तौर पर ताल्लुक रखती हो।


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सूचना के अधिकार का कानून का नाम सुनते ही सरकारी बाबुओं के होश उड़ जाते हैैं। लिहाजा इस कानून को लेकर सरकारी बाबू भ्रामक कथाएं फैला रहे है और उसे भूत बनाने की कोशिश कर रहे हैैं। इसके कारण यह कानून कारगर नहीं हो पा रहा है। केंद्र सरकार द्वारा यह कानून बनाए जाते समय सरकारी कार्यालयों को 120 दिन के अंदर सभी रिकॉर्ड दुरुस्त कर उसे आम जनता के लिए उपलब्ध कराने के निर्देश दिए थे।


आरटीआइ एक्ट, 2005 की धारा -4  में सार्वजनिक प्राधिकरणों को 17 मामलों से जुड़ी जानकारियां स्वत: ही अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक करने का प्रावधान किया गया है। इनमें विभाग की कार्यप्रणाली, अधिकारियों के नाम, कर्तव्य, कार्यकाल एवं उनका वेतन इत्यादि प्रमुख हैं। सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि सिर्फ ये 17 जानकारियां सार्वजनिक हो जाने से आवेदनों की संख्या में करीब 60 प्रतिशत कमी आ सकती है।  कानून से जुड़े जन सूचना अधिकारियों एवं अपीलीय अधिकारियों को प्रशिक्षित करने की बात कही गई थी। लेकिन इस प्रकार का प्रशिक्षण कुछ विभाग दे पाए है। महाराष्ट्र सूचना आयोग ने अपनी छठी वार्षिक रिपोर्ट में टिप्पणी की है कि राज्य के 80 प्रतिशत जन सूचना अधिकारी एवं अपीलीय अधिकारियों को इस कानून का ज्ञान ही नहीं है। जिसके कारण अपीलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।


सरकारी विभाग आरटीआइ को दोयम दर्जे पर रखते हुए जन सूचना अधिकारी के पद पर विभाग के प्रमुख अधिकारी के बजाय ज्यादातर क्लर्क स्तर के

कर्मचारी को बैठाते है। जिनके द्वारा वांछित सूचनाएं न दे पाने पर अपीलों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। क्लर्क स्तर के ये कर्मचारी अपीलीय अधिकारियों के आदेश भी नजरअंदाज करते हैं। सूचना आयोग के पास शिकायतें बढ़ने का यह भी एक कारण है। अपीलीय अधिकारियों को सिर्फ सुनवाई का अधिकार है, किसी जन सूचना अधिकारी पर जुर्माना या उसे सजा देने का नहीं ।

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