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न्‍यायपालिका बनाम कार्यपालिका

मुद्दा
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पड़ोस: हर कोई बेहतर पड़ोसी की कामना करता है क्योंकि उसको आप चुन नहीं सकते। यही बात देशों के मामले में भी लागू होती है। भारत भी पाकिस्तान, बांग्लादेश, समेत अपने सभी पड़ोसियों की बेहतरी चाहता है लेकिन पाकिस्तान में प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अयोग्य करार दिए जाने के बाद वहां न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच बढ़ रही टकराहट ने भारत की पेशानी पर बल ला दिए हैं


पाकिस्तान: अमेरिका-नाटो से बिगड़ते संबंध, अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते वर्चस्व, ड्रोन हमलों से देश के भीतर नाराजगी, बढ़ते आतंकवाद और आर्थिक तंगी से जूझ रहा यह देश अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अलग-थलग पड़ता जा रहा है। इतनी सारी समस्याओं के बीच सेना, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच वर्चस्व की जंग दिख रही है। नतीजतन देश में लोकतंत्र के पाए कमजोर पड़ते जा रहे हैं


परेशान: लचर शासन, भ्रष्ट राजनीतिक दल, सेना-आइएसआइ गठजोड़ के कारण अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़ रहा पाकिस्तान पूरे विश्व की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है। देश की बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता के बीच एक अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठित पत्रिका ने पाकिस्तान को 59 देशों की सूची में 13 वां विफल राष्ट्र घोषित किया है। इन सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले भारत के लिए यह बड़ा मुद्दा है।

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न्‍यायपालिका बनाम कार्यपालिका

उन्नीस जून को अवमानना के मामले में दोषी करार दिए गए प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पद के अयोग्य ठहराए जाने से पाकिस्तान में नया राजनीतिक संकट पैदा हो गया है। इस निर्णय से अमेरिका के साथ सहयोग, नाटो सप्लाई, पाक-अफगान संबंध, मुद्रास्फीति और आर्थिक मंदी कई मोर्चों पर लड़ रही सत्तारूढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की कमजोर लोकतांत्रिक सरकार पर अतिरिक्त दबाव पैदा हो गया है। ये राजनीतिक अस्थिरता अगले 130 दिनों तक बनी रहेगी। जब तक फरवरी, 2013 में होने वाले आम चुनाव के लिए नवंबर में कामचलाऊ कैबिनेट का गठन नहीं हो जाता।


इस ताजा विवाद ने 2009 से जारी न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संघर्ष को तेज किया है। प्रधानमंत्री के रूप में गिलानी का चार साल का कार्यकाल उनके और देश के लिए उथल-पुथल भरा रहा। वर्चस्व की लड़ाई में वह एक तरफ सेना से लड़ते रहे तो दूसरी ओर न्यायपालिका ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।


अब सवाल उठता है कि क्या न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच अपनी लोकतांत्रिक शक्तियों के प्रदर्शन के अलावा भी कुछ चल रहा है? सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह सरकार के खिलाफ लड़ाई छेड़ी है उसके कारण उस पर दूसरी तरह  से तख्तापलट करने के आरोप लग रहे हैं। यह फैसला उस विवाद के बीच भी आया है जिसमें एक बड़े बिजनेसमैन ने चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी के बेटे को बड़ी मात्रा में रिश्वत देने का आरोप लगाया है। यह भी कयास लगाए जा रहे हैं कि कोर्ट, सेना के प्रतिनिधि के तौर पर काम कर रही है। वर्तमान संकट के बीच इस बात की संभावना प्रबल है कि लोकतांत्रिक हस्तांतरण द्वारा जो नई सरकार बनेगी वह सुरक्षित रहेगी। ऐतिहासिक रूप से पाकिस्तानी कानून उस पठानी कहावत को दर्शाता है जिसके मुताबिक ‘जो भी मुर्गी को पकड़ लेगा वह उसी की हो जाएगी।’ 2007 में मुशर्रफ का सुप्रीम कोर्ट से संघर्ष और उसके बाद वकीलों का आंदोलन कोई अविश्वसनीय घटना नहीं थी। सभी सैन्य और नागरिक सरकारों ने उच्च न्यायालयों को कब्जे में लेने की कोशिश की है और उनको धमका कर अपनी असंवैधानिक एवं अवैध कार्रवाईयों पर उनकी सहमति लेने की नाकाम कोशिश की है। 2007-2009 के बीच पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट की स्वायत्तता के लिए चले आंदोलन को वहां की सिविल सोसायटी ने नए रूप में महसूस किया। वास्तविकता यह है कि 2009 में कोर्ट और वकीलों के आंदोलन को कुछ हद तक नवाज शरीफ का राजनीतिक समर्थन भी प्राप्त था। नतीजतन सुप्रीम कोर्ट ने जब नेशनल रिकांसिलिएशन ऑर्डिनेंस (एनआरओ) को जब खत्म किया और पीपीपी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले चलाने शुरू किए तो उदारवादी ताकतों ने न्यायपालिका की सख्त आलोचना की। इन्हीं ताकतों ने पहले मुशर्रफ के खिलाफ न्यायिक स्वतंत्रता की आवाज बुलंद की थी। अब यही लोग जजों और मिलिट्री के बीच साठगांठ का आरोप लगा रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि न्यायपालिका और मीडिया का उपयोग किया जा रहा है। नवाज शरीफ भी 1997-99 के बीच जब प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने भी तत्कालीन चीफ जस्टिस को असंवैधानिक तरीके से हटा दिया था। यहां यह कहना भी समीचीन होगा कि अगर नवाज शरीफ सत्ता में लौटते हैं तो उनके प्रशासन द्वारा किए जाने वाले गैरकानूनी कृत्यों के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट कार्रवाई करेगा।


वकीलों के आंदोलन को भी प्रगतिशील ताकतें मानने पर विचार करने की जरूरत है। यह सच है कि कराची के मुनीर मलिक और लातिफ आफरीदी जैसे उदार वकील इस आंदोलन के अगुआ थे। हालांकि स्थानीय एवं प्रादेशिक स्तर पर इसकी अगुआई ऐसे रुढ़िवादी वकील कर रहे थे जो मुशर्रफ द्वारा अमेरिका को दिए जा रहे समर्थन और भारत के साथ उनकी बढ़ती दोस्ती को अविश्वास की नजर से देखते थे। पिछले साल उन्होंने पंजाब के गर्वनर सलमान तासीर की हत्या करने वाले हत्यारे को सार्वजनिक तौर पर फूल-मालाओं से लाद दिया था। जब ओसामा बिन लादेन की मौत हुई तो वकीलों ने अपनी बांह पर काली पट्टी बांधकर शोक सभाएं की थीं। जब अमेरिका ने हाफिद सईद की गिरफ्तारी के लिए ईनाम घोषित किया तो लाहौर बार एसोसिएशन ने आधिकारिक वक्तव्य देते हुए कहा कि सईद आतंकी नहीं है बल्कि ओबामा आतंकी हैं।


पाकिस्तानी राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि संस्थाओं के बीच संघर्ष से वहां के कमजोर लोकतंत्र पर विपरीत असर पड़ेगा। जरदारी ऐसे सरकार की अगुआई कर रहे हैं जिसकी लोकप्रियता अपने सबसे निचले स्तर पर है। इस सरकार को अब तक की सबसे भ्रष्ट और नाकारा सरकार माना जा रहा है। जरदारी सरकार ने कोर्ट के निर्णय को स्वीकार कर लिया है। कोर्ट के आदेश का विरोध करने पर गंभीर संवैधानिक संकट खड़ा हो सकता था। यूसुफ रजा गिलानी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के खिलाफ 30 दिनों के भीतर अपील कर सकते हैं।


इन सबके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नए प्रधानमंत्री को भी कोर्ट का आदेश मानते हुए राष्ट्रपति जरदारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के खिलाफ दोबारा खोलने का आदेश जारी करना पड़ेगा। ऐसा नहीं करने पर उनको भी इस्तीफा देना पड़ेगा। चीफ जस्टिस वर्तमान सरकार को कोई सहूलियत देते हुए नहीं दिखते। सेना मुख्य भूमिका में नहीं आना चाहती लेकिन पीपीपी सरकार के तंत्र को नष्ट होते देखना चाहती है क्योंकि वह इस सरकार को पसंद नहीं करती।


इस आलेख के लेखिका प्रो. उमा सिंह अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकार और पाकिस्तान विशेषज्ञ हैं


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