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पर्यावरण पतन सबका संकट: मत चूको चौहान

मुद्दा
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समस्या

अब बताने और समझाने की जरूरत नहीं रह गई है। धरती के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ का नतीजा हम सबको दिख रहा है। उसका खामियाजा हम भुगत रहे हैं। जहां कुछ साल पहले घने जंगल हुआ करते थे, वहां आज कंक्रीट की अट्टालिकाएं खड़ी हो चुकी हैं। जहां कभी पानी से लबालब भरे ताल, पोखर, झीलें और अन्य जल स्नोत हुआ करते थे, आज अमूमन उनका अस्तित्व ही नहीं है। जो हैं भी वे सूखे उजाड़ पड़े हैं। मौसम बदल रहा है। जीव-जंतु गायब हो रहे हैं। फसलों की पैदावार घट रही है। नई-नई बीमारियां लोगों को जकड़ रही हैं। समुद्र उफन रहा है। पर्यावरण के हर क्षेत्र को हम असंतुलित करते जा रहे हैं।


सवाल

इन सभी गड़बड़ियों का एक मात्र कारण है पर्यावरण के कुदरती नियमों से की गई छेड़छाड़। हमने स्वार्थों के लिए प्रकृति का इतना दोहन किया लेकिन बदले में उसे उतना दे नहीं सके। हम प्रकृति से अलग होते चले गए। विकास की अंधी दौड़ हमने गलत रास्ते पर लगा ली। आखिर धरती हमारी है। जल, जंगल और जमीन हमारे हैं। हम ही इनका इस्तेमाल करते हैं। आज अगर इनके अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है तो इसे कौन दूर करेगा? इसका दुष्परिणाम समाज के सभी तबकों पर बराबर पड़ रहा है। अमीर-गरीब, बड़ा-छोटा सभी समान रूप से इससे प्रभावित हैं।


समाधान

आगामी पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस है। हालांकि ऐसे दिवसों का आयोजन समस्या को दुरुस्त करने के प्रयासों और संकल्पों के लिए किया जाता है, लेकिन हमारे नीति-नियंता कुछ कार्यक्रमों के साथ अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। चूंकि पर्यावरण नुकसान के दुष्परिणाम के सीधे असर से हम सब प्रभावित हैं। लिहाजा हम सबको ही आगे आना होगा। ऐसे में पर्यावरण का संरक्षण हम सबके लिए सबसे बड़ा मुद्दा बन जाता है। तो आइए, विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर हम अपने प्रयासों से धरती के पर्यावरण को बचाने का संकल्प लें।

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मत चूको चौहान

दिवस और दिन में अंतर होता है। दुर्भाग्य से पर्यावरण दिवस एक दिन के लिए आता है और 364 दिन उसे बर्बाद करने के लिए आते हैं। हर जगह खनन, जंगलों की कटाई, औद्योगिकीकरण के नाम पर नए-नए कारखानों का लगाना आर्थिक विकास दर को लगातार बढ़ाने के नाम पर जो कुछ भी समाज में आज हो रहा है उसमें पर्यावरण के सभी अंग छिन्न-भिन्न हो चले हैं। थोड़ा पीछे पलट कर देखें तो देश की सदानीरा नदियों को बचाने के लिए जो कानून 1972 में बने थे, वे आज 40 साल बाद खुद ही दम तोड़ते से दिखते हैं। इनकी सफाई के लिए जो कानून और योजनाएं बनी थी, आज उनके ऊपर से गंगा-यमुना का भयानक रूप से प्रदूषित हो चुका पानी बह चुका है। उसके बाद भी हमें किसी नए कानून और नई योजना का इंतजार रहता है।


जो ऊपर नदियों के साथ हुआ वही नीचे छिपे भू-जल भंडारों के साथ भी हुआ है। देश में अनेक जिले आज अपने नीचे का पानी उलीच कर उन सब नकदी फसलों में, कारखानों में खपा चुके हैं। जिनका मान व समान और फल व फूल देश का पेट भरने के बदले ज्यादातर निर्यात के काम आते हैं। गरीब बताए गए राज्यों की बात छोड़ ही दें तो आज महाराष्ट्र जैसे संपन्न राष्ट्र में भी अकाल पसरा हुआ है। गुजरात के जिस कुशल नेतृत्व का इतना हल्ला हम पिछले कुछ समय से सुन रहे हैं, वहां भी 14 जिलों में अकाल चुपचाप पसर चुका है। देश में राजनीति का स्तर ज्यादा गिरा हुआ है या भूजल का ज्यादा गिरा है यह पक्का नहीं कहा जा सकता है।


केस स्टडी : इस सबके बाद भी पूरे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जिन्होंने अपने दम पर, बिना सरकारी मदद के कोई टुकड़ा जंगल का, नदी का, जमीन का और आकाश का अपने सुंदर कामों से बचाकर रखा है। कुछ नाम लोग जानते भी होंगे तो कई नाम ऐसे भी होंगे जिन्होंने अपना प्रचार व महत्व भूलकर चुपचाप काम किया है। महाराष्ट्र, आंध्र और मध्यप्रदेश की सीमा पर एक छोटा-सा गांव है मेंढालेखा। इसने कोई 30 साल लड़ी लड़ाई से अपने गांव का विशाल बांस का वन एक बड़ी कागज बनाने वाली कंपनी से वापस लिया है और नक्सलवादी कहे जाने वाले इलाके में बिना किसी सरकारी मदद के अपने परिवारों को वन उपज बांस के माध्यम से 10 हजार मासिक रुपये से ज्यादा की आमदनी सम्मान के साथ दे रहा है। इसी तरह ऊपर हिमालय में पौढ़ी गढ़वाल के एक छोटे से गांव ऊफरेंखाल ने अपने इलाके में बड़े- बड़े जंगल खड़े किए हैं। ऐसे जंगल जिन्हें चाहे तो वन विभाग अपने संरक्षित वन बताकर विश्वबैंक तक को दिखा सकता है। इस काम को चुपचाप करने वाले शिक्षक सच्चिदानंद भारती गांव के स्कूल में पढ़ाते हैं। वे 24 घंटे के समाज सेवक भी नहीं है लेकिन अपने आस-पास के कई गांव में उन्होंने चमत्कार किए हैं। इसलिए दिवस और दिनों में अंतर होता है। इस बात को हम कम से कम पर्यावरण के दिवस पर न भूलें।

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अब चाहिए समाधान

जलसंकट से हम सब जूझ रहे हैं। इसका समाधान भी जानते हैं लेकिन समाधान के लिए काम नहीं करते हैं। अगर अब हमने इसके समाधान के लिए काम नहीं किया तो हमारा भविष्य संकट में है। हम बेपानी होकर आपस में लड़ेंगे। ये जंग गांव और शहर के बीच होगी। सिंचित खेती और उद्योगों के बीच होगी। गरीब और अमीर के बीच होगी। इसलिए अब हमें समस्या के समाधान पर काम करना होगा। इस समस्या के पांच समाधान हैं।


1. वर्षाजल को समझना और सहेजना

2. जल के वाष्पीकरण को बचाने के लिए वर्षाजल का धरती के पेट में पुनर्भरण

3. भूजल की निकासी कम करना

4. पानी का अनुशासित उपयोग करना

5. जल के संस्कारपूर्वक व्यवहार को अपनाना।


ये काम करने के लिए हमें अपनी मरी हुई सूखी नदियों का सीमांकन और चिन्हीकरण करके नदी के उद्गम से ही जल संरक्षण कार्य शुरू करने चाहिए। नदियों के दोनों तरफ भूसंस्कृति का सम्मान करके जल संरक्षण के साथ-साथ वृक्षारोपण करना चाहिए। यहां पर मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए ऐसी घासें लगानी चाहिए जो धरती के पेट से कम पानी खींचें। साथ ही साथ पुराने तालाबों के अतिक्रमण हटवाकर उन्हें पुनर्जीवित करना। गांव या शहर के तालाबों में गंदे जल के तालाब और साफ जल के तालाबों को अलग-अलग रखना। वर्षा जल के खाले तथा गंदे जल के नाले आपस में नहीं मिलने देना। रीवर और सीवर के अलग रखने के भारतीय सिद्धांत को हमारा राज और समाज दोनों मिलकर अपनाएं। तभी हमारा सतह का जल, अध: सतही जल, भूजल और पाताल जल को शोषण और प्रदूषण से बचेगा। और सबकी पीने-जीने की जरूरत को पूरी कर सकेगा।


केस स्टडी: 1980 में राजस्थान के गोपालपुरा गांव के लोग बेपानी होकर उजड़ गए थे। वहां के लोगों में लाचारी, बेकारी और बीमारी घर कर गई थी। इसलिए ज्यादातर लोग गांव छोड़कर शहरों में पलायन कर गए थे। 1985 में यहां के चौतरे वाले जोहड़ और मेवालों का बांध बनाया गया। इसे बनाने में तरुण भारत के कार्यकर्ताओं ने चार साल तक लगातार अथक शारीरिक श्रम किया। 1988 में बहुत अच्छी बारिश हुई। बारिश से नई बनाई गई दोनों जल संरचनाएं भर गईं। इनके आसपास के कुंओं में पानी आ गया। शहर में पलायन कर गए सब जवान लड़के अपने गांव वापस लौट आए। यहां आकर उन लोगों ने फिर से खेती शुरू कर दी। यहां के गांवों के परिवेश में हरियाली बढ़ी। भूजल का भंडार भरा। परिणामस्वरूप यहां की सरसा नदी सदानीरा बनकर बहने लगी। इसी तरह के लगभग डेढ़ हजार गांवों ने जल संरक्षण करके दस हजार से ज्यादा जल संरचनाओं का निर्माण किया। इसने धरती का पेट पानी से भर दिया। अब सभी कुंओं में जलस्तर 10 फीट से 40 फीट के भीतर है। 8600 वर्ग किमी में इस जल संरक्षण के काम ने सात नदियों को पुनर्जीवित कर दिया। ऐसी मिसाल पूरे देश में कायम की जा सकती है।

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